वैज्ञानिक आध्यात्मवाद ही बनेगा भविष्य का आधार

September 1999

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मनुष्य की विशेषता उसके विचार हैं। विचारों की विकासयात्रा में ही धर्म, दर्शन एवं विज्ञान उपजे एवं पनपे हैं। इन तीनों का ही मकसद मानवीय जीवन को पूर्णता तक पहुँचाना एवं समाज को स्वर्गीय वातावरण से ओत−प्रोत करना है। सामान्यतया मानवीय विकास की दो गतियाँ हैं, पहली आँतरिक तो दूसरी बाह्य। बाहरी विकास को हम सभी अपनी आँखों से देख पाते हैं, जबकि आँतरिक विकास प्रत्यक्ष तौर पर न दिखने पर भी इस बाहरी विकास की दशा और दिशा का निर्धारण करता है। इस आँतरिक विकास के प्रेरक विचार धर्म एवं दर्शन में निहित हैं, जबकि वैज्ञानिक विचारधारा बाह्य विकास को सशक्त एवं समृद्ध बनाती हैं।

वैज्ञानिक विकास के विभिन्न पहलुओं को तो हम रोजमर्रा के जीवन में देखते-परखते ही रहते हैं, पर आध्यात्मिक-दार्शनिक क्षेत्र भी विकास की गतिविधियों से अछूता नहीं है। हाँ, सामान्य तौर पर पश्चिमी दृष्टिकोण को वैज्ञानिक एवं पूर्वी दृष्टि को आध्यात्मिक माना जाता है। एक तर्क प्रधान है तो दूसरा भावप्रधान। यद्यपि तर्क निरंतर परिवर्तनशील होते हैं। जबकि आध्यात्मिक तत्व शाश्वत एवं चिरंतन बने हुए हैं। इस अलगावरेखा के बावजूद पिछले कुछ दशकों के इतिहास के पृष्ठों को पलटें तो स्पष्ट देखा जा सकता है कि आध्यात्मिक परंपरा वाले भारत महादेश ने भी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। दूसरी ओर पश्चिम ने धार्मिक आदर्शवाद के अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इस तरह पूर्व एवं पश्चिम के बीच-अध्यात्म एवं विज्ञान के बीच अलगाव पैदा करने वाली रेखा अब उतनी गहरी नहीं रही।

हाँ, इतना अवश्य है कि विज्ञान ने पदार्थ के अस्तित्व को इतना उलझा दिया है कि उसे स्वयं ही इसका ज्ञान नहीं रहा। वही वैज्ञानिक जो कभी पदार्थ को सर्वोपरि एवं सर्वोत्तम माना करते थे, अब क्वांटम एवं अनिश्चितता के सिद्धांत के द्वारा उच्चस्तरीय चेतना को स्वीकारने लगे हैं। भारतवर्ष में चेतना के पारखी ऋषियों ने शुरुआत में ही इस तत्व को समझ लिया था, हालाँकि हाल में हुए इन वैज्ञानिक अनुसंधानों से आध्यात्मिक सत्यों को और अधिक प्रखरता मिली है।

अब तो यह हर कहीं समझा जाने लगा है कि विज्ञान एवं धर्म दोनों ही मानवीय जीवन एवं संस्कृति के अविभाज्य अंग हैं। ये तार्किक एवं आध्यात्मिक दो ऐसे सूत्र हैं, जो मानवीय स्वभाव में अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। प्रकृतिगत इस सत्य को नजरअंदाज कर देने के कारण एक दौर ऐसा भी आया जब तार्किकता के अभाव में धर्म अंधविश्वासों-अंधमान्यताओं से भरमाया और भावनाशून्य विचारप्रणाली से विध्वंसक नाभिकीय आयुधों का बेशुमार निर्माण होने लगा।

मानवीय इतिहास के विभिन्न युगों में जब भी ऐसी स्थिति आई है, परिणति भयावह ही हुई है। वर्तमान विग्रह एवं विसंगतियों का कारण भी आध्यात्मिक विचारधारा का विरोध ही है। पश्चिम में थेल्स से लेकर ह्वाइटेड तक तथा पूर्व में ऋग्वेद की ऋषियों से लेकर महर्षि अरविंद तक दर्शन अनुभव प्रधान रहा है, परंतु ये अनुभव इंद्रियों की सीमाओं में सिमटे रहे यह जरूरी नहीं। इनकी सीमा का विस्तार अतींद्रिय होना भी संभव है, जबकि आज की परिस्थिति में तार्किक प्रत्यक्षवाद तथा अस्तित्ववाद, सारे अनुभव एवं अनुभूतियों को इंद्रियों की सीमा में पकड़े-जकड़े रहने के बालहठ पर अड़ गए। आध्यात्मिक विचारधारा से उनके बैर-विरोध का कारण उनका यही अज्ञान रहा।

