अलग ही होगी तीन साल बाद की दुनिया

September 1999

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“आने वाले कम-से-कम तीन साल भारत ही नहीं दुनिया के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। नियंता को अब यह स्वीकार नहीं है कि उसकी सृष्टि हेय और पतन की स्थित में पड़ी रहे। परिवर्तन और परिष्कार की प्रक्रिया तेजी से चल रही है। प्रक्रिया पाँच वर्षों में संपन्न होनी है। ढाई वर्ष का पूर्वार्द्ध बीत चुका है, उत्तरार्द्ध अभी शेष है। पिछले ढाई साल यदि उथल-पुथल के दिन थे तो आने वाला समय और तनाव, विग्रह, हिंसा, रोग और विपदाओं से भरा होगा, इस के बाद एक सुखद और उज्ज्वल भविष्य सामने है।”

ये पंक्तियाँ किन्हीं कूटपदों का भावार्थ नहीं हैं। न ही किसी दैवी आवेश में दिए गए आश्वासन हैं, प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् कोट्टस राजू नारायण राव ने पिछले २३ सौ साल के इतिहास को खंगाल कर यह घोषणा की है। इस अवधि के इतिहास की प्रमुख घटनाओं और उस समय की ग्रह स्थितियों का अध्ययन करने के बाद वे इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि आने वाली शताब्दी मनुष्य जाति के लिए बहुत आशाप्रद होगी।

बीसवीं शताब्दी बीत रही है। इसके अंत में भयावह स्थितियों की भविष्य-वाणियाँ प्रायः की जाती रही हैं। दुनिया में फैले तनाव, युद्ध, विग्रह, उत्पात और प्राकृतिक विपदाओं का हिसाब लगाएँ तो पाएँगे कि वे सही भी हो रही हैं।

हालाँकि नास्त्रेदामस की भविष्यवाणियों के आधार पर वर्षों से यह भी कहा जा रहा था कि जुलाई ९९ के पहले सप्ताह में दुनिया नष्ट हो जाएगी। वह भविष्यवाणी या व्याख्या गलत ही साबित हुई। श्री राव ने अप्रैल ९७ में अपने एक शोधपत्र में लिखा था कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा। ‘जनरल ऑफ एस्ट्रोलॉजी’ के अप्रैल १९९७ के अंक में पिछले तेईस सौ साल की घटनाओं का आकलन किया गया था। शोधपत्र का निष्कर्ष यह है कि शनि और केतु की युति उथल-पुथल लाती रही है। दोनों ग्रहों का विशिष्ट योग संसार के भाग्य-भविष्य को निर्धारित करता है। श्री राव के अनुसार ९ जनवरी ९७ की सुबह आने वाले दिनों में परिवर्तन का संकेत थी। उस दिन सुबह ५; ३० बजे शनि और केतु मीन राशि में एक ही अंश पर स्थित थे। उससे सातवें घर में मंगल और राहु की यही स्थिति थी। यह स्थिति अभाव, रोग और आपदाएँ लाती हैं। यों भी कह सकते हैं कि इस तरह के ग्रहयोग विपदाओं का संकेत करते हैं।

पाँच वर्ष का परिवर्तन योग द्रुतगति से चल रहा है। ज्योतिष के क्षेत्र में की गई शोध यह सिद्धांत स्थिर करती है कि शनि और केतु की युतियाँ देशकाल को मोड़ देने वाली सिद्ध हुई हैं। यह योग संपन्न हो चुका। अब १४ मई २००२ की ग्रहस्थिति बताती है कि उस के बाद की दुनिया अबकी तुलना में बहुत श्रेष्ठ और शुभ होगी।

वस्तुतः ज्योतिष संभावनाओं का शास्त्र है। वह इस आधार पर चलता है कि समूचा ब्रह्माण्ड एक चैतन्य शरीर है। शरीर के किसी भी अंग अवयव में कष्ट-पीड़ा या असुविधा होती है तो पूरा शरीर ही प्रभावित होता है। कष्ट या सुविधा ही नहीं अंगों की स्थिति भी शरीर को प्रभावित करती है। ब्रह्माण्ड में असंख्यों ग्रह-नक्षत्र और तारागण हैं। सभी की स्थिति अस्तित्व को प्रभावित करती है। उनकी बारीकियों में जाए बगैर ज्योतिष शास्त्र नौ प्रमुख ग्रहों और सत्ताईस नक्षत्रों का अध्ययन करता है, यह विद्या इतनी विकसित हो चुकी है कि सही गणनाएँ भावी की पदचाप को स्पष्ट सुन लेती है। अक्षरशः भविष्य कथन कोई भी सही नहीं निकलता। इस विषय के मर्मज्ञ मनीषी भी मानते हैं कि सत्तर प्रतिशत कथन सही निकल जाए, तो उस विद्वान को अधिकारी और प्रामाणिक मान लेना चाहिए।

