रेकी उपचार ही नहीं अध्यात्मिक छलाँग भी

September 1999

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चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से स्वास्थ्य की सकारात्मक परिभाषा नहीं है। कोई परिभाषा स्थिर करने चलें तो वह निषेधपरक ही होगी। कुछ इस तरह कि रोगों का नितान्त अभाव ही स्वास्थ्य है। शरीर, मन और मस्तिष्क में कोई विकार उत्पन्न होते हैं तो उनके निवारण का उपाय चिकित्सा है। सामान्यतया स्वस्थ दशा में इसकी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। रोग या विकार शरीर, मन या मस्तिष्क में विभिन्न कारणों से पहुँची विषमताओं से आते हैं। इन दिन दुनिया भर में फैल रही रेकी उपचार पद्धति के अनुसार शरीर, मन और आत्मचेतना में समस्वरता, संतुलन का नाम स्वास्थ्य है। वह संतुलन गड़बड़ाता है तो रोग विकार उत्पन्न होते है। अन्य उपचार पद्धतियाँ, औषधि शल्य और विधिनिषेध के पालन को रोग निवारण के उपाय मानती हैं। रेकी पद्धति के विशेषज्ञ औशध उपचारों को पर्याप्त नहीं मानते। उसके अनुसार ये अनावश्यक तो है ही कई बार हानिकारक भी सिद्ध होते हैं। रेकी विशेषज्ञों के अनुसार मनुष्य शरीर में ही इतनी ऊर्जा और संभावना विद्यमान है कि उसका उपयोग कर स्वास्थ्य हुआ जा सकता है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार तो सच्चे मन से मात्र भावना ही की जाए कि हम स्वस्थ हो रहे हैं तो उससे भी रोग दूर किये जा सकते है। लेकिन यह सिद्धि पवित्र और निर्दोष चित में ही संभव है। जर्मनी की प्रसिद्ध रेकी विशेषज्ञ पाला हारेन के अनुसार ज्यादातर लोगों को दूसरे सिद्धपुरुष की सहायता आवश्यक है। बीमार होने पर सिद्ध रेकी मास्टरों का सहयोग उनके भीतर छाए असंतुलन को दूर करता है। रेकी का व्यवहारपक्ष समझने से पहले उसका परिचय जान लें। मूलतः बौद्धग्रंथों और मठों से खोजी गयी उस पद्धति को गढ़ने का श्रेय जापान के डॉक्टर मिकाओ उसुई को जाता है। १८ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए डॉ. उसुई क्योटो के एक ईसाई संस्थान में पढ़ाते थे। वे बौद्ध धर्म छोड़कर ईसाई बने थे। और उन्हें बाइबिल में अगाध आस्था थी। गाथाओं में प्रसिद्ध है कि ईसामसीह रोगियों को छूकर चंगा कर देते थे। उनका यह वचन भी विख्यात है कि जैसा मैं करता हूँ वैसा तुम भी कर सकते हो। इस आश्वासन को पढ़कर डॉ. उसुई के मन में प्रेरणा उठी और शोध अनुसंधान में जुट गये। बौद्धधर्म की जैन शाखा के एक मठ में उन्हें दिशा मिली। वहाँ के प्रधान भिक्षुक की प्रेरणा से तिब्बत गए और वहाँ उपलब्ध बौद्धसूत्रों का अध्ययन किया। सूत्रग्रन्थों में वर्णित साधनाएँ की। विभिन्न चरणों से गुजरते हुये इक्कीस दिन के एक उपवास अनुष्ठान के बाद उनमें स्पर्श से रोग ठीक करने की सामर्थ्य प्रकट हुई। पहली बार उन्होंने छोटे से होटल के मालिक की पौत्रि का इलाज किया। उस लड़की की दाँतों में असह्य कष्ट था। और दोनों जबड़े सुखे हुये थे। डॉ. उसुई ने उसके जबड़ों पे हाथ रखा और पीड़ा के साथ सूजन भी ठीक हो गई। इस आरंभ के बाद डॉ. उसुई ने अपनी चिकित्सा पद्धति को व्यवस्थित रूप देना शुरू किया। इसका नाम रखा गया रेकी। जापानी भाषा के इस शब्द का अर्थ है दिव्यचेतना। डॉ. उसुई ने रेकी के पाँच सिद्धान्त निश्चित किये और उसके प्रचार प्रसार में जुट गये। अपने बाद उन्होंने प्रचार का दायित्व सुयोग्य शिष्य डॉ. चुजीरो हयासी को सौंपा। डॉ. हयासी ने तोक्यो में रेकी चिकित्सालय शुरू की। इस परम्परा का यह पहला अस्पताल था। यहाँ उपचार और प्रशिक्षण दोनों की ही व्यवस्थाएँ थी। बाद में रेकी पद्धति कई देशों में फैल गई। