कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया के प्रति योग साधकों की जिज्ञासा अगाध है। योग मार्ग का प्रत्येक अनुयायी अपने मन में यह चाहत संजोये रखता है कि उसकी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत् हो। और वह इसकी उपलब्धियों एवं विभूतियों से लाभान्वित हो सके। साधकों की इस महती आकाँक्षा, अभीप्सा, अभिलाषा के बावजूद ऐसे विरले ही होते हैं, जो कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया को सफलतम रीति से कर पाते हैं, अधिकाँश को तो शाब्दिक एवं बौद्धिक सन्तोष ही करना पड़ता है। इसका एक ही कारण समझ में आता है- कुण्डलिनी तत्त्व की सही जानकारी न होना और उपयुक्त मार्गदर्शन का अभाव।
संस्कृत में ‘कुण्डल’ शब्द का अर्थ है- घेरा बनाए हुए। यह एक परम्परागत मान्यता है। जिसके सही स्वरूप को प्रायः नहीं समझा गया है। वैसे कुण्डलिनी शब्द ‘कुण्ड’ से बना है। और इसका अर्थ है- कोई गहरा स्थान, छेद या गड्ढ। हवन के लिए आग जलाते हैं, उसे भी कुण्ड कहते हैं। योगियों के अनुसार- कुण्डलिनी शब्द का तात्पर्य उस शक्ति से है- जो गुप्त एवं निष्क्रिय अवस्था में है। किन्तु इस शक्ति के जाग्रत् होने पर उसे अपनी अनुभूति के आधार पर ही महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती अथवा अन्य किसी भी नाम से जाना जाता है।
शास्त्रकारों एवं तत्त्वदर्शियों ने इस सम्बन्ध में अपने-अपने अनुभव के आधार पर कई मत व्यक्त किये हैं। ज्ञानर्णव तन्त्र में कुण्डलिनी को विश्वजननी और सृष्टि संचालिनी शक्ति कहा गया है- ‘शक्तिः कुण्डलिनी विश्व जननी व्यापार बद्धोद्यता’। विश्व व्यापार एक घुमावदार उपक्रम के साथ चलता है। परमाणु से लेकर ग्रह-नक्षत्रों और आकाश गंगाओं तक की स्थिति परिभ्रमण परक है। आत्मा का परिभ्रमण भी कुछ इसी तरह से है। कुण्डलिनी सृष्टि संदर्भ में समष्टि और जीव संदर्भ में- शक्ति संचार करती है।
उपनिषदों में भी कुण्डलिनी शक्ति की चर्चा हुई है। कठोपनिषद् में यम-नचिकेता संवाद में जिस पंचाग्नि विद्या की चर्चा हुई है, उसे कुण्डलिनी शक्ति की पंचविधि विवेचना कहा जा सकता है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् में उसे योगाग्नि कहा गया है-
‘न तस्य रोगो न जरा मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्नि भयं शरीरं।’
जान वुडरफ सरीखे तत्त्वान्वेषियों ने उसे ‘सर्पेन्ट पावर’ नाम दिया है। महान् साधिका मैडम ब्लावतास्की ने इसे ‘कास्मिक इलेक्ट्रिसिटी’ कहा है। ईसाई परम्परा में बाईबिल में ‘साधकों का पथ’ अथवा ‘स्वर्ग का रास्ता’ नाम से कुण्डलिनी शक्ति के जागरण को ही बताया गया है। इन सभी कथनों का सार यही है कि आध्यात्मिक जीवन में जो कुछ भी होता है, वह कुण्डलिनी जागरण से ही सम्बन्धित है। किसी भी प्रकार की योग साधना का सार कुण्डलिनी शक्ति का जागरण ही है।
परन्तु यह जागरण अति दुष्कर है और बहुत आसान भी। यदि जाग्रत् कुण्डलिनी नियंत्रित न की जा सके, तो वह फिर महाकाली बनकर प्रलय के दृश्य उपस्थित करती है। और यदि उसे नियंत्रित करके अर्थ पूर्ण बनाया जा सके तो यही शक्ति दुर्गा का सौम्य रूप ले लेती है। योग साधकों के अनुभव के अनुसार अचेतन कुण्डलिनी का प्रथम स्वरूप काली एक विकराल शक्ति है। जिसका शिव के ऊपर खड़े होना उसके द्वारा आत्मा पर पूर्ण नियंत्रण को व्यक्त करता है। कुछ लोग कभी-कभी मानसिक अस्थिरता के कारण अपने अचेतन के संपर्क में आ जाते हैं, जिसके फलस्वरूप अशुभ और भयानक भूत, पिशाच दिखाई देने लगते हैं। परन्तु जब साधक की अचेतन शक्ति का जागरण होता है तो यह ऊर्ध्वगमन के बाद आनन्द प्रदायिनी, उच्च चेतना दुर्गा का रूप धारण कर लेती है।
कुण्डलिनी जागरण के साथ ही जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन होने लगते हैं। कुण्डलिनी के जाग्रत् होते ही हमारे मन में परिवर्तन आता है। हमारी प्राथमिकताओं और आसक्तियों में परिवर्तन आता है। हमारे सभी कर्मों को परिवर्तन की इस प्रक्रिया से गुजरना होता है। इस बात को कुछ यूँ भी समझा जा सकता है कि बचपन में हम सभी खिलौनों के लिए लालायित रहते हैं। परन्तु बाद में सारी मनोवृत्तियाँ बदल जाती हैं। इसी प्रकार कुण्डलिनी जागरण के साथ ही एक प्रकार का रूपांतरण प्रारम्भ हो जाता है। उस समय सम्पूर्ण जीवन के सुव्यवस्थित एवं पुनर्गठित होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
