विशुद्धि चक्र ‘शुद्धिकरण का केन्द्र’ है। इसका सम्बन्ध जीवन चेतना के शुद्धिकरण व सन्तुलन से है। योगियों ने इसे अमृत एवं विष के केन्द्र के रूप में भी परिभाषित किया है। उनके अनुसार जो अमृत बिन्दु से झरता है, वह विशुद्ध अमृत तथा विषय के रूप में अलग-अलग हो जाता है। इसमें से विषय तो शरीर के बाहर निकल जाता है, और अमृत से शरीर को पोषण मिलता है।
विशुद्धि चक्र की साधना से एक ऐसी स्थिति प्रकट होती है, जिससे जीवन में अनेकों विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ आती हैं। इससे साधक के ज्ञान में वृद्धि होती है। जीवन कष्टप्रद न रहकर आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। दरअसल ऐसी स्थिति में योग साधक जीवन को सहज रूप में स्वीकार लेता है। एवं वह सभी तरह के द्वन्द्वों से मुक्त रहकर जीवन की घटनाओं के प्रति अनासक्त रहता है। योग शास्त्रों के अनुसार विष तथा अमृत सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है। इन दोनों का ही अवशोषण एवं शुद्धिकरण विशुद्धि चक्र के माध्यम से होता है। शुद्धिकरण की इस प्रक्रिया के कारण साधक में ज्ञान व विवेक का उदय होता है।
आत्म शरीर के रूप में पाँचवे शरीर का विकास विशुद्धि चक्र की क्षमता का कहीं अधिक सूक्ष्म पक्ष है। इस क्षमता से अनभिज्ञ साधकों के लिए आत्म शरीर एक शब्द मात्र है। जो लोग पहले या दूसरे शरीर पर रुक गये हैं, वे शरीरवादी और भौतिकवादी हैं। उनके लिए आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। उनकी दृष्टि में शरीर ही सब कुछ है। शरीर मर गया तो उनके लिए सब कुछ मर गया। लेकिन विशुद्धि चक्र के साधक के लिए आत्मा ही सब कुछ है। उसके अलावा अन्य निम्न चीजें अर्थहीन है। बस उनकी दृष्टि में परम स्थिति का बल आत्मा है।
यह चक्र ग्रेव जालिका में गले के ठीक पीछे स्थित है। इसका क्षेत्र गले के सामने या थॉयराइड ग्रन्थि पर है। शारीरिक स्तर पर विशुद्धि का सम्बन्ध ग्रसनी तथा स्वर यंत्र तंत्रिका जालकों से है।
योगशास्त्रों में इसे प्रतीकात्मक रूप से गहरे भूरे रंग के कमल की तरह बताया गया है। परन्तु कतिपय साधकों ने इसका अनुभव 16 पंखुड़ियों वाले बैंगनी रंग के कमल की तरह किया है। ये 16 पंखुड़ियाँ इस केन्द्र से जुड़ी नाड़ियों से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक पंखुड़ी पर संस्कृत का एक अक्षर चमकदार सिंदूरी रंग से लिखा है- अं, आँ, इं, इ, उं, ऊं, ऋं, ऋं, लृं, लृं, एं, ऐं, ओं, औं, अं, अः। इस कमल की फल भित्ति का वृत्त पूर्ण चन्द्रमा की भाँति धवल है। यह आकाश तत्त्व का प्रतीक है। विशुद्धि चक्र के उस साधक के लिए जिसकी इन्द्रियाँ निर्दोष तथा नियंत्रित है, यह आकाश मोक्ष का द्वार है।
इस चन्द्रमा के अन्दर एक अत्यन्त सफेद रंग का हाथी है। इसे भी आकाश तत्त्व का ही प्रतीक माना गया है। इसका बीज हं है, जो आकाश तत्त्व का स्पन्दन है। विशुद्धि चक्र के देवता सदाशिव हैं। जिनका रंग एकदम श्वेत है। उनकी तीन आँखें, पाँच मुख तथा दस भुजाएँ हैं। और वे एक व्याघ्र चर्म लपेटे हुए हैं। उनकी देवी साकिनी हैं, जो चन्द्रमा से प्रवाहित होने वाले अमृत के सागर से भी ज्यादा पवित्र हैं। उनके परिधान पीले हैं। उनके चार हाथों में से प्रत्येक में एक-एक धनुष, बाण, फंदा तथा अंकुश है।
इस चक्र का सम्बन्ध जनःलोक से है। जीवन के अन्त तक रहने वाली ‘उदान’ इसकी वायु है। इसका प्रवाह सदा ही ऊपर की ओर रहता है। आज्ञा चक्र के साथ मिलकर ‘विशुद्धि’ विज्ञानमय कोष के आधार का निर्माण करता है। जहाँ से अतीन्द्रिय विकास प्रारम्भ होता है। इसकी तन्मात्रा, श्रवण शक्ति है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय आँखें है और कर्मेन्द्रिय स्वर रज्जु हैं।