प्राचीन ग्रीक चिंतनशैली में प्रोटोगोरस ने जब अपना मंतव्य प्रकट करते हुए कहा कि सत्य तभी सार्थक है- जब वह इंद्रियों द्वारा ग्रहणशील हो। तब प्लेटो ने इसकी कटु आलोचना की थी। उन्होंने कहा कि सत्य के उच्चतर पहल इंद्रियातीत भी हो सकते हैं। आधुनिक यूरोपीय दर्शन में ह्यूम का मानना है कि ईश्वर, आत्मा आदि के संबंध में कोई वास्तविक या सार्थक दावा नहीं हो सकता। परंतु काँट ने किस्मत को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया। हालाँकि ह्यूम के विचारों को जहाँ स्वीकारोक्ति मिली वहाँ धार्मिक विचार विश्वास मूर्खतापूर्ण कहे गये तथा तत्व मीमांसा को त्याज्य माना गया।

तत्वमीमांसा इनसान, प्रकृति एवं परमात्मा के पारस्परिक संबंधों की व्याख्या है। जिन धर्मों में तत्वमीमांसा की प्रणाली नहीं होती उनका अस्तित्व ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रह सकता। यदि रहा भी तो उसमें सिवाय कट्टरपन के कुछ नहीं बचता। वे धर्म वैज्ञानिकता की कठोर कसौटियों को झेल नहीं पाते हैं। भारत की आध्यात्मिक परंपरा अपनी तत्वमीमांसा के कारण ही विज्ञान सम्मत बन सकी है।

पश्चिमी प्रत्यक्षवाद ने सत्य को इंद्रियों को सीमा में समेटने की जो बल हठ ठानी है उसी के चलते वह अध्यात्मिक सत्यों को समझने में विफलप्राय हुआ है। सत्य की व्यापकता को भला सीमाबद्ध कैसे किया जा सकता है। एक गागर में भला समूचा सागर कैसे समा सकता है। जो अदृश्य, सूक्ष्म, इंद्रियातीत है वह स्थूल परिकरों में कैसे और किस तरह प्रकाशित हो? प्लेटो के आदर्शवाद से लेकर मार्क्स के आदर्शवाद तक तत्वविद्या को अमान्य तो किया जा सकता है परंतु सच्चाई से भागा और बचा नहीं जा सकता है। जब भी चिंतन और विचार अपने बारे में पूरी तरह से चैतन्य होता है तो वह अध्यात्म बन जाता है।

इंद्रिय अनुभव, पश्चिमी दर्शन एवं उस पर आधारित विज्ञान की जहाँ सीमा है वहीं इसकी सबसे बड़ी दुर्बलता है जिसका परिणाम है व्यापक एवं सार्थक दर्शन का निषेध। यथार्थ दर्शन तो अस्तित्व की गहराई में जाता है तो सत्य को अखण्ड बनाने के लिए वैज्ञानिक, अध्यात्मिक एवं नैतिक परिकल्पना करता है। जीवन मूल्यों की उपयोगिता सीमाबद्ध नहीं है बल्कि समस्त संसार व समाज के कल्याण के लिए सारे अनुभव मात्र इंद्रियों के दायरे में किस तरह सिमट सकते है, नैतिक, सौन्दर्यात्मक एवं आध्यात्मिक अनुभव भी होते है। हमारे घनीभूत अनुभवों में ज्ञान के लिए उत्साह, सौंदर्य हेतु प्रेम, नैतिकता की आशा एवं दैवी संवेदनाओं को अमान्य तो नहीं किया जा सकता। विज्ञान पदार्थ से सत्य का प्रकटीकरण करता है ये ठीक है। परंतु इसमें आध्यात्मिक मूल्यों का भी समावेश भी अनिवार्य है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सी.डी. ब्राँड ने अपनी पुस्तक ‘फाइब टाइम्स ऑफ एथिकल थ्योरी’ की भूमिका में नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों एवं मानदण्डों में अंतर बताया है। उनके अनुसार नैतिक मूल्य मानव के सामाजिक विकास के लिए आवश्यक एवं उपयोगी है जबकि आध्यात्मिक मूल्यों का उद्देश्य मनुष्य का आँतरिक एवं चेतनात्मक विकास है। मनीषी ब्राँड के अनुसार अध्यात्म विषय अनुभव जगत की वास्तविक व्याख्या है। इसमें असीम एवं अनंत को नये आकार प्रकार से संजोया जाता है। ये मात्र कल्पना नहीं बल्कि उच्चतर सत्य के साक्षात्कार है, जबकि वैज्ञानिक अनुभव विद्युत ऊर्जा, गुरुत्वाकर्षण जैसे पदार्थों की सीमा में सिमटे सत्यों को ही जाँच परख सकते है। इनसे सापेक्षता तो जानी जा सकती है परंतु निरपेक्ष सत्य तो अंजान ही बना रहता है।

