आध्यात्मिक जागरण के साथ भावनात्मक संतुलन भी

September 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अनाहत का शाब्दिक अर्थ है- जो आहत न हुआ हो। यह नाम इसलिए है क्योंकि इसका सम्बन्ध हृदय से है। जो लगातार आजीवन लयबद्ध ढंग से तरंगित और स्पन्दित होता रहता है। योगशास्त्रों के विवरण के अनुसार अनाहद एक ऐसी अभौतिक एवं अनुभवातीत ध्वनि है, जो निरन्तर उसी प्रकार निःसृत होती रहती है, जिस प्रकार हृदय जन्म से लेकर मृत्यु तक लगातार स्पन्दित होता रहता है।

योगियों ने अनाहत चक्र को मेरुदण्ड की आन्तरिक दीवारों में वक्ष के केन्द्र के पीछे अनुभव किया है। इसका क्षेत्र हृदय है। यद्यपि इस चक्र को हृदय का केन्द्र भी कहते हैं, परन्तु इसका अर्थ सीने में स्थित शारीरिक हृदय से कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए। वैसे शरीर क्रिया विज्ञान की दृष्टि से इसका भौतिक अवयव तंत्रिकाओं की हृदयजालिका ही है, फिर भी यह भौतिक सीमाओं से कहीं परे है। योग साधकों ने इस चक्र को हृदयाकाश भी कहा है। जिसका अर्थ है- हृदय के बीच वह स्थान जहाँ पवित्रता निहित है। जीवन की कलात्मकता एवं कोमलता से भी इसका गहरा सम्बन्ध है।

अनाहत चक्र की रहस्यमयी शक्तियों का प्रतीकात्मक विवरण योगशास्त्र के निर्माताओं का प्रीतिकर विषय रहा है। इस विवरण के अनुसार अनाहत चक्र का रंग बन्धूक पुष्प की तरह है। हालाँकि कतिपय अनुभवी योग साधकों ने इसे नीले रंग का भी देखा है। इसकी बारह पंखुड़ियाँ हैं और हर पंखुड़ी पर सिन्दूरी रंग से कं, खं, गं, घं, , चं, छं, जं, झं, टं, एवं ठं अक्षर अंकित है।

इसका आन्तरिक क्षेत्र षट्कोणीय है। जो वायु तत्त्व को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है। यह षट्कोणीय क्षेत्र दो अन्तर्ग्रथित त्रिकोणों से मिलकर बना है, जो शिव और शक्ति के मिलन का प्रतीक है। उलटा त्रिकोण शक्ति और सीधा त्रिकोण शिव का प्रतीक है। इसका वाहक एक काला हिरण है, जो चौकन्ने और फुर्तीलेपन के लिए जाना जाता है। इसके ऊपर गहरे भूरे रंग में ‘यं’ बीजमंत्र अंकित है। मंत्र के इस बिन्दु के ऊपर सूर्य की भाँति कान्तिमान देव ईश का निवास है। उनके साथ पीले रंग की सर्वजनहितकारी देवी काकिनी विराजमान हैं। इनके चार हाथ और तीन आँखें हैं। और ये सौभाग्य प्रदायिनी व आह्लादकारिणी हैं।

अनाहत कमल की फलभित्ति के केन्द्र में एक उल्टा त्रिकोण है, जिसमें अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रहती है। यह अखण्ड ज्योति ही अपनी जीवात्मा है। अनाहत के मुख्य कमल के नीचे एक और लाल पंखुड़ियों वाला कमल है, जिसमें कल्पतरु है। अनेक योगियों का विचार है कि अनाहत में स्थित कल्पतरु या शान्त झील पर ध्यान करना चाहिए। अनाहत का लोक-महालोक है। यह अविनाशी जगत् का प्रथम स्तर है। इसकी तन्मात्रा स्पर्श है।

इस हृदय केन्द्र में ही विष्णु ग्रन्थि का वास स्थान है। जो आध्यात्मिक स्तर पर जीने की भावना का प्रतिनिधित्व करती है। यह विष्णु ग्रन्थि आध्यात्मिक जागरण के साथ भावनात्मक सन्तुलन व वृद्धि में भी सहायक है। ऐसा अनेकों साधकों का अनुभव है कि जो साधक हृदय कमल पर ध्यान करता है, उसके कर्म अपने आप ही श्रेष्ठ हो जाते हैं। उसकी इन्द्रियाँ पूरी तरह से उसके नियंत्रण में होती हैं तथा वह गहन ध्यान कर सकने में सक्षम होता है।

अनाहत चक्र का सीधा सम्बन्ध मनोमय शरीर से है। यह बड़ा विलक्षण किन्तु अनुभव सिद्ध सत्य है कि योग में जितनी भी सिद्धियों का वर्णन है, वे सब की सब इसी मनोमय शरीर में प्रकट होती हैं। हालाँकि योग साधक अपनी भाव साधना के विकास के लिए इन सिद्धियों के माया जाल में नहीं पड़ते। क्योंकि इन सिद्धियों का थोड़ा सा भी आध्यात्मिक मूल्य नहीं है।

