योग विज्ञान उपयोगी बनें, प्रचारकों की मर्यादाएँ बनें

September 2001

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भौतिकवाद के विकास- विस्तार की एकाँगी प्रगति ने मानवी सुख-शान्ति की जड़ें हिलाकर रख दी हैं। सर्वत्र यह गम्भीरतापूर्वक सोचा जा रहा है कि प्रगति को एकाँगी रहने देने में खतरा ही खतरा है। चिंतन के इस मोड़ ने संसार का ध्यान योग-विज्ञान की ओर आकर्षित किया है। इन दिनों विश्व भर में योग-विज्ञान के प्रति भारी उत्साह है और उस दिशा में उत्सुकतापूर्वक खोज और प्रयोग के लिए प्रयास चल रहे हैं। चूँकि भारत योग के उद्गम, उत्थान एवं परीक्षण प्रयोग का क्षेत्र रहा है इसलिए भारत की ओर सहज ही सबका ध्यान चला जाता है।

पिछले दिनों योग-प्रचार के लिए गये हुए भारतीयों की विदेशों में इतनी सफलता मिली है, जिसकी उन्होंने स्वयं भी आशा नहीं की थी। वहाँ पर भारतीयों द्वारा चलाये जाने वाले योग शिक्षा केन्द्रों की संख्या सैकड़ों से बढ़कर हजारों तक पहुँच गई है। वे विभिन्न देशों में अपने-अपने ढंग से अपना काम कर रहे हैं, किन्तु विदेशों में चल रहे योग-प्रचार का यह क्रम सिर्फ छोटी-मोटी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं तक ही सीमाबद्ध होकर रह गया है। आमतौर से अंगों को तोड़ने-मरोड़ने की क्रिया आसन पद्धति को ‘मॉर्डन योग‘ का प्रमुख आधार माना गया है। इन योग-केन्द्रों में ऐसा ही कुछ शिक्षण चलता है। गहरी श्वास लेने के कई तरीकों को उलट-पुलट कर प्राणायाम बता दिया जाता है। इससे आगे की दो मानसिक साधनाएँ हैं, एक ध्यान की एकाग्रता, मेडीटेशन, दूसरी स्वसंकेतन हिप्नोटिम। बस सारा योग इतने में ही समाप्त हुआ समझा जाता है। विदेशों में भारतीयों द्वारा चलाए जाने वाले योग-केन्द्र इसी परिधि में चक्कर काटते हैं। क्रिया-कलाप एवं शिक्षा-विधि में, कहने समझाने के ढंग में थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है। पर तथ्य इसी सीमा में भ्रमण करते रहते हैं।

इस शिक्षा से कुछ लाभ भी होते हैं। आसनों के अभ्यास से पाचन सम्बन्धी तथा दूसरी छोटी-मोटी शारीरिक कठिनाइयाँ हल हो जाती हैं। प्राणायाम से फेफड़े खुलते हैं और स्फूर्ति का अनुभव होता है मेडिटेशन भी मस्तिष्क की घुड़दौड़ घटा कर मानसिक विश्राम की आवश्यकता को कुछ हद तक तो पूरा करता ही है। हिप्नोटिज्म-स्वसंकेत से अनियंत्रित मानसिक प्रवाह को अभीष्ट दिशा में मोड़ने की थोड़ी सी सहायता मिल जाती है। बस इतना ही लाभ इस योग शिक्षा का है।

वस्तुतः योग-विज्ञान को इन छुट-पुट शारीरिक, मानसिक व्यायामों तक सीमाबद्ध कर देना उसकी गरिमा को नष्ट करना है। विश्व जिस आशा से मानवी समस्याओं के समाधान का हल योग-विज्ञान से निकालने की उम्मीद लगा रहा है उसे निराश बना देना है। भारतीय योग-विज्ञान को इस दिशा में समय रहते सचेत होना चाहिए अन्यथा समय की माँग पूरा न कर सकने पर यह अवसर सदा के लिए हाथ से चला जायेगा। यह अत्यन्त ही उपयुक्त अवसर है जबकि प्राचीन काल की तरह योग का सही और सुसंतुलित रूप विश्व को समझाया जा सकता है। योग की गरिमा का वर्चस्व समझाकर सम्पूर्ण मानवता की महती सेवा की जा सकती है।