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्राँस, जर्मनी, नीदरलैण्ड, रूस, स्वीडन आदि देशों में इस परम्परा के करीब डेढ़ सौ प्रशिक्षण संस्थान हैं। भारत में कई विशेषज्ञ स्वतंत्र रूप से यह काम कर रहे हैं। इन विशेषज्ञों को रेकी मास्टर कहा जाता है। दिल्ली, बम्बई जैसे शहरों के रेकी मास्टर उपचार और प्रशिक्षण की अच्छी फीस भी लेते हैं। हालाँकि डॉ. उसुई ने इस सेवा को निस्वार्थ भाव से करते रहने का निर्देश दिया था। रेकी पद्धति में जिसे दिव्यचेतना या ईश्वरीय शक्ति कहा गया है उसे भारतीय धर्म के अनुयायी प्राणशक्ति के नाम से अच्छी तरह समझ सकते हैं। डॉ. उसुई के अनुसार विश्वव्यापी इस शक्ति का सम्बन्ध मनुष्य से भली भांति स्थित कर दिये जाये तो वह रोग कष्टों से मुक्त हो सकता है। एक प्रमुख रेकी मास्टर गैब्रियल काजिन्स ने इस पद्धति का तत्त्वदर्शन और विज्ञान समझाते हुए लिखा है हमारे शरीर में कुछ ठोस ऊर्जा क्षेत्र और कुछ सूक्ष्म ऊर्जा क्षेत्र है। इस सूक्ष्म केन्द्रों के आस पास सूक्ष्म ऊर्जा प्रकाश से भी तेज गति से भी घूमती रहती है। इनकी गति व स्थिति हमारी भावनाओं, गतिविधियों और शरीर के अंग अवयवों को आधार देती है। भौतिक स्तर पर जब सूक्ष्म केन्द्रों से ऊर्जा भली भांति गतिशील होती है शरीर में संगति और समस्वरता आती है। ये ऊर्जा क्षेत्र कुछ कम गति करते है। शरीर के स्थूल घटक जैसे रक्त, माँस, मज्जा और उनके कारक एंजाइम प्रोटीन विटामिन आदि का संयोजन करते हैं। इनके संयोजन से अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ और कोशिकाएँ सुचारु रूप से काम करती हैं। भावनात्मक या मानसिक और आत्मिक दबावों के कारण ऊर्जा क्षेत्रों में गति कम ज्यादा होती है तो शरीर में असंतुलन आ जाता है। इस दशा में आधि-व्याधियाँ घेर लेती हैं। ऊर्जा के प्रकार और संचार के कम होने से शरीर का क्षय होने लगता है। उस क्षय के कारण रोग के साथ बुढ़ापा भी घेरने लगता है। बुढ़ापे के बारे में कहते है कि वह शरीर का स्वाभाविक क्षय है लेकिन रेकी विज्ञान इसे नहीं मानता। ऊर्जा के संतुलन से वृद्धावस्था को हमेशा के लिये टाला जा सकता है। यहाँ तक कि अंत तक जवान रहा जा सकता है। रेकी प्रक्रिया को संक्षेप में समझाते हुए डॉ. काजिंस ने लिखा है इसका मूल उद्देश्य और प्रभाव सूक्ष्मशरीर में व्याप्त ऊर्जा को संतुलित करता है। सूक्ष्मशरीर का संतुलन कुछ विशिष्ट केंद्रों पर निर्भर है। इन केंद्रों को भारतीय योगी चक्र कहते हैं। अलग अलग मान्यताओं के अनुसार इनकी संख्या छह से सोलह तक है। जब सूक्ष्मशरीर और शक्ति प्रवाह एक धारा में नहीं होते तो शरीर और मन को कष्ट होता है। ऊर्जा के इस अवरुद्ध प्रवाह को सुसंगत करने के लिये रेकी चिकित्सक की सहायता ली जा सकती है। इस पद्धति को थोड़े प्रयत्न द्वारा स्वयं भी सीखा जा सकता है, अपना उपचार खुद किया जा सकता है। स्पर्श और शुभकामना व्यक्त करने के कुछ विशेष प्रयोग के अलावा रेकी पद्धति जीवन में अध्यात्म के समावेश पर जोर देती है। चेतना को निर्मल बनाने का कोई भी प्रयोग कम से कम इक्कीस दिनों तक चलाने की मर्यादा है। चिकित्सक इसे तीन सप्ताह तक उपचार लेना कहते हैं। उद्देश्य यह है की चिकित्सार्थी और शिक्षक दोनों साधना की मनोभूमि में स्थिर हो सके। उस मन स्थिति में पहुँचने के बाद गति सहज हो जाती है। डॉ. काजिंस इस पद्धति