अनाहत चक्र की साधना पीछे वर्णित सभी चक्रों की साधनाओं से सर्वथा परे है। इस स्तर पर योग साधक को इस तथ्य का पूरा ज्ञान रहता है कि यद्यपि भाग्य है, फिर भी इसे पूर्णतया बदला जा सकता है। यह अन्तरिक्ष में कुछ फेंकने की भाँति है। यदि किसी पदार्थ को इस गति से फेंका जाय कि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकल जाय, तो फिर इसे पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति वापस नहीं खींच पाएगी। ठीक इसी भाँति अनाहत चक्र की साधना करने वाले साधक की चेतना का स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि वह अपने प्रारब्ध के सहारे नहीं, बल्कि अपनी इच्छानुसार जीवन यापन करने में सक्षम हो जाता है।

इस चक्र की साधना करने वाले साधक योगी की श्रेणी में आ जाते हैं। इसके पहले वे मूलाधार, स्वाधिष्ठान अथवा मणिपुर किसी भी स्तर पर रहे हों, मात्र योगाभ्यासी ही कहे जा सकते हैं। अनाहत की साधना करने पर साधक योगी बन जाता है। क्योंकि तब उसकी चेतना पूर्णतया योगमय हो जाती है। ऐसी स्थिति में उसके निर्णय बाह्य जगत् या विश्वास अथवा कर्म प्रारब्ध पर आधारित न होकर पूर्णतया आत्मविश्वास एवं अपनी चेतना शक्ति पर आधारित होते हैं।

अनाहत चक्र की साधना, इसका परिशोधन व जागरण कैसे करें? यह प्रश्न प्रत्येक जिज्ञासु और साधक का होगा। इसके उत्तर में यहाँ हमें इतना ही कहना है कि प्राचीन योगशास्त्रों एवं साधना सम्प्रदायों में इस चक्र की साधना विधियाँ अनेक हैं। उन सबका अपना-अपना महत्त्व भी है। जिससे न इन्कार किया जा सकता है और न नकारा जा सकता है। पर यहाँ अनाहत चक्र की साधना की उस विधि को स्पष्ट करने का मन है, जो पूर्वोक्त सभी विधियों की अपेक्षा सहज, सरल, सुगम एवं निरापद है। इस विधि को अपनाने वाले साधक सर्वथा अभय होकर अनाहत चक्र और उससे सम्बन्धित मनोमय शरीर की उपलब्धियों से लाभान्वित हो सकते हैं।

यह साधना विधि गुरुभक्ति है। अपने हृदय कमल में सद्गुरु की दिव्य मूर्ति का ध्यान करने से अनाहत की शक्तियाँ प्रकट होने लगती हैं। ध्यान का यह अभ्यास प्रातः अथवा सायं कभी भी किया जा सकता है। परन्तु इसे जब भी किया जाय नियमित एवं निर्धारित समय पर लगातार लम्बे समय तक किया जाय। इस साधना क्रम में जो सबसे अनिवार्य तत्त्व है वह यह है कि सद्गुरु के प्रति भक्ति मात्र ध्यान के क्षणों में ही नहीं बल्कि अहर्निश पनपनी एवं उफननी चाहिए।

यह सुनिश्चित तथ्य है कि अनाहत चक्र की साधना करने वालों के जीवन में अहंकार का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इस साधना की प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म होती है कि सद्गुरु की चेतना साधक के अहंकार को कब, कैसे और किन तरीकों से समाप्त करती है- पता ही नहीं चलता। इसी कारण प्रायः लोग बीच में ही घबराकर साधना छोड़ बैठते हैं। परन्तु जो गुरु की प्रत्येक चोट को सहते हैं गुरुभक्ति में निरत रहते हैं, उन्हें सफलता मिलना सुनिश्चित है। यहाँ यह बलपूर्वक एवं पूरे विश्वासपूर्वक कहा जा रहा है कि अनाहत चक्र के जागरण के लिए अनाहत कमल पर सद्गुरु की दिव्य मूर्ति के ध्यान से बढ़कर अन्य कोई श्रेष्ठ साधना नहीं है।

इस साधना अभ्यास को यदि नियमित रूप से एक वर्ष भी किया जा सके, तो अनाहत चक्र के जागरण के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इस चक्र के जागरण से साधक औरों के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाता है। उसमें अतीन्द्रिय दृष्टि, अतीन्द्रिय श्रवण या मनोगतिज क्षमता उत्पन्न हो जाती है। वह लोगों को अपने अथाह प्रेम से जीत सकता है। उसमें दूसरों के विचारों और अनुभवों के प्रति प्रखर संवेदनशीलता जाग जाती है। साथ ही उसमें सभी प्रकार की आसक्ति समाप्त हो जाती है। उसे न कोई चाहत सताती है और नहीं चिन्ता। बस उसे तो एक ही धुन लगी रहती है कि अपने सद्गुरु की कृपा के भरोसे चेतना के आगे के स्तरों पर गति कैसे हो? इस भावना के प्रगाढ़ होने पर ही विशुद्धिचक्र की साधना प्रस्फुटित होती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118