आत्मानुभूति योग है आधार विज्ञानमयकोष का

September 2001

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विज्ञान का अर्थ है- विशेष ज्ञान। सामान्य ज्ञान के द्वारा हम लोक व्यवहार को, अपनी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक समस्याओं और समाधानों को जानते-समझते हैं। राजनीति, शिल्प, चिकित्सा, रसायन, संगीत आदि विविध विषयों की ज्ञान धाराएँ भी इसी सामान्य ज्ञान के दायरे में आती हैं। इसी के आधार पर हम सब का सामाजिक-साँसारिक जीवन चलता है।

किन्तु इसकी सीमा रेखा यहीं तक है। आत्मा का इससे थोड़ा सा भी हित नहीं सधता। साँसारिक ज्ञान व्यक्ति को धनवान, प्रतिष्ठित बनाने में सहायक होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि ऐसे लोग आत्मिक दृष्टि से भी उच्च हों। कई महानुभाव आत्मा-परमात्मा के बारे में बहुत बातें करते हैं। ईश्वर, जीव, प्रकृति, योग, वेदान्त के बारे में ढेरों प्रवचन देकर भीड़ को लुभा लेते हैं। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि उन्हें आत्म ज्ञान हो ही।

उपनिषदों में वरुण और भृगु की कथा में विज्ञानमय कोश के इस सत्य का बड़ी मार्मिक रीति से बखान किया गया है। भृगु पूर्ण विद्वान् थे। वेद-शास्त्रों का उन्हें भली-भाँति ज्ञान था। फिर भी उन्हें मालूम था कि वे आत्मज्ञान, विज्ञान से वंचित हैं। इस विज्ञान को पाने के लिए उन्होंने वरुण से प्रार्थना की। वरुण ने महर्षि भृगु को कोई शास्त्र नहीं सुनाया, कोई पुस्तक नहीं रटायी और न ही कोई प्रवचन सुनाया। बस उन्होंने एक बात कही- योग साधना करो। योग साधना करते हुए भृगु ने एक-एक कोश का परिष्कार करते हुए विज्ञान को प्राप्त किया।

इस सत्य कथा का सार यही है कि ज्ञान का दायरा सिर्फ जानकारी पाने-बटोरने तक सिमटा है। जबकि विज्ञान का एक और सिर्फ एक अर्थ- अनुभूति है। इसीलिए विज्ञानमय कोश की साधना को आत्मानुभूति योग भी कहा गया है। आत्मविद्या के सभी जिज्ञासु यह जानते हैं कि आत्मा अविनाशी है- परमात्मा का सनातन अंश है। परन्तु इस सामान्य जानकारी का एक लघु कण भी उनकी अनुभूति में नहीं होता। शरीर के लाभ के लिए आत्मा के लाभों की उपेक्षा प्रतिक्षण होती रहती है। दीनता, लालसा, तृष्णा हर घड़ी घेरे खड़ी रहती है।

विज्ञान इसी अंधेरे से हमें बचाता है। जिस भावभूमि में पहुँचकर जीव यह अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं वस्तुतः आत्मा ही हूँ। उस मनोभूमि को विज्ञानमय कोश कहते हैं। अन्नमय कोश में जब तक स्थिति रहती है तब तक अपने को स्त्री-पुरुष, मोटा-पतला, काला-गोरा आदि शारीरिक भेदों से पहचाना जाता है। प्राणमय कोश की स्थिति में गुणों के आधार पर स्वयं की पहचान होती है। मूर्ख, विद्वान्, वैज्ञानिक, कवि आदि की मान्यताएँ प्राणमय कोश की भूमिका में पनपती हैं। मनोमय कोश की भावदशा में मान्यताएँ स्वभाव के आधार पर बनती है। इस सबसे परे विज्ञानमय कोश की भावदशा है, इसमें पहुँचकर जीव को यह स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि मैं ईश्वर का राजकुमार हूँ।

इस सत्य को देने में कोई भी समर्थ नहीं। यह देने वाले की असमर्थता का नहीं सत्य के जीवन्त होने का संकेत है। यह कोई वस्तु नहीं- जिसे दिया या लिया जा सके। यह तो जीवन्त अनुभूति है। और अनुभूति स्वयं ही पानी होती है। ध्यान रहे कि मृत वस्तुएँ ली या दी जा सकती हैं, अनुभूतियाँ नहीं। क्या वह प्रेम की अनुभूति जो कोई एक करता है, दूसरे के हाथों में रख सकता है? क्या वह सौंदर्य और संगीत किसी एक को अनुभव होता है, किसी दूसरे को हस्तान्तरित किया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर एक ही है- नहीं-कभी नहीं। अनुभूतियाँ बाँटी नहीं जाती, उन्हें स्वयं अर्जित करना पड़ता है।

