सप्तदर्षियों की तपोभूमि−शाँतिकुँज

September 2001

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सप्त सरोवर हरिद्वार में स्थित गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, वातावरण की उन तमाम विशेषताओं को अपने में समाये हुए है, जो इसे योग-साधना के लिए एक आदर्श स्थली बनाता है। एक ओर शिवालिक पर्वत शृंखला तो दूसरी ओर गढ़वाल हिमालय इसे अपने सुरम्य आँचल में समेटे हुए हैं। हरियाली के सघन आच्छादन के साथ गंगा का सान्निध्य इसे सहज ही उपलब्ध है। कभी सप्तऋषि गण इसी क्षेत्र में तप-साधना किया करते थे और गंगा जी यहाँ सात धाराओं में बहती थी। इनमें एक धारा शान्तिकुञ्ज क्षेत्र से होकर प्रवाहित होती थी, जिसके प्रमाण अभी भी थोड़ी सी खुदाई करने पर प्रकट होने लगते हैं।

हिमालय की छाया एवं गंगा की गोद में स्थित शान्तिकुञ्ज का यह सुरम्य क्षेत्र स्वयं में कई पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक विशेषताएँ लिए हुए है, जो इसके दिव्य वातावरण से जुड़े विशिष्ट संस्कारों को उजागर करती है।

उत्तराखण्ड हिमालय का द्वार होने के कारण इस क्षेत्र का नाम हरिद्वार पड़ा। पुराणों एवं धर्म ग्रंथों के पृष्ठ इसकी महिमा से भरे पड़े हैं। यह क्षेत्र पुरातन काल में सती एवं शिव के अलौकिक लीला प्रसंगों की भूमि रही है। व पार्वती ने इसी क्षेत्र में तप किया था। यह क्षेत्र सप्तपुरियों में एक मायापुरी के नाम से प्रख्यात रहा है।

हिमालय की छत्र-छाया एवं गंगा के सान्निध्य के कारण यह भूमि सदैव ही साधना की दृष्टि से एक आदर्श क्षेत्र रही है। रामायण काल में महर्षि वशिष्ठ सहित श्रीरामचन्द्र जी एवं उनके भाइयों को साधना के लिए यही क्षेत्र भाया था। गुरु वशिष्ठ के निर्देशानुसार श्रीराम ने देवप्रयाग, लक्ष्मण ने लक्ष्मण झुला, शत्रुघ्न ने मुनि की रेती व भरत ने ऋषिकेश को अपनी साधना स्थली चुना तथा वशिष्ठ जी स्वयं वशिष्ठ गुफा में स्थिर हुए थे।

द्वापर युग में हिमालय यात्रा के दौरान पाण्डव इसी क्षेत्र से होकर आगे बढ़े थे व अपने तप साधना का अधिकाँश समय इसी वातावरण के सान्निध्य में बिताया था। गोरखनाथ सम्प्रदाय के साधना संस्कार भी इस भूमि से जुड़े हुए हैं। महाराजा भर्तृहरि आजीवन इस वातावरण की कामना करते रहे, जो उनकी अमरकृति वैराग्य शतक में कुछ इस तरह मुखरित हुई-

गंगा तीरे हिमगिरि शिला बद्ध पद्मास्नस्य, ब्रह्मध्यानाम्यसनविधिना योग निद्राँगतस्य। किंतेर्माण्यं मय सुदिवसैर्थल ते निविशंक, मण्डूयन्तो जरठहरिणाः स्वांग मंग मदीये॥38॥

अर्थात् क्या वे मेरे अच्छे दिन आवेंगे, जब मैं गंगा के तट पर हिमालय पर्वत की गोद में पद्मासन लगाकर बैठा रहूँ? उस समय निर्भय होकर बूढ़े हरिण अपने सींगों की खुजलाहट को मिटाने के लिए मेरे शरीर से रगड़ने के लिए आया करें। गुरु गोरखनाथ की कृपा से उनकी यह कामना यही सप्त सरोवर क्षेत्र में जीवन के उत्तरार्द्ध में पूरी हो पाई थी, जब वे अपना राजपाट छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर, इस क्षेत्र के दिव्य वातावरण में साधना के लिए प्रवृत्त हुए थे। इसी तरह अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान आदि शंकराचार्य को यह वातावरण भाया था।

इस वातावरण की महत्ता को समझते हुए ही परम पूज्य गुरुदेव ने इस क्षेत्र का चुनाव अपनी साधनास्थली के रूप में किया। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से यह भी देख लिया था कि यह भूमि गायत्री महामंत्र के मंत्र द्रष्ट ऋषि विश्वामित्र की तपस्थली रह चुकी है। जब 1971 में पूज्यवर हिमालय प्रवास में थे तो परम वन्दनीया माताजी 24 कन्याओं के साथ 24 लाख के 24 पुरश्चरण द्वारा इस भूमि के प्रसुप्त संस्कारों को जाग्रत् कर रही थीं। गुरुदेव के हिमालय से आगमन के साथ ही यहाँ विशिष्ट साधना शिविरों का सिलसिला शुरू हुआ। एक दशक के अन्तराल में यहाँ प्राण प्रत्यावर्तन, वानप्रस्थ शिविर, ब्रह्मवर्चस साधना सत्र, कल्प साधना, प्रज्ञायोग जैसे कितने ही सामूहिक साधनात्मक प्रयोग सम्पन्न हुए। तीर्थ के दिव्य वातावरण एवं प्रखर मार्गदर्शन का लाभ ले रहे सौभाग्यशाली साधकों ने यहाँ अपने जीवन का कायाकल्प होते देखा। शान्तिकुञ्ज रूपी कल्पवृक्ष की छत्रछाया में न केवल उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो रही थीं, बल्कि वे एक नया मनोबल एवं आत्मबल सम्पादित कर रहे थे। साधना सत्रों का यह क्रम आगे एक माह व नौ दिवसीय सत्रों के रूप में जारी रहा व आज भी अनवरत रूप से चल रहा है जिसमें बढ़ते हुए साधकों की संख्या यहाँ के वातावरण के प्रति बढ़ती श्रद्धा एवं तप-साधना के प्रति बढ़ती निष्ठ, दोनों को ही प्रमाणित कर रही है।