यद्यपि ये वैज्ञानिक प्रयोगवाद भी कम आवश्यक नहीं है क्योंकि वे सब इस आधारभूत तथ्य से आरंभ करते है कि किस चीज का अस्तित्व है और यही धर्म को अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए सहायता करता है। सच्चाई तो यही है कि धर्म में निहित सत्य की अवहेलना किसी ने नहीं की है। उससे थोथे कर्मकाण्ड पर ही कुठाराघात हुआ है। हाँ इस तरह के अधूरे ज्ञान से ये भ्रम जरूर पलता है कि लोग सोचने लगे है कि धर्म का यथार्थ अस्तित्व है भी या नहीं। अब तो ये दर्शन का पुनीत कर्तव्य है कि धार्मिक अध्यात्मिक सत्य को इस ऊहापोह से निकालकर नवीन रूप दे, जिससे मानव समाज को जीवन का दिशाबोध हो सके।

परंतु ये तभी संभव है जब कि विचार एवं भावनाओं का संयोग हो, श्रद्धा एवं तर्क का मिलन हो। पश्चिमी जगत में यों प्लेटो का दर्शन तार्किक युक्तियों पर आधारित है, परंतु उन्होंने इस दुनिया से परे एक अन्य लोक का भी जिक्र किया है। उनके अनुसार जो एक अजगर को अपने आकार और पराक्रम पर बड़ा अभिमान था। यह भी सोचता था कि जिसे भी अपनी पकड़ में जकड़ लेगा, उसका कचूमर निकालकर ही छोड़ेगा। मंदिर की चौखट पर खड़ा हुआ संगमरमर का शेर उसने देखा, तो गुस्से में आग बबूला हो गया। मुझे देखकर बड़े-बड़े जानवर डरकर भागते हैं, एक तू है, जो जहाँ-का-तहाँ बैठा अकड़ रहा है। सिंह कुछ बोल नहीं सकता था, सो बोल भी नहीं। अजगर उससे लिपट गया और निगलने लगा। प्रयास निष्फल हो गया गया। जितना-जितना वह क्रुद्ध होता और आक्रमण करता, उतनी ही चोट उसे लगती और लहूलुहान हो जाता। अंत में उसे अपनी मूर्खता समझ में आई और लहूलुहान शरीर लेकर बिल में वापस लोट गया। आवेशग्रस्त की ऐसी ही दुर्गति होती है।

