मनुष्य की अपनी स्थिति कुछ भी तो नहीं

September 1999

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विश्व ब्रह्माण्ड में मनुष्य कि स्थिति क्या है? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास साधक को अपनी वस्तुस्थिति का बोध करा सकता है। मनीषियों ने ध्यान में प्रवेश के लिये इस मंथन को एक उपयोगी साधन भी माना है। कहा है कि मनुष्य इस जगत का सबसे अभिमानी और उद्दंड प्राणी है। अपने अहंकार के चलते उसने प्रकृति में कई विक्षेप उत्पन्न किये हैं। उसकी व्यवस्था में अनावश्यक हस्तक्षेप किये हैं और अपनी तथा जीव जगत के लिये भयंकर संकटों को निमंत्रण दिया है। साधक मनुष्य की स्थिति का विचार करते हुए सर्वश्रेष्ठ होने के अहंकार से मुक्त हो सकता है। अभी मनुष्य इस अहंकार से पीड़ित है कि संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। विश्व की अन्य सभी घटक उसकी इच्छा आवश्यकता की पूर्ति के लिये है। इसके लिये नहीं हो तो भी वह अपनी सुविधा और सुख के लिये प्रकृति का मनमाने ढंग से उपयोग कर सकता है। पर उसका ये अधिकार है डेढ़ सौ से दो सौ सेंटीमीटर लम्बाई और पच्चास साठ से नब्बे पंचानवे किलोग्राम वजनी शरीर में सिमटे अस्तित्व वाले मनुष्य की स्थिति पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मोटे तौर पर विराट विश्व में अस्तित्व के असंख्यों रूपों में एक रूप वह भी है कि मनुष्य का आकार और स्वरूप स्पष्ट है लेकिन विश्व का आकार कोई नहीं जानता। करीब १९ सौ साल से वैज्ञानिक विश्व का आकार प्रकार मापने में लगे हुए हैं। लेकिन आज तक सफलता नहीं मिली। आधुनिक खगोलविज्ञान जिस वैज्ञानिक क्लाडियस टालेमी की देन है। उसने सन १४० में यह काम शुरू किया था। टाॅलेमी की शोध भी मनुष्य के इस अहंकार से प्रेरित लगती है कि वह विश्व में सबसे श्रेष्ठ और महाबली है। अन्यथा यह पृथ्वी को विश्व का केन्द्र नहीं बताता और न ही वह यह कहता कि सूर्य तथा अन्य ग्रह इसकी परिक्रमा कर रहे हैं। टाॅलेमी से सैकड़ों साल पहले आर्यभट्ट जैसे भारतीय मनीषी कह चुके थे कि सूर्य केन्द्र है और पृथ्वी समेत अन्य ग्रह उसके इर्द गिर्द घूम रहे हैं। विश्व के निरन्तर बढ़ते फैलते रहने वाले स्वरूप को ब्रह्माण्ड की संज्ञा दी गई है। भारतीय परम्परा के इस शब्द का अर्थ है कि ब्रह्म का स्थूल रूप, विराट शरीर। ब्रह्म शब्द का अर्थ स्वयं भी विराट और वर्धमान है। अँग्रेजी में ब्रह्माण्ड के लिये काॅसमाॅस आता है। इसका अर्थ है- व्यवस्था। भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित सभी शब्दों का अर्थ निरन्तर बढ़ते, व्यवस्थित रूप से चलते और नियमों से संचालित होता हुआ अस्तित्व है। नियम बहुधा अज्ञात होते हैं। इनका प्रभाव दिखाई जरूर देता है। निरन्तर फैलते या असीम ग्रहण करते जा रहे ब्रह्माण्ड की विवेचना में कई निष्कर्ष निरूपित किये गये हैं। उनमें नवीनतम और पिछले सभी निष्कर्षों से ज्यादा सुसंगत सिद्धान्त डॉक्टर एलेन संडेज का है। संडेज के अनुसार विश्व ब्रह्माण्ड का जन्म १२० करोड़ वर्ष पूर्व एक प्रचंड विस्फोट से हुआ। भारतीय मनीषी इस विस्फोट को सौम्य शब्दों में निरूपित करते हुए कहते है कि आरम्भ में वह एक नाद था, शब्द था। शब्द से ही सृष्टि से ही उत्पत्ति हुई। डॉक्टर संडेज के अनुसार विश्व ब्रह्माण्ड का विस्तार २९० करोड़ वर्षों तक निरन्तर चलता रहेगा। विस्तार में निहित गुरुत्वाकर्षण का नियम अपने आप उस गति को विराम देगा। उसके बाद सिकुड़ने लगेगा। अर्थात् वे विश्व ब्रह्माण्ड अपने भीतर ही सिमट जायेगा। भारतीय मनीषी इस क्रम को ईश्वर का लीलाविस्तार और उसे वापस अपने में लीन कर लेने के रूप में निरूपित करते हैं। विश्व ब्रह्माण्ड के खरबों वर्षों की आयु के संदर्भ में मनुष्य की आयु कितनी बैठती है। औसत आयु ७० वर्ष भी माने तो वह कालमान से ब्रह्माण्ड वर्ष (४८० करोड़ मानवीय वर्ष) के एक सेकेंड का करोड़वाँ अंश होगा। मानवी वर्ष की तुलना में यह आयु आँखों से नहीं दिखाई देने वाले सूक्ष्म जन्तुओं की क्षण भर में ही पूर्ण हो जाने वाली पाँच पीढ़ियों की आयु से कम है। आशय यह है कि काल कि दृष्टि से मनुष्य एक