आनन्द से समाधि स्वर्ग और मोक्ष तक

September 2001

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ईश्वर आनन्द स्वरूप है। उसके अविनाशी अंश जीव के कण-कण में भी आनन्द परिव्याप्त है। ईश्वर की चिर संगिनी प्रकृति में सौंदर्य और सुविधा प्रदान करने की आनन्दमयी विशिष्टता भरी पड़ी है। यहाँ सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। आनन्द का यह कोश हममें से हर एक को असीम मात्रा में, सहज सुखद रूप से उपलब्ध है। निश्चित रूप से जीवन आनन्दमय है और हम सब आनन्दमय लोक में रह रहे हैं। इस अपरिमित सौभाग्य के साथ दुर्भाग्य भी लगभग वैसा ही है- जैसा कि बाबा कबीर अपनी एक उलटबाँसी में कह गए हैं-

पानी बिच मीन पियासी। मोहि लखि-लखि आवे हाँसी॥

यह उलटबाँसी सुनने में उलटी है, पर समझने में बड़ी सीधी और सच। आनन्दमय लोक में रहते हुए भी हममें से प्रायः सभी आनन्द से वंचित हैं। यह सच्चाई कुछ वैसी ही है, जैसे कोई व्यक्ति अपने घर का ताला बन्द करके कहीं चला जाय। और लौटने पर चाभी गुम हो जाने के कारण बाहर बैठा ठण्ड में सिकुड़े और दुःख भोगे। ठीक ऐसी ही दशा अपनी भी है। आनन्दमय कोश अपने में ही है। पर इसकी चाभी खो जाने के कारण रहना पड़ रहा है निरानन्द स्थिति में। कैसी विचित्र स्थिति है? कैसी विडम्बना है? यह अपने ही साथ अपना कितना विलक्षण उपहास है।

आनन्दमय कोश की साधना इसी दुःखद दुर्भाग्य को समाप्त करने के लिए है। इस साधना के बल पर उस ताले को खोला जा सकता है, जिसमें उल्लास का अजस्र भण्डार भरा पड़ा है। यह कार्य ईश्वर और जीव के मिलन की विधि-व्यवस्था बनाकर, रीति-नीति अपनाकर ही सम्भव हो सकता है। पंचकोशों की साधना के उच्चस्तर पर पहुँचकर इसी चाभी को ढूंढ़ना पड़ता है। और ताले को खोलने की जुगत बिठानी पड़ती है। जो इसे कर सका, उसे फिर यह नहीं कहना पड़ेगा कि हमारा जीवन निरानन्द और नीरस है। आनन्दमय कोश में समाया खजाना हाथ में लगते ही दुःख और दुर्भाग्य हजारों-हजार कोस दूर भाग खड़े होते हैं।

आनन्दमय कोश की साधना का स्वरूप ईश्वर और जीव के मिलन की व्यवस्था है। आमतौर पर हम ईश्वर के नाम भर से परिचित हैं। जब-तब उसका नाम ले भी लेते हैं। इस क्रम में दो-चार माला का जप या फिर लम्बे-चौड़े अनुष्ठान-उपवास भी किये जाते हैं। पर इन सबके पीछे मकसद यह नहीं होता है कि स्वयं को पूर्णतया भगवान् को दे डालें। प्रभु में अपने को विसर्जित कर दें। इस विसर्जन का, समर्पण का, समन्वय का कितना सुखद परिणाम हो सकता है, इसकी कभी कल्पना भी नहीं आती।

हाँ यह जरूर होता है कि पूजा-पत्री के बहाने हम भगवान् से क्या लूट-खसोट लें। जिस-किसी तरह भगवान् को बहला-फुसलाकर उनसे अपनी मनोकामनाएँ पूरी करा लें। ऐसे लोग आनन्दमय कोश का दुर्लभ खजाना कभी नहीं पा सकते। आनन्दमय कोश की साधना तो उनके लिए है- जो अपना समग्र समर्पण भगवान् के चरणों में करने के लिए आतुर-आकुल रहते हैं। आनन्दमय कोश की साधना का यही स्वरूप है। यह जहाँ भी अपने वास्तविक रूप में सम्पन्न होगी, वहाँ निश्चित रूप से आनन्दमय कोश का अमृत कलश छलक रहा होगा। स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी होंगी। उल्लास बिखरा पड़ा होगा, सन्तोष की सुखद वायु बह रही होगी।

