ध्यानयोग बनाता है मन को नन्दनवन

September 2001

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‘मन का मंथन ही मनोमय कोश का ध्यान योग है।’ इस सूत्र वाक्य पर जितनी गहनता और गहराई से विचार किया जाएगा, मनोमय कोश की साधना विज्ञान उतना ही सुस्पष्ट होगा। मनोमय कोश की साधना का प्रारम्भ मानसिक क्षेत्र की धुलाई-सफाई से होता है। लेकिन बाद में इसका विस्तार उसे समुन्नत, सुसज्जित एवं सुसंस्कृत बनाने तक जा पहुँचता है। अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास एवं दिव्य क्षमताओं का उभार भी इसी क्रम में होता है।

इसके लिए क्या किया जाय? इस प्रश्न के उत्तर में मनोमय कोश की साधना की योजना बनाकर अपने इर्द-गिर्द ऐसा दिव्य वातावरण बनाना है, जिसके संपर्क में अन्तरात्मा को दिव्य अनुभूतियों का रस मिलने लगे। होता यह है कि संसार की अवाँछनीय गतिविधियाँ ही अपने चारों ओर बिखरी दिखती हैं। जन समूह वासना, विलासिता, तृष्णा, अहंता को जीवन में सर्वोपरि स्थान देता है। वातावरण की इस विषाक्तता का प्रभाव मन पर पड़े बिना नहीं रहता और वह अनजाने ही इस प्रवाह में सम्मोहित की तरह बिना आगा-पीछा सोचे बहने लगता है।

यही क्रम चलता रहे तो मन का पतन के गहरे गर्त में समा जाना तय है। हिमालय के धवल शिखरों पर से नीचे उतर कर बहने वाली नदियाँ क्रमशः गंदली होती जाती हैं। और अन्ततः समुद्र में गिर कर खारी व अपेय बन जाती हैं। पतन का यही क्रम है। उसमें क्रमशः तीव्रता आती है। वही ढर्रा अभ्यास का अंग बन कर मनभावन बन जाता है। न उसमें परिवर्तन की चाहत जगती है और न आत्मोत्कर्ष की सम्भावनाएँ ही नजर आती हैं।

पतन क्रम को उत्कर्ष में किस प्रकार बदला जाय? इस प्रश्न का सुनिश्चित उत्तर एक ही हो सकता है कि वातावरण बदला जाय। मनोमयकोश की साधना के द्वारा हम ऐसी मनःस्थिति विनिर्मित करें जो परिस्थितियों को दिव्य बनाने में सहायक सिद्ध हो सके। ऐसा दिव्य लोक कहीं है नहीं, उसे अपनी साधना से स्वयं ही बनाना पड़ता है। किसी के अनुग्रह से यह कार्य जादू की छड़ी घुमाने जैसी किसी क्रिया-प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकता। मनोमय कोश के ध्यान योग से दिव्य लोक के परिष्कृत वातावरण का सृजन स्वयं ही करना पड़ता है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तरह स्वयं विधाता बनने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं।

मनोमय कोश की साधना विधि के रूप में स्वाध्याय, सत्संग, मनन और चिन्तन की चतुर्विधि साधन सामग्री से सभी परिचित हैं। इससे अपने मनःक्षेत्र को घेरे रहने वाला उपयोगी वातावरण बनता है। लेकिन इन सबसे कहीं अधिक सर्वसुलभ और सर्वश्रेष्ठ उपाय है- ध्यान। मनोमयकोश के परिष्कार की यह सर्वोत्तम साधना विधि है। ध्यानमग्न होकर हम अपने ईष्ट के साथ श्रद्धासिक्त घनिष्ठता स्थापित करके तादात्म्य की दिशा में बढ़ते चले जाते हैं।

ध्यानयोग वस्तुतः ऐसी विधि है, जिससे हमारा मनोमय कोश स्वर्गीय नन्दनवन बन जाता है। इसका सृजन, सम्वर्द्धन, परिपोषण हम ध्यान के माध्यम से करते हैं। इसे परिपक्व करते हैं। ध्यान के चमत्कार से ही यह पत्र-पल्लवों से सजे हुए फल-फूलों से लदे हुए परम मंगलमय उद्यान का रूप ले लेता है। और तब मनोमयकोश में रमण करते हुए आनन्द और उल्लास की अनुभूति होती है। ध्यान की प्रक्रिया इस ऊबड़-खाबड़, बेढंगी-बेतुकी दुनिया को बहुत अच्छी, बहुत सुन्दर, बहुत सुरम्य परिस्थितियों से भरी-पूरी एक नई दुनिया में बदल देती है। ध्यान योग को यदि दिव्य तथ्यों और आदर्शों के अनुरूप सम्पन्न किया जा सके, तो समझना चाहिए कि मनोमय कोश को ऐसे दुर्ग का स्वरूप दे दिया गया, जिसमें बैठकर माया के दुष्ट अनुचरों से सहज ही बचा जा सकता है। और अपनी आत्मिक विशिष्टता को सुरक्षित रखा जा सकता है।