कोशीय जीव की तरह नगण्य क्षणभंगुर आयु वाला प्राणी है। विश्व के छोटे से परमाणु से लेकर विशाल आकाशगंगायें, असंख्यों ग्रह नक्षत्र, अगणित तारे और असीम आकाश हैं। पृथ्वी खगोलीय अर्थों में एक ग्रह ही है और ऐसे कितने ही ग्रह हैं जहाँ अपनी पृथ्वी से ज्यादा समृद्धि और जीवन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ हैं। अकल्पनीय विराट विश्व में पृथ्वी कि स्थिति यहाँ वहाँ भिनभिनाती रहने वाली मक्खी जैसी है। इस औकात वाली पृथ्वी में भी मनुष्य कि स्थिति उसके परिवार में विद्यमान असंख्य प्रजातियों में से एक है। परम्परा जीवन के विभिन्न रूपों को चौरासी लाख योनियों के रूप में बताती है। इनमें प्रोटोजोआ जैसे अकोशीय जीवों के अलावा पोरिफेरा,सीलैंट्रेटा, टेनीफोरा, प्लेटीहेल्मिंथिज, नेमटेनिया, इटोपोकिया। ब्रायोजोना, मोलस्का, कार्डेटा जैसे कई वर्ग हैं। ये वर्ग परस्पर मिलने वाली समानताओं के आधार पर निश्चित किए गए हैं। ऐसी असंख्य जातियों-प्रजातियों अथवा योनियों में मनुष्य भी एक है। विकास सिद्धांत के अनुसार मनुष्य पृथ्वी परिवार का सबसे कम उम्र वाला सदस्य है। यों भी कह सकते हैं कि वह विश्व सुधा का नन्हा शिशु है, जो मात्र पचास हजार साल पहले उस जगत में आया। सबसे छोटा होने के कारण प्रकृति उसकी उच्छृंखलताओं को भी सहन करती है, शायद यह मानकर कि वह नटखट है। छोटा होने के कारण उसकी शरारतों को सहन कर लेना चाहिये अन्यथा अपने उत्पातों और उच्छृंखलताओं के कारण पृथ्वी से कई जातियाँ विलुप्त हो गई हैं। प्रकृति के प्रकोप ने उन्हें अपना अस्तित्व समेट लेने के लिये बाध्य कर दिया। मनुष्य प्रकृति परिवार का सबसे छोटा सदस्य है जरूर, लेकिन उसकी इच्छाओं, वासनाओं, अंतहीन तृष्णा ने उसे उत्पाती भी कम नहीं बनाया है। प्रकृति के दिये बुद्धि-वैभव ने उसकी इच्छा-वासनाओं को उद्धत किया। उसके उद्धत आवेग के साथ बुद्धिवैभव ने जुड़कर मनुष्य को अहंकारी ही बनाया है। मनुष्य कितना भी बलशाली और अभिमानी हो जाये वे प्रकृति से बड़ा नहीं हो सकता। शरीर की एक कोष बहुत पुष्ट और समर्थ होकर भी मानवीय अस्तित्व से बड़ी नहीं हो सकती। उसकी स्थिति और क्षमता एक हिस्सा होने के नाते काया से बड़ी नहीं हों सकती। अतः मनुष्य विश्ववसुधा का एक कण मात्र ही रहेगा, अपना अस्तित्व इसी रूप में समझना और अनुभव करना चाहिए। वैज्ञानिक, खगोलीय, समाजशास्त्री और वैश्विक संदर्भ में अपने वस्तु स्थिति आसानी से समझी जा सकती है। पौराणिक क्रिया प्रसंग भी इस सम्बन्ध में अपना बोध कराते हैं। एक आख्यान के अनुसार सम्राट विद्युत्सेन पृथ्वी को जीत लेने के बाद 'भूवः' और 'स्वः' लोक को जीतने के अभियान पर निकले। दोनों लोकों पर विजय प्राप्त करने के बाद वे इंद्र के पास पहुँचे। वह तीनों लोकों पर विजय की सूचना दी। कहा कि विश्व ब्रह्माण्ड में मेरा स्थान सुनिश्चित किया जाये। तीनों लोकों पर जीतने वाला सम्राट कदाचित ही हुआ है। विश्व के इतिहास में हुआ भी तो एकाध ही कई होगा। इंद्र ने कहा कि तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाले को सुमेरु पर्वत पर अपनी यशोगाथा लिखने का अवसर दिया जाता है। सम्राट विद्युत्सेन आप भी वैसा कर सकते है। सम्राट विजय दर्प में भरे हुए सुमेरु पर्वत पर यशगाथा लिखने के लिये गये। लाखों योजन क्षेत्र में फैले सुमेरु पर्वत पर विजय गाथा लिखने का अवसर सम्राट के लिये रोमांचित कर देने वाला अवसर था। लेकिन पर्वत पर जा कर देखा तो वहाँ का कोई हिस्सा खाली नहीं था। विद्युत्सेन इंद्र से यह पूछने के लिये लौटे कि अपना नाम कहा लिखूँ तो उत्तर था किसी पूर्व चक्रवर्ती दिग्विजय सम्राट का नाम मिटा कर लिख दीजिये। विद्युत सेन थोड़ा स्तब्ध रहा। इंद्र ने उसका समाधान किया संकोच मत कीजिये अपनी अवधि में तो यही देख है कि कोई भी दिग्विजय पहले लिखा गया काई नाम मिटा कर ही अपना नाम अंकित कर पाया है। आख्यान का अंत राजा विद्युत्सेन का दर्प तिरोहित होने के रूप में होता है और वह वापस चला जाता है। साधक अपने अहं को इस बोध से विगलित कर सके तो साधना सफल हुई मानी जाती है


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