योग शास्त्रों में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है कि सिर के पिछले भाग में बिन्दु स्थित चन्द्रमा से अमृत का स्राव होता रहता है। यह अमृत बिन्दु विसर्ग से व्यक्तिगत चेतना में गिरता है। इस दिव्य द्रव को अनेक नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में ईसाई सन्तों से इसे ‘हृद्गष्ह्लशह् शद्ध त्रशस्र’ कहा है। वेदों में इसे ही सोम कहा गया है। सूफी सन्तों ने इसे ‘मीठी शराब’ कहा है। जिसके सेवन से सदा ही मादकता का आनन्द बना रहता है। वस्तुतः हर साधना पद्धति में जिसका सम्बन्ध व्यक्ति की उच्च चेतना के जागरण से है, आनन्द की अवर्णनीय अनुभूति हेतु अपने अलग-अलग प्रतीक हैं।
बिन्दु और विशुद्धि के बीच में एक अन्य छोटा सा अतीन्द्रिय केन्द्र है। इसे योगियों ने ‘ललना चक्र’ कहा है। विशुद्धि चक्र से इसका बहुत ही नजदीकी सम्बन्ध है। जब अमृत बिन्दु से झरता है तो इसका भण्डारण ललना में होता है। यह केन्द्र एक ग्रन्थीय भण्डार की तरह है, जो नासा ग्रसनी के पीछे कोमल तालू के ऊपर के आन्तरिक गड्ढ में वहाँ स्थित है, जहाँ नासिका मार्ग आकर खुलता है। खेचरी के समय जीभ को ऊपर व पीछे की ओर मोड़ा जाता है। जिसका मकसद यही है कि अमृत के प्रवाह क्षेत्र में आवश्यक उद्दीपन लाया जाय।
यद्यपि इस द्रव को अमृत कहते हैं, परन्तु यह अमृत और विषय दोनों का ही काम कर सकता है। जब तक यह बिन्दु से उत्पन्न होकर ललना में संग्रहीत रहता है तब कि इसमें किसी भी प्रकार का अन्तर कर पाना सम्भव नहीं है। सामान्य क्रम में यह विशुद्धि से होते हुए बिना किसी बाधा के मणिपुर चक्र तक पहुँच जाता है। तथा इसे मणिपुर चक्र द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है। इसका परिणाम विष की तरह होता है, जो क्रमशः शरीर के उतकों का ह्रास करता है।
लेकिन कुछ अभ्यासों जैसे खेचरी मुद्रा आदि से अमृत ललना से स्रावित होकर शुद्धिकरण के केन्द्र विशुद्धि चक्र तक पहुँचता है। जब विशुद्धि जाग्रत रहता है तो यह दिव्य द्रव वहीं रुक जाता है। और वहीं पर इसका प्रयोग कर लिया जाता है। इसी के साथ इसका स्वरूप अमरत्व प्रदायक अमृत के रूप में बदल जाता है। वस्तुतः चिर युवा रहने का रहस्य विशुद्धि चक्र के जागरण से सम्बन्धित है।
विशुद्धि चक्र के जागरण की सरल साधना नादयोग है। योगशास्त्रों में विशुद्धि और मूलाधार स्पन्दनों के दो आधार भूत केन्द्र माने गए हैं। नादयोग की प्रक्रिया में चेतना के ऊर्ध्वीकरण का सम्बन्ध संगीत के स्वरों से है। प्रत्येक स्वर का संबंध किसी एक चक्र विशेष की चेतना के स्पन्दन स्तर से सम्बन्धित होता है। बहुधा वे स्वर जो मंत्र, भजन तथा कीर्तन के माध्यम से उच्चारित किए जाते हैं, विभिन्न चक्रों के जागरण के समर्थ माध्यम हैं।
‘सा रे गा म’ की ध्वनि तरंगों का मूलाधार सबसे पहला स्तर एवं विशुद्धि पाँचवा स्तर है। इनसे जो मूल ध्वनियाँ निकलती हैं, वही चक्रों का संगीत है। ये ध्वनियाँ जो विशुद्धि यंत्र की सोलह पंखुड़ियों पर चित्रित हैं- मूल ध्वनियाँ हैं। इनका प्रारम्भ विशुद्धि चक्र से होता है। और इनका सम्बन्ध मस्तिष्क से है। नादयोग या कीर्तन का अभ्यास करने से मन आकाश की तरह शुद्ध हो जाता है। और विशुद्धि चक्र के जागरण की फलश्रुतियाँ साधक के जीवन में आने लगती हैं।
इसके जागरण से कायाकल्प तो होता ही है। साथ ही जो शक्ति प्राप्त होती है, वह नष्ट नहीं होती तथा ज्ञान से पूर्ण होती है। व्यक्ति को वर्तमान के साथ भूत-भविष्य का भी ज्ञान होने लगता है। मानसिक क्षमताओं के तीव्र विकास के कारण उसी श्रवण शक्ति अत्यन्त तीव्र हो जाती है। मन हमेशा विचार शून्य स्थिति में तथा भय और आसक्ति से मुक्त रहता है। ऐसा व्यक्ति कर्मों के परिणामों की आसक्ति से सर्वथा मुक्त रहकर अपने साधना पथ पर अग्रसर रह सकता है। यहीं उसे वह सारी सामर्थ्य मिलती है, जिसके आधार पर आज्ञा चक्र की सिद्धि मिल सके।