परम पूज्य गुरुदेव के द्वारा सूक्ष्मीकरण साधना का विशिष्ट प्रयोग यहीं सम्पन्न हुआ था। 1984 से 87 तक तीन वर्ष तक चली इस साधना का उद्देश्य सूक्ष्म प्रकृति में हेर-फेर करना था, जिससे कि युग परिवर्तन की संभावनाएँ साकार हो सके। आध्यात्मिक साधना के इतिहास में इस तरह का पुरुषार्थ इससे पूर्व केवल ब्रह्मऋषि विश्वामित्र द्वारा किया गया था। जब वे नई सृष्टि के निर्माण के लिए संकल्पित हुए थे। इतिहास को दोहराता हुआ नूतन प्रयोग परम पूज्य गुरुदेव द्वारा पुनः उसी भूमि में सम्पन्न हुआ। इसी के बाद पूज्यवर ने 21वीं सदी उज्ज्वल भविष्य की उद्घोष किया था भावी प्रज्ञायुग की रूपरेखा प्रस्तुत की थी।

इन विविध प्रयोगों एवं लोककल्याण की गतिविधियों के साथ शान्तिकुञ्ज का वातावरण एक जीवंत जाग्रत् तीर्थ के रूप में विद्यमान है। परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी के प्रचण्ड तप की प्रभा आज भी इसके कण-कण में विद्यमान है, जिसे कोई भी नैष्ठिक साधक अनुभव कर सकता है। इसका चिरसाक्षी 1926 में प्रज्वलित अखण्ड दीपक आज भी अपनी दिव्य आभा बिखेर रहा है। इसके सान्निध्य में अब तक करोड़ों की संख्या में गायत्री महामंत्र का जप हो चुका है। यहाँ निवास कर रहे व बाहर से आने वाले हजारों साधकों द्वारा नित्य लक्षाधिक जप चलता रहता है। इसी तरह नौ कुण्डीय यज्ञशाला में नित्यप्रति दो-तीन घण्टे यज्ञ होता है। युगसंधि महापुरश्चरण के अंतर्गत हुए सामूहिक साधनात्मक पुरुषार्थ ने इसके वातावरण की दिव्यता को और प्रखर किया है। इसी के अंतर्गत करोड़ों गायत्री मंत्र का जप सम्पन्न हुआ है व लाखों युग साधक नवसृजन के लिए संकल्पित हुए हैं।

देवात्मा हिमालय का प्राणप्रतिष्ठित देवालय भी यहाँ के वातावरण को एक विशेष दिव्यता प्रदान करता है। इसके प्रतिनिधि ऋषियों की भी यहाँ के परिसर में प्राण प्रतिष्ठ की गई है। साथ ही पुरातन काल में इनके द्वारा संचालित सभी ऋषि परम्पराएँ नए सिरे से जीवंत एवं सक्रिय की गई हैं।

इस वातावरण के साथ, परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी के तप, स्नेह एवं मार्गदर्शन का प्रवाह आज भी इसके सुयोग प्रतिनिधियों के माध्यम से सहज उपलब्ध है। साथ ही गुरुसत्ता का संरक्षण एवं दिव्य अनुदान वर्षण अनवरत रूप से जारी है। युगतीर्थ से जुड़ी इन विशिष्टताओं का सही-सही लाभ उठाने के लिए आवश्यकता है योग साधना की उस मनोभूमि की जो इसके सूक्ष्म स्पन्दनों को ग्रहण कर सके। इस ग्रहणशीलता को और अधिक बढ़ाने के लिए आहार-विहार का समुचित निर्धारण भी अभीष्ट है।

इस वातावरण के साथ, परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी के तप, स्नेह एवं मार्गदर्शन का प्रवाह आज भी इसके सुयोग प्रतिनिधियों के माध्यम से सहज उपलब्ध है। साथ ही गुरुसत्ता का संरक्षण एवं दिव्य अनुदान वर्षण अनवरत रूप से जारी है। युगतीर्थ से जुड़ी इन विशिष्टताओं का सही-सही लाभ उठाने के लिए आवश्यकता है योग साधना की उस मनोभूमि की जो इसके सूक्ष्म स्पन्दनों को ग्रहण कर सके। इस ग्रहणशीलता को और अधिक बढ़ाने के लिए आहार-विहार का समुचित निर्धारण भी अभीष्ट है।


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