मन का मंथन ही ध्यान योग की सही विधि है। आत्म जिज्ञासा या ईष्ट प्रेम की मथनी लेकर जब मन को मथते हैं, तब ध्यान योग की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। शुरुआत के इस दौर में मन का तरंगित होना, चंचल होना, उद्वेलित होना सामान्य सी बात है। आखिर इसके बिना मंथन होगा भी तो कैसे? कुसंस्कारों के महाविष का निष्कासन इसी समय होता है। इस महाविष की ज्वाला से घबराकर प्रायः लोग कुछ समय के पश्चात् ध्यान साधना छोड़ बैठते हैं। पर यह उनकी भूल है। इस महाविष के शमन का उपाय ध्यान साधना का त्याग नहीं ईष्ट प्रेम या सद्गुरु भक्ति का शिवत्व है। इस अवस्था में सद्गुरु ही शिव के रूप में आकर कुसंस्कारों के महाविषय का त्रास मिटाते हैं। और देववृत्तियों को अभयदान देते हैं।

ध्यान योग के साधक को सद्गुरु की कृपा पर विश्वास रखकर मन के मंथन को उत्तरोत्तर तीव्र करते जाना चाहिए। विचारों, भावनाओं, आकाँक्षाओं, आस्थाओं को एक-एक करके ईष्ट प्रेम और सद्गुरु भक्ति के इर्द-गिर्द लपेटते जाना ही मनोमंथन है। इसके लिए मन की सतह से मन की गहराई में उतरना पड़ता है। इस क्रम में कुसंस्कारों के महाविष के बाद अतीन्द्रिय सामर्थ्य के रूप में अनेकों दिव्य रत्न प्रकट होते हैं। ध्यानयोग के साधक में अतीन्द्रिय सामर्थ्य का प्रकट होना एक सुनिश्चित तथ्य है। पर यह ध्यान का मध्य है उसका अन्त नहीं। दिव्य सामर्थ्य का उभार सिर्फ यह बताता है कि अब साधक का मनोमय कोश परिष्कृत हो चला है।

मनोमय कोश की इस परिष्कृत अवस्था में ही स्वर्ग लोक के द्वार खुलते हैं। गुरुदेव, गायत्री, सूर्य आदि भगवान् का कोई भी रूप क्यों न हो? साधना की इसी अवस्था में उनके दर्शन मिलते हैं। ध्यान योग से प्राप्त दिव्य नेत्रों से उनका पूजन-अभिवादन किया जाता है। निराकार के साधकों को साधना की इसी भावदशा में ज्योतिपुञ्ज के दर्शन होते हैं। उनमें अनेकानेक दिव्य एवं स्वर्गीय संवेदनाएँ इसी समय प्रकट होती हैं।

मनोमय कोश की साधना का कथा-विस्तार बहुत है। इसे यदि एक पंक्ति में कहा जाय तो यही होगा कि- नरक की ज्वालाओं से उबर कर स्वर्ग के नन्दनकानन में प्रवेश। इस पंक्ति की सच्चाई को कोई भी ध्यान योग के साधनात्मक प्रयोग से अनुभव कर सकता है। योगीराज श्यामा चरण लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य ने उनसे पूछा- गुरुदेव योग साधना का रहस्य क्या है? तो उन्होंने उत्तर में मात्र एक शब्द कहा- ध्यान। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे बोले ध्यान कल्पवृक्ष है। इसकी सुखद छाँव में जो कोई बैठता है, उसकी सभी कामनाएँ अपने आप ही पूरी हो जाती हैं। इतना ही नहीं वह कामनाओं के सभी रूपों से ऊपर उठकर आप्तकाम हो जाता है।

तभी तो एक अनुभवी साधक ने मनोमय की ध्यान साधना के बारे में कुछ यूँ कहा है-

मन ही मुक्ति, मन ही बंधन चूक न अब तू कर मन का मंथन तू ही अपना प्रश्न, और तू ही अपना उत्तर

शेष रही अब क्या जिज्ञासा ध्यान योग तेरी परिभाषा दुग्ध फिरे नवनीत ढूंढ़ता क्या यह मूढ़ प्रयास न खलता

डूब तनिक अपनी गहराई में छोड़ सभी चिन्ता उलझन केवल कर अब मन का मंथन।

मन की इसी और ऐसे ही मंथन से योग साधक विज्ञानमय कोश की भावभूमि में प्रवेश करता है।


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