वस्तुतः योग-विज्ञान को इन छुट-पुट शारीरिक, मानसिक व्यायामों तक सीमाबद्ध कर देना उसकी गरिमा को नष्ट करना है। विश्व जिस आशा से मानवी समस्याओं के समाधान का हल योग-विज्ञान से निकालने की उम्मीद लगा रहा है उसे निराश बना देना है। भारतीय योग-विज्ञान को इस दिशा में समय रहते सचेत होना चाहिए अन्यथा समय की माँग पूरा न कर सकने पर यह अवसर सदा के लिए हाथ से चला जायेगा। यह अत्यन्त ही उपयुक्त अवसर है जबकि प्राचीन काल की तरह योग का सही और सुसंतुलित रूप विश्व को समझाया जा सकता है। योग की गरिमा का वर्चस्व समझाकर सम्पूर्ण मानवता की महती सेवा की जा सकती है।

योग-विज्ञान के द्वारा मनुष्य के इस मानसिक असंतुलन को संतुलन में बदल कर, अशाँत उद्विग्नता को शान्त समस्वरता में परिणित किया जा सकता है। व्यक्ति की कायिक और मानसिक चेतना के अंतर्गत एक अत्यंत सुविस्तृत रहस्यमय क्षेत्र का अस्तित्व स्वीकार किया जा चुका है। और यह भी स्वीकार किया जा चुका है कि यदि मानवी सत्ता के इन रहस्यमय परतों का उद्घाटन किया जा सके तो मनुष्य में ऐसी असाधारण विशेषताएँ प्रकट हो सकेंगे, जैसे कि योगी और सिद्ध पुरुषों में बताई, पाई जाती है। आखिरकार योग इन्हीं रहस्यमयी शक्तियों को उभारने और उनका अभीष्ट उपयोग करने की महत्त्वपूर्ण विद्या ही तो है।

योग में शारीरिक मानसिक व्यायामों के लिए, साधनात्मक कर्मकाण्ड के लिए भी स्थान है, पर उसकी मूल प्रवृत्ति चिंतन के स्वरूप को ऊँचा उठाना है। अपनी सत्ता और दिशा को परिष्कृत करना है। पदार्थों और व्यक्तियों के प्रति दृष्टिकोण का परिमार्जन करना है। वस्तुतः योग एक दर्शन है। सर्वत्र आत्म-सत्ता की अनुभूति से विश्व मानव की, विश्व परिवार की भावना विकसित होती है। और स्नेह-सौजन्य का उभार आता है। इसी पृष्ठभूमि में ममता और आत्मीयता घनिष्ठ होती है। चरित्र निखरता है संयम और सेवा के लिए उत्साह उमँगता है। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों की जड़ें कटती हैं। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का आधार तो वे आत्मवादी आस्थाएँ ही हो सकती हैं जिनकी प्रतिष्ठापना के लिए योग एवं अध्यात्म का सुविस्तृत कलेवर खड़ा किया गया है। योग-शिक्षा की पृष्ठभूमि में इसी परिष्कृत दार्शनिकता का प्रसार होना चाहिए। भौतिकता से विक्षुब्ध लोक-मानस को राहत उन्हीं आस्थाओं की लोक-मानस में पुनः स्थापना से मिलेगी।

योग का बहिरंग रूप शारीरिक और मानसिक व्यायामों के रूप में सामने आये तो हर्ज नहीं। कर्मकाण्डों और साधना-विधानों का भी उसमें स्थान रहना चाहिए, परन्तु इस सत्य को विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए कि यह योग का कलेवर है, उसका प्राण नहीं। प्राण तो उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व की प्रेरणा देने वाले उपनिषद् प्रतिपादित उस योग-दर्शन में है जिसे प्राचीन काल में ब्रह्मविद्या कहा जाता था। इसके आधार पर व्यक्ति अपनी सत्ता का समष्टि में समर्पण करता था। आत्मा को परमात्मा के स्तर तक पहुँचाना, नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, अणु को विभु, लघु को महान् बनाना जिसका लक्ष्य था। चिन्तन की अंतरंग उमंगें ही बहिरंग जीवन का पर आच्छादित होती हैं। उन्हीं से परिस्थितियाँ बनती हैं, घटनाएँ घटती हैं और दिशाएँ मुड़ती हैं। योग शिक्षा का उद्देश्य इसी भावनात्मक मानवी मर्मस्थल को परिष्कृत और संतुलित करना होना चाहिए। योग की सार्थकता इसी प्रयास की सफलता के साथ जोड़ी, आँकी जानी चाहिए।

