गुरुकथामृत-२ - अलौकिकताओं से भरी लीलापुरुष की जीवनयात्रा

September 1999

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हमारी गुरुसत्ता ने १९२६ से सतत् १९९४ तक स्थूल रूप में शिव और शक्ति के रूप में तथा बाद में अपने सूक्ष्म व कारण रूप में ऐसा दिव्य संरक्षण प्रदान किया है, जिसे शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी एवं माता भगवती देवी एक-दूसरे के पूरक थे-अविभाज्य अंग थे। आश्विन कृष्ण संवत् १९८२, २० सितंबर १९२६ को प्रातः ८ बजे साँवलिया बोहरे (आगरा) के श्री जसवंतराय के घर जन्मी परमवंदनीया माताजी एक दैवीसत्ता- शक्ति के रूप में ही अवतरित हुई थीं। यह मात्र संयोग ही नहीं है कि पंद्रह वर्ष की आयु में उसी वर्ष की आयु में उसी वर्ष संवत् पर्व पर उनके भावी जीवनसाथी- उनके आराध्य एवं गुरु परमपूज्य पं. श्रीराम शर्मा जी ने भी अपने अखण्ड दीपक के प्रज्ज्वलन के माध्यम से अपनी सूक्ष्मशरीरधारी गुरुसत्ता के लगभग १६ मील दूर स्थित आँवलखेड़ा ग्राम में दर्शन किए एवं अपने तीनों जन्मों की जानकारी प्राप्त की थी। यह मात्र एक संयोग नहीं है कि उसी वर्ष श्री अरविंद ने भागवत चेतना का सिद्धिवर्ष इसे घोषित किया था। इस ये सारे असाधारण स्तर के संयोग बताते हैं कि ऋषियुग्म के रूप में एक दैवी चैतन्य-शक्ति हम सबको मार्गदर्शन करने आई। यह बात अलग है कि ‘देवदूत आया, हम पहचान न सके’ लिखने व पढ़ने वाले हम उनका अत्यधिक सामीप्य पाने वाले परिजन भी अंत तक उनके वास्तविक स्वरूप नहीं जान पाए।

परमपूज्य गुरुदेव के जीवन की सबसे बड़ी थाती रही है- वह पाती जो वे १९७१ में मथुरा छोड़कर हरिद्वार आने तक परिजनों को भेजते रहे, जिसके माध्यम से ममत्व पर केंद्रित इस विराट तंत्र का निर्माण हुआ। ये मात्रा काले वाले पत्र ही नहीं थे, उस व्यक्ति के अंतरंग-बहिरंग को झकझोरने वाला सूक्ष्म मार्गदर्शन भी थे, अपने वास्तविक स्वरूप की एक झलक भी थी तथा एक परोक्ष आश्वासन भी कि वे सदैव उनके साथ रहेंगे, शर्त यही है कि लोकसेवा के निमित्त उनकी विभूति का कुछ अंश नियोजित हो। ऐसा ही एक पत्रा जिसमें वे स्वयं अपनी लेखनी से अपने सूक्ष्मशरीर की उनके कार्य की सिद्ध हेतु उपस्थिति की बात करते हैं, यहाँ उद्धत है-

हमारे आत्मस्वरूप, १३-५-५५

पत्र मिला। विवाह का विस्तृत समाचार जाना। वह सब समाचार पूर्ण रूप से हमें मालूम है। क्योंकि हमारा सूक्ष्मशरीर उस समय चौकीदार की तरह वहीं अड़ा रहा है और विघ्नों को टालने के लिए-शत्रुओं को नरम करने के लिए-आपत्तियों को हटाने के लिए जो कुछ बन पड़ता है, बराबर करते रहते हैं। फिर भी आपके पत्र से सब बातें भली प्रकार विदित हो गई। सब कार्य कुशलपूर्वक हो गया, यह आपके पुण्य, सद्भाव और बुद्धि-चातुर्य का फल है माता की कृपा तो सर्वोपरि है ही।

यह पत्र जो मिशन के कर्णधार एवं कानूनी सलाहकार भी रहे श्री शिवशंकर जी के पिता श्री बशेशर नाथ जी को लिखा गया था। इस परिवार की चारों पीढ़ियाँ परमपूज्य गुरुदेव के लिए समर्पित रही हैं। कितना अद्भुत संरक्षण है व खुली स्वीकारोक्ति भी कि “हाँ हम मौजूद थे।” साथ ही यह भी कि यह कार्य आपके पुण्य व बुद्धिचातुर्य के कारण ही सफल हो पाया है। मात्रा गुरुकृपा को ही नहीं, मनुष्य को स्वयं को भी श्रेय मिल जाए, वह भी गुरु की लेखनी के माध्यम से, इससे बड़ा विनम्रता भरा कथन और क्या हो सकता है।