श्री राव कहते हैं कि परिवर्तन के लिए सन २००० या २००९ जैसा कोई मानदंड नहीं है। भारतीय ज्योतिष में कालगणना के लिए चंद्र संवत्सर का उपयोग किया जाता है तथा संवत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को शुरू होता है। शास्त्रीय मान्यता है कि ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण आरंभ किया। यों भी कह सकते हैं कि जिस दिन सृष्टि का उद्भव हुआ उस दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा थी। आरंभ का क्षण तिथि, मास और संवत् के इस मान के आधार पर सृष्टि संवत् भी प्रचलित है। आमतौर पर संकल्प और कालगणना में कलि तथा विक्रमी संवत् का ही उपयोग किया जाता है। ज्योतिषीय अध्ययन में भारतीय पद्धति ही व्यावहारिक है। श्री राव का कहना है कि ग्रोमेरियन कैलेण्डर के आधार पर न साल का भविष्यकथन किया जा सकता है और न ही राशिफल बताया जाना चाहिए। वह अवैज्ञानिक है, इक्कीसवीं सदी या सन २००० आदि का उल्लेख सुविधा के लिए ही किया गया हो सकता है! उसे आधार नहीं मानना चाहिए।

ग्रहों के विशिष्ट योग अपना प्रभाव दिखाते हैं। पिछले चालीस वर्ष का एक उदाहरण लें। उसका आतंक बहुत फैला था कि दुनिया तबाह हो जाएगी, सर्वनाश हो जाएगा। प्रलय मच जाएगी आदि। ५ फरवरी १९६२ के अष्टग्रही योग की स्मृति रखने वाले लाखों लोग हैं। तब चंद्रमा, शनि, बुध, सूर्य, बृहस्पति, शुक्र, मंगल और केतु मकर राशि में स्थित थे। वर्षों पहले ज्योतिष इस योग की भयावह संभावनाओं के बारे में बताने लगे थे। उन प्रभावों के व्यापक प्रचार से जागरण, पाठ, अनुष्ठान, यज्ञ-याग आदि आयोजनों की लहर छा गई थी। बहुतों ने तो अपना मरणोत्तर संस्कार भी अपने सामने अपने हाथों ही कर लिया था। उन दिनों अखण्ड ज्योति’ के पृष्ठों पर यह आश्वासन छपता था कि अष्टग्रही योग अपना प्रभाव दिखाकर संपन्न हो जाएगा। निश्चिंत रहा जाना चाहिए कि इस योग के कारण प्रलय नहीं होने वाली है।

प्रलय जैसा तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन उस योग के बाद भारत को जबर्दस्त आघात लगे। चीन ने जबर्दस्त हमला किया। भारतीय नेतृत्व इस विश्वास में ही खोया रहा कि चीन उसका अभिन्न मित्र है। दोनों देशों ने मिलकर पंचशील के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। चीन के हमले ने भारतीय नेतृत्व को स्तब्ध कर दिया था। सीमा पर विशेष तैयारी नहीं थी। इसलिए सेना को पीछे हटना पड़ा। जवाहरलाल नेहरू उस सदमे से बीमार पड़ गए और दो साल के अंदर ही वे उसी बीमारी में चल भी बसे। उन दिनों भारत का विदेशी मुद्रा संतुलन बुरी तरह लड़खड़ा गया था। कोष लगभग खाली हो गया। बाद में अकाल, महामारी, प्राकृतिक विपदाएँ और भुखमरी जैसी स्थितियाँ व्याप गईं। उन विपदाओं से देश लंबे समय बाद उबर सका। दूसरे देशों की भी लगभग यही स्थिति थी।

शनि, केतु या राहु की विशिष्ट स्थिति बड़ी आपदाएँ लाती रही हैं। आचार्य बाराहमिहिर ने भारत का लग्न ‘मकर’ स्थिर किया है। उस आधार पर किया गया अध्ययन लगभग सही निष्कर्षों पर पहुँचता हैं। शनि केतु की युति हो तो रहा सातवें स्थान पर होता है और शनि-राहु की युति हो तो केतु सातवें स्थान पर होता है। दोनों स्थितियों में अप्रत्याशित घटनाएँ घटती हैं। श्री राव का प्रतिपादन है कि शनि के अलावा मंगल और राहु-केतु के योग भारत की नियति तय करते रहे हैं। ईसा से ३२७ साल पहले भारत पर हमला हुआ हो या बाद के वर्षों में गजनी-गौरी के आक्रमण, शनि-मंगल केंद्र में रहे हैं। राहु-केतु भी उस समय मिलकर योग बनाते थे।

