देवसंस्कृति विश्वविद्यालय

September 2001

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देवसंस्कृति का सही अर्थ देवभूमि भारत के ऋषियों, सन्तों एवं मनीषियों द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों, परम्पराओं एवं प्रयोगों में निहित है। इन्हें अपनाकर मनुष्य सहज ही अपने दैवी एवं दिव्य गुणों को विकसित कर सकता है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय का उद्देश्य देवसंस्कृति के सभी मौलिक तत्त्वों के व्यापक अध्ययन-शिक्षण एवं आधुनिक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में इनके शोध-अनुसन्धान का सुव्यवस्थित तंत्र खड़ा करना है। और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के अपने आदर्श सूत्र के अनुरूप इसके द्वारा बिना किसी भेदभाव के समूचे देश एवं विश्व भर में फैली समूची मानव जाति को लाभान्वित करना है।

देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के भविष्यत् कार्य के मूल बिन्दु 1. साधना 2. स्वास्थ्य 3. शिक्षा एवं 4. स्वावलम्बन होंगे। ये बिन्दु ही मनुष्य की यथार्थ प्रगति एवं विकास का आधार है।

इनमें से 1. साधना का अर्थ है-मानव चेतना में आदर्शोन्मुखी चिन्तन एवं प्रवृत्तियों के विकास सम्बन्धी प्रयोग एवं शिक्षण। 2. स्वास्थ्य के अंतर्गत मनुष्य के शारीरिक, मानसिक स्वस्थ जीवन के लिए आयुर्वेद सहित अन्य वैकल्पिक चिकित्सा विधियों पर गहन शोध, शिक्षा एवं चिकित्सा की व्यवस्था जुटायी जाएगी। 3. शिक्षा के अंतर्गत मानव जीवन के सभी आयामों को दैवी जीवन के अनुरूप प्रशिक्षित करने वाले दार्शनिक, साहित्यिक एवं वैज्ञानिक पाठ्यक्रमों को लागू किया जाएगा। 4. स्वावलम्बन के अंतर्गत उन पाठ्यक्रमों एवं योजनाओं को क्रियान्वित किया जाएगा जो ‘बहुजन हिताय एवं बहुजन सुखाय’ की नीति का पालन करते हुए युवा पीढ़ी को मूल्यनिष्ठ, स्वावलम्बी एवं सुखी बना सके, साथ ही पर्यावरण के अनुकूल हों।

यही वे उद्देश्य हैं जिनके लिए स्वयं को समर्पित कर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय न केवल ऋषि भूमि उत्तराँचल, बल्कि समस्त भारत देश का गौरव बनेगा। देश एवं विदेश के हर भाग से आने वाले युवा जन यहाँ शिक्षा प्राप्त कर उत्तराँचल की इस अनूठी सम्पदा का कुछ अंश अपने साथ ले जायेंगे और इस प्रदेश की कीर्ति का विस्तार करेंगे।

सात सूँड़ वाला यह हाथी मन व रचनात्मकता का वाहन है।

हाथी की पीठ पर स्थित वर्ग के बीच में एक गहरे लाल रंग का उल्टा त्रिकोण है। यह त्रिकोण उस शक्ति का प्रतीक है, जो उत्पादकता तथा अभिवृद्धि के लिए उत्तरदायी है। त्रिकोण के बीच सूक्ष्म शरीर का प्रतीक धूम्रवर्णी लिंग है। इस लिंग के चारों ओर कुण्डली साढ़े तीन बार लिपटी हुई है, जिससे प्रकाश निकलता रहता है। इस कुण्डली के तीन फेरे मनुष्य के तीन गुणों के प्रतीक हैं। जब तक ये तीन गुण कार्यरत हैं, तब तक व्यक्ति अहंकार की सीमा में ही क्रियाशील रहता है। इस कुण्डली का आधा फेरा उसके उत्कर्ष की सम्भावनाओं का प्रतीक है।

शास्त्रों में इस सर्प को महाकाल का स्वरूप बताया गया है। मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी भी समय तथा काल से परे है। जाग्रत् अवस्था में यह हमारी आध्यात्मिक क्षमताओं की प्रतीक है। जबकि सुप्तावस्था में यह जीवन के उस सहज स्तर का प्रतीक है, जो हमारे अस्तित्व का आधार है। मूलाधार चक्र में ये दोनों ही सम्भावनाएँ निहित हैं।

मूलाधार में स्थित त्रिकोण के सबसे ऊपर लं बीज अंकित है। मंत्र के ऊपर बिन्दु के अन्दर देव गणेश एवं देवी डाकिनी का निवास है। देवी डाकिनी के चार हाथ और चमकदार लाल आँखें हैं। यह देवी डाकिनी अनेक सूर्यों की भाँति प्रकाशवान है और इसी के साथ यह निर्मल बुद्धि की वाहक भी है। मूलाधार चक्र से सम्बन्धित तन्मात्रा या संवेदना सुगन्ध है। और यहीं से अतीन्द्रिय गन्ध का प्रकटीकरण होता है।

इस मूलाधार चक्र की दो ही सम्भावनाएँ हैं। पहली सम्भावना है- कामवासना। और दूसरी सम्भावना है- ब्रह्मचर्य। पहली है प्रकृति प्रदत्त और दूसरी है साधना प्रदत्त। काम वासना प्राकृतिक है। लेकिन जब योग साधक मूलाधार चक्र के जागरण में सफल होता है तो उस अवस्था में कामवासना तिरोहित हो जाती है। और उसके स्थान पर ब्रह्मचर्य फलित होता है। वास्तव में यह कामवासना का रूपांतरण है।

शास्त्रकारों-आचार्यों एवं योग साधकों ने मूलाधार चक्र के जागरण की अनेकों विधियाँ बतायी हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व भी है। किन्तु यदि सर्वसामान्य के लिए यदि किसी सर्वमान्य विधि की खोज करनी हो, तो यही कहना पड़ेगा कि ब्रह्मचर्य की साधना ही मूलाधार को जाग्रत् करती है। और इसी से योग का आधार दृढ़ होता है।

ब्रह्मचर्य की महिमा और महत्ता योग साधना के जिज्ञासुओं ने किसी न किसी तरह सुनी ही रखी होगी। परन्तु प्रायः परिचय इसके स्थूल स्वरूप से हो पाता है। आमतौर पर ब्रह्मचर्य का अर्थ काम के दमन से लिया जाता है, जो किसी भी तरह ठीक नहीं है। इस पवित्र साधना में कहीं भी कोई, किसी भी तरह के निषेधात्मक भाव नहीं होते। इसमें तो सब कुछ विधायी और विधेयात्मक है। ब्रह्मचर्य में एक ही भाव निहित है- ब्रह्म के चिन्तन एवं ब्रह्म में रमण का।

मूलाधार चक्र के जागरण की साधना के लिए हमें इसी भाव को प्रगाढ़ करने की जरूरत है। ध्यान के नियमित अभ्यास के समय यदि यह भावानुभूति गहन हो सके कि मूलाधार में सोयी शक्ति क्रमिक रूप से ऊपर उठ रही है, और रेतस् ओजस् में रूपांतरित हो रहा है- तो मूलाधार का जागरण सम्भव है। अन्त में यह समझ लेना चाहिए कि जब तक साधक मूलाधार चक्र का जागरण नहीं कर लेता और जब तक भौतिक शरीर पर कामवासना को ब्रह्मचर्य में रूपांतरित अथवा परिवर्जित नहीं कर लेता, तब तक दूसरे चक्र यानि की स्वाधिष्ठान चक्र या भाव शरीर के साथ साधना करना कदापि सम्भव नहीं।


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