ऐसी ही एक अनुभूति का जिक्र यहाँ करना अप्रासंगिक न होगा। श्री राम बहादुरसिंह कार्यवाहक गायत्री ज्ञान मन्दिर प्रज्ञानगर पो. माधवपुर छतौना (जि. सुल्तानपुर उ.प्र.) द्वारा लिखी यह घटना परमपूज्य गुरुदेव के इलाहाबाद दौरे से संबंधित हैं उन्हें श्री रामलाल जी श्रीवास्तव, जो गायत्री शक्तिपीठ इलाहाबाद के मुख्य ट्रस्टी भी हैं, वर्षों से जुड़े पुराने कार्यकर्ता भी तथा अंग्रेजी युगनिर्माण योजना पत्रिका जो १९७१ के बाद के कुछ वर्ष प्रकाशित हुई थी, के संपादक भी रहे हैं। उनने श्री राम बहादुर सिंह को एक घटना सुनाई कि पूज्य गुरुदेव मध्यप्रदेश के दौरे पर इलाहाबाद होते हुए जाने के लिए आए। रामलाल जी से कहा - भाई! ट्रेन तो देरी से है, इस बीच यूनिवर्सिटी पुस्तकालय हो लेते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहले भी २-३ बार पुस्तकों के लिए पूज्यवर आ चुके थे। यही सोचकर कि यूनिवर्सिटी से यदि देरी होगी तो सीधे स्टेशन निकल जाएँगे, वे सामान आदि लेकर चलने लगे। गुरुदेव ने कहा-भई रामलाल! यहीं आकर जाएँगे। अभी आते हैं। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में पहुँचकर पूज्यवर ऐसे डूब गए कि उन्हें दीन-दुनिया का होश ही नहीं रहा। जैसे-जैसे ट्रेन जाने का समय समीप आ रहा था। रामलाल बाबू का जी घबड़ा रहा था। वे २-३ बार बोले कि सामान भी लेना है। स्टेशन भी पहुँचना है। गुरुदेव बोले कि समय हो गया होगा। यह भी तो एक यज्ञ है। इसे बीच में छोड़कर नहीं चल सकते। गुरुदेव पुस्तकें पढ़ने में पूरी तरह मग्न थे। एक पुस्तक में लगभग दस मिनट लगता, वे एक तरफ रख देते। वे हिंदी अंग्रेजी, प्रकृत, पाली, संस्कृत सभी भाषाओं की किताबें इस बीच देख गए। ट्रेन का समय निकल गया।

इस बीच उनके घर मित्र भटनागर जी गुरुदेव को लेकर स्टेशन ही गए होंगे, वे सीधे वहीं पहुँच गए। थोड़ी देर ढूँढ़ा पर यह सोचकर कि कहीं बैठ गए। गए, निधा

सोचकर कि कहीं बैठ गए होंगे, हम छूट जाएँगे। उनने टिकट लिए व चलती गाड़ी में बैठ गए। गए, निर्धारित कार्यक्रम में पूरा भाग लिया। लौटे तो गदगद थे कि न जाने कैसे गुरुदेव ने ट्रेन में हमें ढूँढ़ लिया व अगले स्टेशन पर ही हमारे पास आकर बैठ गए। पर आप नहीं मिले। कार्यक्रम बढ़िया रहा। हम सीधे स्टेशन से ही आ रहे हैं, पर स्टेशन पर दिखते भी कैसे। वे तो लायब्रेरी से ट्रेन टाइम के निकल जाने के आधे घंटे बाद रामलाल जी के साथ घर लौटे व चादर ओढ़कर सो गए। रामलाल जी ने पूछा भी कि अब कार्यक्रम का क्या होगा। वे हंसकर लेट गए। उधर भटनागर जी सोच रहे थे कि रामलाल जी कैसे हैं, जो गुरुजी को अकेले भेजकर खुद घर पर रह गए। भटनागर जी का वार्तालाप अंदर लेटे गुरुदेव ने सुना-बुलाया व करि के क्या लड़कपन करते हो। दोनों की बात सच्ची है! मैं यहाँ भी था, वहाँ भी था। वहाँ रेल में भी भटनागर जी के साथ मैं ही था। यज्ञ में भी मैं ही था। तुम इस बात को गोपनीय ही रखा। यह मेरा स्वरूप मेरे महाप्रयाण के बाद ही लोगों को पता लगे, यह ध्यान रखना। समय आने पर ऐसी ढेरों बातें लोगों को पता लगेंगी, तब वे हमारे स्वरूप को पहचान पाएँगे।

धन्य हैं गुरुदेव-धन्य हैं आपकी लीला। अखण्ड ज्योति पत्रिका का वर्तमान संपादक जो तथाकथित बुद्धिजीवी भी रहा है। इन सब बातों की वैज्ञानिकता को नहीं समझता, किंतु वह स्वयं साक्षी रहा है अपने गुरु के दैवीस्वरूप का। वह क्या तो समीक्षा करे, वह क्या किसी को समझाए?