के अध्यात्म पक्ष को स्पष्ट करते हुए स्प्रिचुअल न्यूटशन एड रेनबोडाइट में लिखते हैं- मानवीय चेतना सूक्ष्म पारदर्शी स्फटिकों से निर्मित है। ध्यान की गहन अवस्था में इन स्फटिक कणों को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। ये स्फटिक स्थूल और तरल कणों से बने हैं जो निरंतर प्रवाहित होते रहते हैं। हम जो आहार करते हैं वह तो इनकी दिशाधारा निश्चित करता ही है, हमारे विचार और भाव भी उन्हें प्रभावित करते हैं। रेकी के पाँच सिद्धांतों का निर्धारण भावों और विचारों को सुसंगत रूप देने के उद्देश्य से ही किया गया। उन सिद्धांतों का सार यह है कि नकारात्मक विचार जीवनीशक्ति को अवरुद्ध करते है। असंतोष, क्रोध, असहिष्णुता और उत्तेजना जैसे भाव प्रकृति के स्वाभाविक क्रम को तोड़ते हैं। प्रकृति की प्रक्रिया जिस सहज गति और प्रवाह से चलती है उनके विरुद्ध जाने वाले सभी विचार और भाव नकारात्मक हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति असंतुष्ट है तो वह प्रकृति के न्याय की अवहेलना कर रहा है। उसकी पात्रता और अधिकार के अनुरूप प्रकृति ने जो कुछ दिया है वह उससे शिकायत कर रहा है। यदि वह क्रोध में है तो प्रकृति के नियमों को चुनौती देने का पाप कर रहा है। वे नियम जो शाँत और सहजता निश्चित करते हैं उत्तेजना और आवेश समय से पहले कुछ पा लेने की माँग की प्रतिक्रिया है। रेकी विशेषज्ञों के सुझाए नियम या शैली जीवन और प्रकृति के सहज स्वीकार को ऊर्जा के रक्षण का मार्ग बताते हैं। उनके अनुसार असंतोष, विरोध, शिकायत और अधीरता जैसे मनोभव ऊर्जा को विश्रृंखलित करते हैं। इन मनोभावों में रहने वाले व्यक्तियों का आभामण्डल धुँधला देखा गया है। किर्लियन फोटोग्राफी में वह जगह जगह से खंडित या खिन्न-भिन्न भी अंकित हुआ है। रेकी का अभ्यास क्रम सबसे पहले असंतोष और अधिकार को छोड़ने की दिशा में ले जाता है। विकटोरस कस्विनिस्कस ने सरवाइवल इन टू दा टवेन्टी फास्ट सेंचुरी में लिखा है कि आने वाले दिनों में जीवन इतना जटिल और प्रकृति इनकी क्षुब्ध हो जाएगी कि विरोध, असंतोष को त्याग देने में ही भला होगा। ये विचार या भाव शरीर व्यवस्था से बाहर हो जाते हैं तो सार्वभौम जीवनीशक्ति हमारे अस्तित्व में सीधे और पुरे वेग से प्रवेश करने लगती है। यह ऊर्जा जितनी निर्वाधता से प्रवाहित होगी, ईश्वरीय शक्ति के प्रचंड प्रवाह 'कुँडलिनी' का उतनी ही तेजी से जागरण होगा। उसके जाग्रत हो जाने पर व्यक्ति दूसरों के लिए भी अध्यात्मिक विकास और परिवर्तन की संभावनाएँ खोलेगा। रेकी इस अर्थ में सिर्फ उपचार प्रक्रिया मात्र नहीं है, वह साधना पद्धति भी है। जीवन क्रम को व्यवस्थित करने पर ध्यान देने के अलावा रेकीप्रक्रिया कुछ बाहरी उपायों का भी प्रयोग करती हैं। इन दिनों बाहरी उपायों से ही लोग ज्यादा परिचित हैं। योग के आठ अंगों में जैसे आसन, प्राणायाम और ध्यान तीन ही मुख्य हो गए हैं। यम, नियम,प्रत्याहार धारणा की विशेष चर्चा नहीं की जाती उसी तरह रेकी में पाए सिद्धान्तों और आत्म सुधार आदि की चर्चा प्रायः नहीं होती। वहा स्पर्श, रंग और ध्वनि के प्रयोग, स्फटिक के उपयोग और कुछ विशिष्ट व्यायामों की चर्चा ही ज्यादा होती है। रेकी की आत्मा जीवनपद्धति में आवश्यक संशोधन और सहज सरल मार्ग में अच्छी तरह प्रकट होती है। वह मार्ग अपना लिया जाए तो स्वास्थ्य संतुलन के साथ चेतनात्मक उत्कर्ष की भी संभावनाएँ खुलने लगती है


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