महमूद गजनबी ने २७ नवंबर १०१७ को भारत पर हमला किया। उस दिन शनि और राहु करीब एक ही अंशों में स्थित थे। लग्न में स्थित दोनों ग्रह जब द्वि-स्वभाव राशि मिथुन में थे, तब सोमनाथ मंदिर का ध्वंस हुआ। १३९८ में तैमूर का हमला हुआ। १५२३ में पानीपत की पहली और नवंबर १५५६ में दूसरी लड़ाई के समय शनि पापग्रहों के साथ करीब समान अंशों में स्थित था। विश्वविजय पंचांग के संस्थापक-आदि संपादक पंडित हरदेव शर्मा का मानना था कि मंगल और राहु की युति दिल्ली सिंहासन हिलाती-डुलाती रही है। इस संदर्भ में अगस्त १९४२ का उदाहरण दिया जाता हैं उस दिन सुबह दस बजे मंगल और राहु सिंह राशि में लगभग समान अंशों पर थे। यह ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत की तिथि है। इसी आंदोलन ने ब्रिटिश राज की विदाई का आधार तैयार किया। जुलाई ९७ में मोरारजी देसाई की सरकार गिरी। तब राहु शनि के साथ सिंह राशि में स्थित था। २३ जून १९८० को मंगल और शनि सिंह राशि में थे। तब सरकार तो नहीं गिरी, लेकिन विमान दुर्घटना में संजय गाँधी की मौत के बाद भारत की राजनीति का स्वरूप एकदम भिन्न हो गया।

भारत ही नहीं दुनिया की नियति समझने में भी शनि और राहु केतु का संदर्भ उपयोगी है। ९ अगस्त १९४५ को नागासाकी और ६ अगस्त १९४५ को हिरोशिमा में गिराए गए बम के समय शनि और राहु गिराए बम के समय शनि और राहु साथ बैठे थे। पहला विश्वयुद्ध २८ जून १९१४ ई. को शुरू हुआ। उस समय शनि के साथ केतु योग बना रहा था। इन तथ्यों के आधार पर श्री राव ने कहा है कि ९ जनवरी ९७ को सुबह साढ़े पाँच बजे एक अलग तरह का अष्टग्रही योग बनता है। उस समय बृहस्पति को छोड़कर सभी ग्रह केंद्र में स्थित थे। लगन में शुक्र, मंगल, सूर्य और चंद्रमा के बाद चौथे भाव में केतु, शनि और दशम भाव में राहु स्थित थे। इसके बाद के वर्ष उथल-पुथल लाने वाले माने गए। पाँच वर्ष तक विपदा और विग्रह का दौर बताया गया। अभी ढाई साल बीते हैं। इन वर्षों में तीन बड़े-बड़े भूकंप, सात बड़ी लड़ाइयाँ और सामूहिक हिंसा की बारह घटनाएँ हुईं। भूकंपों में बलूचिस्तान, ईरान, उत्तराखण्ड (भारत) में आए भूकंपों में जान-माल की भारी क्षति हुई। अभी उत्तरार्द्ध शेष है।

स्थितियाँ यही नहीं रहेंगी। अंधकार छटेगा एवं १४ मई २००२ के बाद परिवर्तन-प्रक्रिया का दूसरा आयाम शुरू होगा। इसमें सृजन, उत्साह और शुभ की प्रधानता होगी। उस दिन छह ग्रह एक साथ वृष राशि में होंगे। बुध, चंद्रमा, शनि, राहु, मंगल और शुक्र का यह योग अतीत में भी सुखद परिणाम प्रस्तुत करता रहा है। विभिन्न उदाहरणों से यह सिद्ध किया गया है और श्री राव का कहना है कि उसके बाद की दुनिया अब से श्रेष्ठतर होगी। सच्चाई, कर्तव्यनिष्ठा, त्याग, उदारता और व्यापक हितों को महत्व देने वाली प्रवृत्तियों को बल मिलेगा। उनके लिए अनुकूल स्थितियाँ बनेंगी। आदर्शों को अपनाने वाले लोग नासमझ और अयोग्य नहीं कहे जाएँगे। उन्हें अनुकरणीय समझा जाएगा और वैभव नहीं सद्गुण व्यक्ति की प्रतिष्ठा के आधार बनेंगे। भारत के संदर्भ में राजनैतिक स्थिरता और सामाजिक सौहार्द्र के भाव भी प्रबल होंगे। अब जैसा अनिश्चय और धुँधलापन तो नहीं ही दिखाई देगा। उन श्रेयस्कर स्थितियों की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। कभी मन को निराश न होने देकर उज्ज्वल भविष्य से भरी इक्कीसवीं सदी हेतु साधनात्मक पुरुषार्थ में जुटे रहना चाहिए।


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