कुण्डलिनी जागरण से होने वाले परिवर्तन, सामान्यतया सकारात्मक होते हैं, परन्तु यदि मार्गदर्शन सही न हो तो ये नकारात्मक भी हो सकते हैं। जब शक्ति का जागरण होता है तो शरीर को सभी कोशिकाएँ पूरी तरह से चार्ज हो जाती हैं और कायाकल्प की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। आवाज बदल जाती है, शरीर की गंध बदल जाती है। शरीर में होने वाले हार्मोन के स्राव भी परिवर्तित हो जाते हैं। शरीर और मस्तिष्क की कोशिकाओं का रूपांतरण सामान्य अवस्था से कहीं अधिक तेज गति से होने लगता है। सच तो यह है कि एक बार इस महान् शक्ति के जागरण के बाद मनुष्य निम्न स्तर के मन या निम्न प्राण शक्ति द्वारा संचालित होने वाला स्थूल शरीर नहीं रह जाता। बल्कि उसके शरीर की प्रत्येक कोशिका कुण्डलिनी की उच्च प्राण शक्ति से भर जाती है। जब यह जागरण पूर्ण होता है, तब मनुष्य एक छोटा भगवान् हो जाता है, अर्थात् उसका स्वरूप दिव्य हो जाता है।
इस महान् उपलब्धि को कैसे पाएँ? अर्थात् कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया को कैसे सम्पन्न करें? अथवा कुण्डलिनी योग की साधना किस तरह करें? इन सभी प्रश्नों के उत्तर में हम यहाँ सरल, निरापद उपायों की चर्चा करेंगे। सामान्य क्रम में प्रचलित साधनाओं में हठयोग की कठिन प्रक्रियाओं की चर्चा सुनने को मिलती है। इससे होने वाले लाभ निश्चित रूप से है, पर तनिक सी असावधानी होने पर हानियाँ इतनी अधिक हैं कि साधक का समूचा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। फिर उसे बचा पाना किसी के लिए सम्भव नहीं होता। इसलिए ऐसी जटिल प्रक्रियाओं को न अपनाना ही श्रेष्ठ व श्रेयस्कर है।
कुण्डलिनी साधना का सरलतम उपाय है- गायत्री महामंत्र का नियमित जप। यह एक बहुत शक्तिशाली, सरल एवं निरापद मार्ग है। परन्तु इसमें अपेक्षाकृत समय तथा धैर्य की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार किसी शान्त झील में कंकड़ फेंकने पर उसमें तरंगें उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार मंत्र को बार-बार दोहराने से मन रूपी समुद्र में तरंगें उत्पन्न होती हैं। लाखों-करोड़ों बार गायत्री मंत्र के जप से अस्तित्व का कोना-कोना झंकृत हो जाता है। इससे अपने शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों स्तरों की शुद्धि हो जाती है।
इस साधना में आवश्यकता यह है कि गायत्री महामंत्र का जप मानसिक स्तर पर भावनात्मक प्रगाढ़ता के साथ मन्द गति से किया जाना चाहिए। ऐसे ढंग से मंत्र का जप करने से कुण्डलिनी जागरण बिना किसी परेशानी के सही ढंग से हो जाता है। साधना के इस क्रम में उपासना के समय के अतिरिक्त भी श्वास के साथ हर पल गायत्री महामंत्र के जप में साधक को संलग्न रहना चाहिए।
कुण्डलिनी जागरण को इस साधना को और अधिक तीव्र एवं प्रखर बनाने के लिए गायत्री महामंत्र के जप के साथ तप के अनुबन्धों का होना आवश्यक है। ध्यान रहे कि तपस्या शुद्धिकरण की एक क्रिया है। उसे ठण्डे पानी अथवा कड़ी धूप में खड़े रहने जैसी अन्य हरकतें मानकर भ्रमित नहीं होना चाहिए। तपस्या का निहितार्थ- संस्कारों एवं वासनाओं का समूल क्षय है। इसके रहस्य को परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री महाविज्ञान के प्रथम खण्ड में विस्तार से बताया है। गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में ‘पापनाशक एवं शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ’ शीर्षक के अंतर्गत विधियों को अपनाकर इस साधना की तीव्रता को और अधिक बढ़ाया जा सकता है। इन प्रक्रियाओं को जीवन में आत्मसात करके यदि प्रातः काल तीन घण्टे गायत्री महामंत्र की साधना की जाय तो कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के संकेत साधक को मिलने लगते हैं। लगातार छः वर्षों की इस साधना के साथ ही योग साधक पर जाग्रत् कुण्डलिनी का अमृत बरसता है। जिसके परिणाम स्वरूप जीवन में विशेषताओं और विभूतियों की सम्पदा अनायास ही अंकुरित और पल्लवित होने लगती है। जिसके सतत् अभिवर्द्धन के लिए समर्थ सद्गुरु का संरक्षण अनिवार्य है।