आनन्द का स्वरूप, आधार और स्थान मालुम पड़ जाने पर यह बात निश्चित हो जाती है कि क्या करने से क्या मिलेगा? यह निश्चित हो जाना, भगवान् के प्रति सच्चे समर्पण का भाव जाग्रत् हो जाना ही तत्त्वज्ञान है। इस तत्त्वज्ञान से ही आत्मिक समस्याओं का समाधान होता है। आत्मा की उलझनें समर्पण की इसी गहरी भाव दशा में सुलझती हैं। आनन्द प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम इसी आन्तरिक समाधान और दिशा निर्धारण का प्रयत्न करना पड़ता है। समाधि इसी स्थिति का नाम है। आनन्द की उपलब्धि के लिए सबसे पहले इसी हेतु प्रयत्न किया जाता है।

आमतौर पर समाधि का मतलब एक तरह की बेहोशी से माना जाता है। हठयोग के अंतर्गत ऐसे प्रयोग भी हैं, जिनमें श्वास क्रिया रुकती और हृदय की धड़कन घटती है। वैसी दशा में चेतना निःचेष्ट होकर बहुत समय तक पड़ी रहती है। पर आनन्दमय कोश के साधकों के लिए समाधि यह है, जिसमें चिन्तन की दिशा, आकाँक्षाएँ और विचारणाएँ सभी भगवान् के चरणों में अर्पित, समर्पित होने के लिए बह चलें। यह जाग्रत् समाधि है, जो एक केन्द्र पर सोचते रहने की मानसिक विधि नहीं, वरन् लक्ष्य का सुनिश्चित निर्धारण और अभिगमन है।

समाधि की आन्तरिक स्थिरता प्राप्त होने पर योगी का दृष्टिकोण परिष्कृत होता है। ऐसी दशा में विधेयात्मक एवं गुणग्राही चिन्तन अपने आप ही पनपता है। सृष्टि में यों कुरूपता भी विद्यमान है और मनुष्य में तामसिकता के अंश भी मौजूद हैं। पर समाधि का भाव प्रगाढ़ता होते ही मन-मस्तिष्क में अपने आप ही एक सात्त्विक उत्साह छा जाता है। और एक नूतन सौंदर्य दृष्टि विकसित हो जाती है। जिससे अपने आप ही विश्व व्यापी सौंदर्य के दर्शन होने लगते हैं। पदार्थों और प्राणियों में शिवत्व की झाँकी मिलती है। अपने आस-पास सर्वत्र स्वर्ग की उपस्थिति ही प्रतिभासित होती है।

समाधि और स्वर्ग के बाद आनन्दमय कोश की तीसरी उपलब्धि है मोक्ष। मोक्ष का वास्तविक अर्थ है- आत्म सत्ता को भौतिक न मानकर विशुद्ध चेतन तत्त्व के रूप में अनुभव करने लगना। इस मोक्ष की अवस्था में ही वास्तविक आनन्द भी है। सच यही है कि आत्मा आनन्द चाहती है पूर्ण आनन्द, क्योंकि तभी सभी चाहों में विराम आ सकता है। जहाँ चाह है वहाँ दुःख है, क्योंकि वहाँ अभाव है। आत्मा सब अभावों का अभाव चाहती है। अभावों का पूर्ण अभाव ही आनन्द है और वही परम स्वतंत्रता भी है, मुक्ति भी। क्योंकि जहाँ कोई भी अभाव है, वहीं बन्धन है, सीमा है और परतन्त्रता है। अभाव जहाँ नहीं है, वहीं परम मुक्ति में प्रवेश है।

मोक्ष की इस अवस्था में इस रस का स्वाद मिलता है कि आनन्द की अनुभूति पदार्थों में, भौतिक साधनों में असम्भव है, वह तो आनन्दमय कोश में सहज ही उपलब्ध है। यह आनन्द ही मोक्ष है और मुक्ति आनन्द है। यही हमारी परम आकाँक्षा भी है। निश्चय ही जो परम आकाँक्षा है, वह बीज रूप में प्रत्येक में सोयी होती है। क्योंकि जिस बीज में वृक्ष न छिपा हो, उसमें अंकुर भी नहीं आ सकता। हमारी जो चरम कामना है, वही हमारा अत्यान्तिक स्वरूप भी है। क्योंकि स्वरूप ही अपने पूर्ण विकास में आनन्द और मोक्ष के रूप में परिणित हो सकता है। आनंदमय कोश की भाव साधना में यही सत्य निहित है। और उसकी पूर्ण उपलब्धि ही जीवन में सन्तोष लाती है। इस सन्तोष की प्रगाढ़ता ही योग के आधार को प्रगाढ़ एवं पुष्ट करती है।.


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