इसलिए हमारी संस्कृति महान है

September 1999

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तेज बुखार की वजह से महाराणा प्रताप की देह तवे की मानिंद तप रही थी। महाराणा भूमि पर लेटे हुए वैद्यों से घिरे थे। एक सेवक पैर दबा रहा था। वैद्य का एक सहायक लेप पीस-पीसकर महाराणा के ललाट पर लगा रहा था। अचानक ही कराहते हुए महाराणा उठ बैठे। वैद्य जी ने पसीना पोंछा। धधकते नेत्रों से आसपास के लोगों को देखकर महाराणा पूछ उठे-अमरसिंह की कोई खबर आई है क्या?

अभी तक तो नहीं आई, अन्नदाता! एक सेवक ने हाथ जोड़, सिर नवाकर कहा।

आप कुँवर जी की चिंता छोड़े महाराणा। वे आपकी संतान हैं, आपकी शान में बट्टा लगाकर वे हारेंगे नहीं, विजय पताका फहराकर ही आएँगे। आपको तेज ज्वर है, आप आराम फरमाइए। वैद्य ने उन्हें लिटाते हुए कहा।

वैद्यराज आपके मुँह में घी-शक्कर जो कुँवर रण जीत आए। दरअसल बात यह है-वैद्यराज जी कि मुगल सेना के सेनापति अब्दुर्रहीम खानखाना अनुभवी, वीर और बुद्धिमान हैं। ऐसे रणबाँकुरे कम ही मिलते हैं। यदि मैं स्वस्थ होता तो रणभूमि में एक विलक्षण योद्धा के साथ युद्ध करने का आनंद उठाता। अफसोस है कि मैं बुखार से घिरकर यहाँ छटपटा रहा हूँ। महाराणा ने बात अभी पूरी नहीं की थी कि एक सैनिक ने आकर’ महाराणा की जय हो’ कहकर प्रणाम किया।

महाराणा ने उसे देखकर मुस्कराकर पूछा-क्यों क्या खबर लाए हो, उज्ज्वल सिंह?

महाराणा की जय हो अन्नदाता, कुँवर अमरसिंह ने मुगल सेना को खदेड़कर भगा दिया है। कई मुगल सरदार बंदी बना लिए गए हैं। तो फिर कुँवर...

हुजूर, हमारी सेना ने कुँवर सा के नेतृत्व में मुगल हरम को घेर रखा है। आगंतुक सैनिक ने कहा।

ओह गज़ब हो गया वैद्यराज जी।

आप आराम कीजिए अन्नदाता, ईश्वर सब ठीक करेगा।

पर उज्ज्वल सिंह मुगल हरम को घेरने का आदेश किसने दिया। उत्तेजित महाराणा उठ बैठे।

गुस्ताख़ी माफ करें अन्नदाता, सेना तो कुँवर सा के इशारे पर ही घेराबंदी करने लगी थी। उज्ज्वल सिंह डर के मारे थर-थर काँप रहा था।

अरे अमरसिंह, ऐसी कमीनी हरकत करने से पहले तू मर क्यों नहीं गया। अपनी महान संस्कृति के नाम पर कलंक लगाएगा क्या? अरे स्त्री हिंदू हो या मुसलमान, वह तो जननी है, माता है, हर हाल में वह पूजनीय है। महाराणा बोले।

हम अभी युद्धभूमि जाएँगे। वैद्यराज उन्हें तेज ज्वर की याद दिलाकर भी रोक नहीं पाए। महाराणा तुरंत घोड़े पर सवार होकर चल दिए। वैद्यराज भी सैनिकों के साथ उसी तरफ आगे बढ़ गए।

रणभूमि पर महाराणा के आगमन की बात सुनते ही कुँवर अमरसिंह जल्दी से शिविर से बाहर आकर उनकी ओर लपके। महाराणा ने बिना कुछ कहे ही उन्हें जलते नेत्रों से घूरकर देखा तो बिना कहे ही अमरसिंह को अपनी गलती का अहसास हो गया। इतने में चेतक मुगल हरम के बाहर जाकर रुका। महाराणा ने पुकारा...बड़ी बी साहिबा को मेवाड़ के सपूतों का साष्टाँग प्रणाम। बड़ी बी साहिबा! जो सिर कभी शहंशाह अकबर के सामने नहीं झुका, उसे मैं आपके सम्मान में झुकाता हूँ। आप मेरे पुत्र का अपराध क्षमा करें। कल सुबह होते ही आपको सुरक्षित रूप से रवाना करवाने की व्यवस्था हो जाएगी। आज तो आप भी मेवाड़ का रूखा-सूखा खाना जो भी यहाँ मौजूद है, वह स्वीकार कर आराम फरमाएँ, आप हमारी अतिथि हैं। माता और अतिथि दोनों ही रूपों में आप हमारे लिए पूजनीय हैं।

आप चिंता मत कीजिए, महाराणा हिंदू कुल तिलक कहलाते हैं, तो उसकी आन निभाना भी जानते हैं। यह हमें मालूम था। हम सब यहाँ उतनी ही शान से हैं, जितनी कि अपने महल में रहती हैं। आप हम सबका आदाब कुबूल कीजिए। हरम में से एक हल्का-सा नारी स्वर गूँजा।

उधर बेगमात को रणक्षेत्र में छोड़ आने की भयंकर गलती के लिए अकबर ने जब सेनापति अब्दुर्रहीम खानखाना को लताड़ा, तो उन्होंने इत्मीनान से कहा-गुस्ताख़ी माफ हो, जहाँपनाह, महाराणा को मैं जानता हूँ। बेगमात वहाँ उतनी ही सुरक्षित हैं, जितनी कि शाही हरम में होती हैं।

पर वे तो हमारे दुश्मन ठहरे।

दुश्मन वे अवश्य हैं, पर हिंदू कुल तिलक पहले हैं। इनसान पहले हैं। उनकी यह बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि अर्दली ने आकर महाराणा की तरफ से भेजी सूचना दी कि-अगली सुबह राजकीय सम्मान के साथ राजपूत सैनिकों की सुरक्षा में बेगमों की पालकियाँ विदा होंगी। वे सब ठीक हैं, चिंता न करें।

वाह रे फरिश्ते! अचानक शहंशाह अकबर के मुँह से निकल पड़ा। खानखाना भी सिर नवा बैठे प्रताप को। बोले-नारी के लिए माता के समान सम्मान से कोई भी राष्ट्र-समाज आगे बढ़ पाता है।

दूसरे दिन सब अपनी-अपनी जगह सुरक्षित पहुँच गए। हर कोई बेगमों के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के और महाराणा के गुण गा रहे थे।


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