विदेशों में भारतीयों द्वारा चलाये जाने वाले वर्तमान योग प्रचार में इन तथ्यों का अभाव है। उनमें बाल-सुलभ चपलता और कौतूहलप्रियता की उथली तृप्ति मात्र है। सस्ते प्रयास से अधिकतम लाभ लेने की जुआ प्रवृत्ति के आधार पर जो किया जा रहा है उससे आरम्भ में बचकानी भीड़ एकत्रित की जा सकती है परन्तु उनमें उच्चस्तरीय दार्शनिकता का अभाव रहा तो वह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकेगा, जिसके लिए भौतिकता से विक्षुब्ध प्रगतिशील जन-मानस ने योग-विज्ञान की ओर आशा लगाना आरम्भ किया है। अच्छा हो विदेशों में योग प्रसार के स्वर्णिम अवसर को हम गम्भीरतापूर्वक देखें और विश्व मानव की माँग को पूरा करने के लिए ऐसे कदम बढ़ायें, जिससे योग की गरिमा को पुनः प्राचीन काल जैसी सर्वोच्च श्रद्धा के रूप में विश्व-व्यापी बनाना सम्भव हो सके। इस अवसर को यदि हमने खिलवाड़ में गँवा दिया तो यह भारत के लिए, योग के लिए दुःखद दुर्भाग्य की ही बात होगी। ऊँची आशा दिलाकर आरम्भिक उत्साह तो जगाया जा सकता है किन्तु कुछ समय बाद ही जो असफलताजन्य निराशा सामने आयेगी उससे उबरना कठिन ही नहीं असम्भव हो जायेगा। इस युग की इस महानतम देन के प्रति हमारा दृष्टिकोण लोकरंजन का नहीं अपितु लोकमंगल का होना चाहिए।

योग-विज्ञान के प्रति पाश्चात्य देशों में आकर्षण भौतिकवाद की अवाँछनीय अभिवृद्धि के कारण उत्पन्न हुई समस्याओं की विभिन्न प्रतिक्रिया है। समय की माँग ने योग के प्रति वह आकर्षण उत्पन्न किया है जो विदेशों में भारतीयों द्वारा योग प्रचार की सफलता के रूप में परिलक्षित हो रहा है। वैज्ञानिक आर्थिक और बौद्धिक प्रगति ने सुख-सुविधा के कितने ही अधिक साधन क्यों न जुटाये हों, निश्चित रूप से उसने मनुष्य की मानसिक स्थिति को वीभत्स वातावरण में रहने को बाध्य कर दिया है। उन्नतिशील देश अनुभव करते हैं कि एकाँगी भौतिक प्रगति उन्हें बहुत महंगी पड़ी है। इस दिशा में गहरा चिंतन करने पर, भूतकाल के ऋषि-युग की सुख-शान्ति का उज्ज्वल इतिहास उन्हें समाधान के लिए अपनी ओर आकर्षित, आमंत्रित करता है।

यदि योग को उथले कर्मकाण्डों तक सीमित कर दिया गया तो निकट भविष्य में इस दिशा में उत्पन्न हुआ आकर्षण समाप्त हो जायेगा। फिर उससे उत्पन्न हुई अनास्था को मिटा सकना कठिन हो जायेगा। योग प्रचारकों को इस खतरे का ध्यान रखना चाहिए और अपनी योग-शिक्षा में उस दार्शनिकता का समन्वय करना चाहिए जो उद्विग्न लोकमानस को समुचित समाधान दे सके।


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