जबलपुर शक्तिपीठ की प्राण-प्रतिष्ठा हो रही थी। दूसरा दिन था। गुरुदेव आए-शक्तिपीठ में प्राणसंचार किया। बीसों हजार लोगों ने दीक्षा ली, चरणस्पर्श किए, किंतु रिलीवर के अभाव में श्री बी.एस.गौतम ‘श्रीनाथ की तलैया ८ में दिया उनका ऐतिहासिक प्रवचन में न सुन पाए, न ही अपनी लगाई ड्यूटी से हट पाए। चरण स्पर्श न कर पाने का दुख उन्हें साल रहा था। पूज्यवर की विदाई का समय निकल चुका था। सभी विदा करके शक्तिपीठ लौटते दिखाई भी दे रहे थे। गौतम जी शक्तिपीठ पर जहाँ ड्यूटी लगी थी, खड़े थे। एकाएक उनने देखा कि पूज्यवर उनके सामने से निकल कर आए व मंदिर में माँ गायत्री के सामने जाकर खड़े थे। किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में गौतम जी समझ भी न पाए कि यह क्या हो गया। दो मिनट बाद वे निकले उनके सामने आकर खड़े हो गए। श्री कपिलजी को बोले कि पूजा कि थाली लाओ। थाली आई। पूज्यवर ने अपने प्रिय भक्त का-सच्चे स्वयं-सेवक का तिलक किया और कहा बेटा यह शक्तिपीठ संभालना। यह तुम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। हिलक-हिलककर रोते हुए उनने पूज्यवर के चरण छुए। कपिल जी भी उसके बाद उन्हें हृदय से लगाते हुए बोल पड़े-भैया गौतम तुम बड़े भाग्यवान हो। थोड़ा आगे निकलकर पूज्यवर ने काफिला लौटाने की बात कही व मंदिर दर्शन को आ गए। जबकि कार्यक्रम ऐसा नहीं था। तुम्हारी भक्ति स्तुत्य है।

वे इतना वार्तालाप कर ही रहे थे। कि इतने में कुछ फोटोग्राफर आ गए। पूज्यवर फिर मंदिर में गए। गौतम जी को बुलाकर कहा-चरणस्पर्श कर व फोटोग्राफर्स से फोटो खींचने को कहा। वह फोटो उस घटना की सारे परिवार को आज भी याद दिला देता है। अपने भक्त की पुकार सुन जो गुरुवर चले आएँ, उन्हें भगवान न कहें तो क्या कहें।

ऐसा ही एक पत्र यहाँ उद्धृत करने का मन है। जिसमें २०-१-६७ को परमपूज्य गुरुदेव ने अंजार-भुज-गुजरात की अपनी प्रिय शिष्यों को लिखा है-

तुमने स्वप्न में हमें देखा, सो वह स्वप्न नहीं था। जाग्रति थी। हमारा प्राण शरीर में से निकल कर निष्ठावान् साधकों के पास जाया करता है और उन्हें प्रकाश प्रदान करता है। जब हम उधर जाते हैं, तभी तुम उस प्रकार का अनुभव करती हो। कितनी स्पष्ट स्वीकारोक्ति है उस प्रक्रिया की, जो गुरुसत्ता की अनुभूति के रूप में भक्तों को हुआ करती थी। ऐसी ही विलक्षण अनुभूतियों का विस्तृत वर्णन तो अगले अंकों में परिजन पढ़ेंगे, यहाँ तो परमपूज्य गुरुदेव की लिखी कुछ पंक्तियाँ मातृसत्ता के चरणों में उनकी पाँचवीं पुण्यतिथि पर समर्पित हैं-वे भावमयी हैं। प्यार तो जैसे उनके राम-राम में बसता है। उन्हें हमारी तरह बातें बनाना तो नहीं आता, पर ममत्व लुटाने में वह हमसे कहीं बहुत आगे हैं। भले ही हमारी तरह वह बौद्धिक चातुर्य की धनी न हों, किंतु ममता की पूँजी उनके पास हमसे कई गुना अधिक है। इसी कारण हम उन्हें सजल श्रद्धा कहते हैं। मिशन के प्रत्येक परिजन ने उन्हें इसी रूप में अनुभव किया है।”

उसी सजल श्रद्धा की पूज्यवर ने प्रखर प्रज्ञा के समीप स्थापना करवाई एवं दोनों के महाप्रयाण के बाद उन्हें अग्नि वहीं पर दी गईं। वह समाधि स्थल जो शान्तिकुञ्ज के प्रवेशद्वार के समीप है, हर परिजन को ऋषियुगल के सतत् सान्निध्य की अनुभूति कराता है- उनके दुखों-कष्टों का निवारण करता है।


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