आत्मा के जगत् का सत्य यही है। यहाँ जो पाया जाता है, वह स्वयं ही पाया जाता है। आत्मा के जगत् में कोई ऋण सम्भव नहीं है। वहाँ कोई पर-निर्भरता सम्भव नहीं। किसी दूसरे के पैरों पर वहाँ नहीं चला जा सकता। स्वयं के अतिरिक्त वहाँ कोई भी शरण नहीं है। विज्ञानमय कोश के आत्मानुभूति योग का यही रहस्य है। इस आत्मानुभूति की साधना को निम्न बिन्दुओं में समझा जा सकता है-

1. किसी शान्त, एकान्त, कोलाहल रहित स्थान का साधना के लिए चुनाव करके, हाथ-मुँह धोकर सुविधापूर्वक साधना में बैठना चाहिए। अधिक देर बैठने में दिक्कत हो तो इसे लेट कर भी किया जा सकता है।

2. पाँच बार गहरे-लम्बे श्वास लें, भावना यह रहे कि पाँचों कोश शुद्ध हो रहे हैं, इसके बाद शरीर के अंग-प्रत्यंगों को शिथिल करें। भावना यह रहे कि सारे शरीर में एक शान्त नीला आकाश व्याप्त हो रहा है। ऐसी शान्त शिथिल अवस्था कुछ दिनों की साधना के उपरान्त प्राप्त हो जाती है। इसके बाद हृदय-स्थान में अंगूठे के बराबर शुभ्र-श्वेत ज्योति स्वरूप प्राण शक्ति का ध्यान करना चाहिए- भावना यह रहे- मैं शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य अविनाशी आत्मा हूँ।

इस अवस्था के प्रगाढ़ अनुभव के बाद आगे की सीढ़ी पर पाँव रखना चाहिए। अगली भूमिका का साधनाभ्यास निम्न है-

3. उपरोक्त पंक्तियों में दिए गए विवरण के अनुसार पहले स्वयं को शिथिलावस्था में लाएँ। फिर उस अवस्था में अखिल आकाश में नीलवर्ण आकाश का ध्यान प्रारम्भ करें। ध्यान की इस प्रक्रिया में उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखते हुए यह सुनिश्चित संकल्प करें- मैं ही यह प्रकाशवान आत्मा हूँ। भाव की इस प्रगाढ़ता में अनुभव करें कि अपना शरीर नीचे भूतल पर निस्पन्द अवस्था में पड़ा हुआ है। उसका प्रत्येक अंग-प्रत्यंग मेरी आत्मा के उपकरण से अधिक और कुछ भी नहीं। शरीर और है ही क्या- आत्मा के वस्त्र के सिवा। शरीर रूपी यह वस्त्र अथवा यंत्र मेरी आत्मा की शक्तियों की अभिव्यक्ति के लिए मिला है। ध्यान की इसी प्रगाढ़ता में इस निस्पन्द शरीर में खोपड़ी का ढक्कन उठाकर मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में अनुभव करें। अनुभूति के इन क्षणों में देखें- कि ये दोनों ही विनम्रभाव से आत्मा की आज्ञा मानने के लिए तत्पर हैं। इस अनुभूति की गहनता में यह संकल्प करें कि शरीर, मन और बुद्धि मेरी आत्मा के सेवक हैं। मैं उनका उपयोग केवल आत्म कल्याण के लिए ही करूंगा।

इस दूसरी अवस्था में ध्यान जब सहजता से होने लगे। इसमें उभरी भावनाएँ जब समूचे अस्तित्व में रम जाए तो आत्मानुभूतियोग की तीसरी अवस्था में कदम बढ़ाना चाहिए।

4. इसमें स्वयं को आकाश में अवस्थित सूर्य के रूप में अनुभव करें। अनुभूति के इन पलों में यह बोध प्रगाढ़ हो कि ‘मैं समस्त भू मण्डल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूँ। समूचा संसार मेरा कर्मक्षेत्र और लीलाभूमि है। भूतल की समस्त वस्तुओं और शक्तियों को ‘मैं’ अपने इच्छित प्रयोजनों के लिए काम में लाता हूँ। पर ये मेरे ऊपर अपना कोई प्रभाव नहीं डाल सकती। पञ्चमहाभूतों में जो भी क्रिया-प्रतिक्रिया, हलचलें हो रही हैं, वे मेरे मनोरंजन विनोद मात्र हैं। साँसारिक हानि-लाभ मुझे प्रेरित, प्रभावित नहीं कर सकते। मैं शुद्ध, चैतन्य, सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लेप, अविनाशी आत्मा हूँ। मैं परमात्मा का अभिन्न अंश हूँ।’

इस भाव भूमि में जब अपनी स्थिति प्रगाढ़ हो जाय और हर घड़ी जब यही भावना रोम-रोम से झरने लगे तो समझना चाहिए कि विज्ञानमय कोश का आत्मानुभूतियोग सध गया। इसमें सिद्धि मिलने के पश्चात् ही आनन्दमय कोश की साधना और सिद्धि के पल आते हैं।


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