प्रदत्त है वह प्रकृति के ऊपर नहीं जाता परंतु दिव्य प्रेरणा उसे पार ले जाती है। प्लेटो का सह भी विचार है कि मृत्यू अंत नहीं है और यही पुनर्जन्म की अवधारणा सिद्ध होती है। थेरेव्स में सुकरात ने मनुष्य को देवतुल्य बनाने के लिये आह्वान किया था। उनका कथन था कि मनुष्य अपूर्ण है और पूर्णता की प्राप्ति ही उसका एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। इसी तरह काँट ने संपूर्ण सत्य या सत्ता को सूली में ही बंद नहीं माना है। उनका कथन है कि तर्क से आत्मा परमात्मा के रहस्यों को अनावृत कर पाना संभव नहीं है। अतः ज्ञान विज्ञान का खोज सत्यनिष्ठा और विश्वास के बलबूते ही बन पड़ती है। जहाँ तक तर्क का तीर नहीं पहुँच पाता वहां आध्यात्मिकता अनुभव की पारदर्शिता ही कामयाब होती है। प्रकृति का सौंदर्य नदियों का कल कल निनाद सूर्य की इन्द्रधनुषी आभा एवं तारों भरा गगन किसी भी तर्क का मुहताज नहीं है। काँट ने अपने दर्शन में प्रकृति के इस स्वरूप की पहचान के लिये स्न दिखाया है ताकि विचारों की उत्कृष्टता, समग्रता एवं समृद्धता बनी रहे। भारतीय चिंतन में भी अस्तित्ववादी संकट और बौद्धिकता दोनों का समावेश हुआ है। इसका संबंध मानव की पूर्णता से उसके अंतिम लक्ष्य से है। यहाँ मानवीय जीवन की सर्वतोमुखी प्रगति आत्मोत्कर्ष मन शाँति एवं भौतिक समृद्धि के लिये विचार किया गया है। मानव के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के लिये भारतीय विचार पद्धति पथप्रदर्शक है। वेदांत दर्शन एवं उपनिषदों में यथार्थ सार्थक एवं समग्र ज्ञान तथा उसके प्रति बौद्धिक आचरण पर प्रकाश डाला गया है। समुद्र एवं जलकणों के समान ब्रह्म एवं आत्मा एक ही है। ब्रह्म सांसारिक क्रिया के पीछे की सत्ता का नाम है तो वैयक्तिक अहं के पर्दे के पीछे आत्मसत्ता प्रकाशित रहती है। जिसे ब्रह्मविद्या कह सकते है और तत्वमीमांसा भी। इसका सारतत्त्व यही है कि स्वयं को जाने समझे बिना पदार्थ का जीवन का सही उपयोग कतई संभव नहीं है। भगवत् में पिंड में ब्रह्माण्ड की परिकल्पना की गई है। यह परिकल्पना बीज में वृक्ष की कल्पना के सदृश है। मनुष्य के अंदर ईश्वरीय सत्ता समाई है। मनुष्य के बीज रूप में समस्त ईश्वरीय विभूतियाँ अपने बीज रूप में निहित है। बस आध्यात्मिक ज्ञान एवं चेतना से उन्हें जाग्रत एवं विकसित भर करना है। शाश्वत वर्तमान मनुष्य के संकुचित व्यक्तित्व से आच्छादित है। अंतः अहंबद्ध संकीर्णता छोड़कर ही चेतना के उच्चतर आयामों के ज्ञान एवं विकास हो सकता है। इतने पर भी भारतीय दर्शन एवं चिंतन पद्धति ने यह साफतौर पर बताया कि विकास की समग्रता तभी है जब हम स्वयं की आँतरिक एवं बाह्य आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों अर्थों एवं स्तरों पर विकसित करे। इसके लिये जितनी आवश्यकता आध्यात्मिक विचारों एवं प्रक्रियाओं की है उतनी ही वैज्ञानिक सूत्रों एवं प्रयोगों की। मानवीय जीवन एवं समग्र एवं सार्थक विकास का अर्थ है जीवन में विचारों की त्रिविध आयामों का समावेश। विचारों के त्रिविध आयाम के रूप धर्म दर्शन एवं विज्ञान का समन्वित उद्देश्य ही मानव की पूर्णता को साकार करना है। वैज्ञानिक आध्यात्मवाद की अवधारणा इस अभूतपूर्व समन्वय की ही सार्थक परिभाषा है। निजी और सामाजिक जीवन में इसका प्रयोग उपयोग स्वयं को और समाज को आर्थिक एवं वैचारिक एवं भावनात्मक धरातल पर विकसित करेगा। फिर मानव में देवत्व एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण मात्र एक विचार नहीं बल्कि आँखों देखी जानी वाली सच्चाई बनेगी। इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के उद्घोष का यही पर्याय अभिप्राय है। चौबीस अवतारों में से एक कपिलजी तो ज्ञानावतार थे सहज संत। पुत्रियों का विवाह करते ही ऋषि कर्दम तथा देवहूति ने संन्यास ले लिया। देवहूति ने ज्ञानी कपिल जी से पूछा इंद्रियाँ चोरों की तरह आचरण करती है। मैं ऊब गयी हूँ। स्थिर आनंद की प्राप्ति के लिये क्या करूँ। कपिलजी बोले माताजी इंद्रियाँ और मन असत का संग करने के आदि हो गये है। असत के सहयोग से दुख की उत्पत्ति होती है। संग अर्थात् आसक्ति छूटती नहीं इसे असत से सत की ओर मोड़ दिया जाता है। इसी मोड़ से सत्संग मिलता है। सत्संग सा आनंद उपजता है। सन्त तो संसार में दिखता है सत्संग का संग किससे करूँ कपिल जी ने कहा यदि ऐसा लगता है तो समझो अभी अपनी पाप दृष्टि का क्षय नहीं हुआ जब तक पाप दृष्टि है संत मिल जाये तो उनके सद्भावना उपजती उसके बीना उनके संग का लाभ उठाया ही नहीं जा सकता जा स्वयं संत बनता है उन्हें संत मिल जातं है जब तक स्वयं संत से जुड़ने की उमंग नहीं उठती संत दृष्टि पैदा नहीं होती और यह संसार दुष्टों से ही भरा दिखता है स्वयं संत बने बीना न संत मिलता है न सत्संग होता है


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