सफलता का एक ही सूत्र नियमितता

September 1999

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कहा जाता है कि भगवान अपने कार्य में हाथ बटाने के लिये मनुष्य को वरिष्ठ राजकुमार के रूप में एक सुनिश्चित आयु व गिनी हुई साँसें देकर इस धरती पर भेजता है। अतः हमारे जीवन का एक एक पल बहुमूल्य है। इतने पर भी हम इस तथ्य से अनजान बने रहते हैं कि हमारी साँसें गिनी हुई हैं। एक श्वास के साथ ही जीवन की इस अमूल्य निधि की एक इकाई कम हो जाती है। चिकित्साविज्ञानी जानते हैं कि एक स्वस्थ व्यक्ति सामान्यतः एक मिनट में लगभग तीस बार श्वास प्रश्वास लेता है। इस हिसाब से वह एक घण्टे में १७०० बार तथा चौबीस घण्टे में ४३ २०० तक, एक माह में १२ १६००० बार एवं एक वर्ष में १ ५५५२३००० बार साँसें लेता है। अब यदि मनुष्य की औसत क्षमता आयु ७० वर्ष मान ली जाये तो उसे जीवन में प्रकृति प्रदत्त १०८८६४०००० अर्थात् एक अरब ८ करोड़ ४६ लाख ४००० साँसें ही मिली हुई हैं। इनमें से यदि एक एक इकाइयाँ ही कम होती जायें तो जीवन की पूंजी एक दिन चुक जाती है उस समय यमराज के मृत्युदूत कालपाश लेकर लेने आ जाते हैं। इसके साथ साथ व्यक्ति पीछे मुड़कर देखता है तो उसे ज्ञात हो जाता है कि उसने कितनी बेदर्दी से साँसों को खर्च किया और समय को गँवाया है या उसके एक एक कण व एक एक क्षण का सदुपयोग किया है। यों तो हर रोज यह सभी देखते और समझते हैं कि प्राची में सुर्योदय उदय हुआ और पश्चिम में अस्त हो गया और इस तरह एक दिन समाप्त हो गया। लेकिन कितने लोग हैं जो यह जानने का गम्भीरतापूर्वक प्रयत्न करते हैं कि लो आज हमारी आयु में से एक दिन कम हो गया है। आज हमारी ४३२०० साँसें किस कार्य में खर्च हो गई। समय तो अपनी गति से चल रहा है। चल ही नहीं तीव्र गति से भाग रहा है। हमारी साँसें भी खर्च हो रही हैं। निरंतर गतिमान इस समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने पर ही जीवन की सार्थकता है। इसके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलने वाले व्यक्ति पिछड़ जाता है और पिछड़ना सफलता से दूर हटना है, उसकी ओर गतिशील होना नहीं। धन सम्पदा का, विद्या-प्रतिभा का रोना सभी को रोते देखा जाता है। कोई धन के अभाव में दुखी है तो किसी के पास ज्ञान नहीं, विद्या नहीं, प्रतिभा नहीं। उसके लिये वह सिर पीट रहा है। समझ में नहीं आता कि वह कौन से जामवंत की प्रतीक्षा कर रहा है जब वह उसकी सामर्थ्य का बोध कराएँगे और तब वह हनुमान अपने सामर्थ्य को समझेंगे तथा एक छलाँग मारकर लंका पहुँच जायेंगे। विश्व की संपदाएँ, विश्व का ज्ञान तथा दिव्य आध्यात्मिक शक्तियाँ तो उनकी बाट जोह रहा है। समय जैसी मूल्यवान संपदा का भंडार भरा होते हुए भी जो नियोजन कर धन, प्रतिभा तथा लोकहित को नहीं पा सकते उनसे अधिक अज्ञानी किसे कहा जाए। समय अमूल्य है। समय को जिसने बिना सोचे समझे खर्च कर दिया वह जीवनपूंजी भी यों ही गंवा देता है। साँसों की तरह यह पूंजी भी अपने पास खर्च होती है। हम कृपण बनकर भी उसे सोने चाँदी के सिक्कों की तरह जोड़कर नहीं रख सकते। यह गतिमान है। हम अपनी अन्य सम्पदाओं की तरह उस पर अधिकार जमा नहीं सकते। हमारा उस पर स्वामित्व वहीं तक है कि हम उसका सदुपयोग कर लें। वस्तुतः जिस व्यक्ति में समय को खर्च करने की, उसका सदुपयोग करने की सामर्थ्य नहीं होती है तो समय ही उसे खर्च कर देता है। दिन रात के चौबीस घण्टे कम नहीं होते। उस समय को हम किस प्रकार व्यतीत करते हैं, यदि उसका लेखा-जोखा करते चलें तो हमें ज्ञात हो जाता है कि हम जी रहे हैं या समय को व्यर्थ गँवाकर एक प्रकार से जीवन की इतिश्री कर रहे हैं। उदाहरण के लिये विद्यार्थी जीवन को ही लिया जाये तो अमूमन यह काल २५ वर्ष का माना जाता है। इस अवधि में हम इस प्रकृति प्रदत्त धरोहर का कितना सदुपयोग कर पाते है यदि इसका लेखा-जोखा लिया जाये तो पता चलेगा कि मुश्किल से ९-१० वर्षों का ही हम सदुपयोग कर पाये। क्योंकि बचपन में इतना ज्ञान नहीं होता कि हम इसका मूल्य समझे। अतः पाँच वर्ष तक खेल-कूद तथा मित्रों व भाई बहनों के झुंड के साथ यों ही इस समय को लुटा देते हैं। अब बचे २० वर्ष। इसमें यदि सोने का समय ८ घण्टे प्रतिदिन मान लिया जाये अर्थात् १० बजे रात्रि में सोकर ६ बजे सुबह उठने का क्रम निर्धारित कर लिया जाये तो ८ घण्टे के प्रतिदिन के हिसाब से १ माह में २४० घण्टे और एक साल में २१२० घण्टे अर्थात् लगभग साढ़े चार महीने होते हैं। इस तरह २० वर्ष में ८ माह तो नींद में निकल जाता है। नित्य नैमित्तिक दैनिक कार्यों जैसे शौच, स्नान दोनों समय भोजन, स्कूल-कॉलेज आने जाने आदि अनिवार्य दैनिक कार्यों में कुल मिला कर चार घण्टे तथा अन्य फुटकर कामों के लिये अतिरिक्त एक घण्टा मान ले तो कुल मिला कर पाँच घण्टे होते हैं। पाँच घण्टे प्रतिदिन के हिसाब से एक माह में १५० घण्टे, एक वर्ष में १८०० घण्टे अर्थात् २ माह १५ दिन एवं २० वर्ष में लगभग चार वर्ष दो माह दैनिक कामों में खर्च हो गये। इस तरह मोटे हिसाब से २० वर्ष के जीवन काल में १० माह खर्च हो जाने पर सार्थक कार्यों के लिये मात्र एक वर्ष। इसमें से भी यदि खेलकूद सिनेमा आदि मनोरंजन अवसर को भी यदि निकाल दिया जाये तो फिर कितना समय बचेगा। शायद ही अंदाजा लगाया जा सकता है। २० वर्ष की आयु से हर नौजवान को दाढ़ी बनाने कि आवश्यकता पड़ती है। ७० वर्ष तक की प्राप्त आयु से व्यक्ति को यदि प्रतिदिन ३० मिनट दाढ़ी बनाने में खर्च कर दे तो ५० वर्ष में कुल मिलाकर १००० घण्टे अर्थात् ३६५ दिन हो जाता है। इस तरह हमारे जीवन का अधिकाँश समय दैनिक जीवन के कार्यों में व्यर्थ हो जाता है। मनुष्य को युवावस्था ईश्वर प्रदत्त समय के बहुमूल्य वरदान के रूप में मिलती है। यह वह सामर्थ्य होती है जिसे यदि अधिक समय तक स्थाई बनाया जा सके तो तन से- मन से बूढ़े ना हो जाएँ तो गिनी हुई साँसों के इस जीवन में हम बहुत काम कर सकते हैं। उदाहरण के लिये यदि हम प्रतिदिन एक घण्टा एकाग्रता के साथ २० पृष्ठ भी पढ़े तो महीने में ६०० और साल भर में ७२०० पृष्ठों का अध्ययन कर सकते हैं। उसी तरह से यदि नियमित रूप से १५ वर्ष तक पढ़ते रहे तो यह पृष्ठ संख्या पढ़ कर १८००००० हो जाती है। इतने अधिक पृष्ठों में कितने ही विविध विषयों की पुस्तकें समाहित हो जाती हैं। यदि एक ही विषय रखा गया हो तो वह भारी भरकम 'एनसाइक्लोपीडिया' बन जाता है और पढ़ने वाला उसका विशेषज्ञ। मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी समय है। यदि उससे खर्च करना सीख लिया जाए तो बहुमूल्य सफलता भी खरादी जा सकती है। निश्चय ही जिन व्यक्तियों ने समय के मूल्य को समझा और अपने जीवन के एक एक क्षण का, एक एक श्वास का सदुपयोग किया, उनकी गणना महामानव में हुई। इतिहास के पन्ने ऐसे ही महामानवों की जीवनगाथाओं से भरे पड़े हैं। उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम जोरों पर चल रहा था। गाँधी जी का अहिंसात्मक आंदोलन आँधी की तरह देशव्यापी रूप में चल रहा था, किन्तु महाराष्ट्र में लोक मान्य बालगंगाधर तिलक के नेतृत्व मे उसकी तीव्रता कुछ अधिक ही तेज था। अँग्रेजी सरकार ने उन्हें वर्मा की मांडले जेल में नजर बन्द कर दिया। इस स्थिति में जनसम्पर्क तो नहीं हो पाता था, अतः एकान्त समय का अच्छे से अच्छा उपयोग करने के लिये उन्हें "श्रीमद भागवत गीता का रहस्य" की रचना कर डाली। लगभग ९सौ पृष्ठ के इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का लेखन बर्मा की मांडले जेल में २ नवम्बर सन १९१० से आरम्भ करके ३० मार्च सन १९११ के दिन अर्थात् ५ माह में पुरा करके गीता पर एक अनुपम कृति विश्व को प्रदान की। इसी तरह केसरी अख़बार सम्पादन में जो थोड़ा बहुत समय बच जाता, उस बीच उन्होंने भारत के प्राचीन वैदिक गौरव को विश्व के सामने प्रस्तुत करने के उद्देश्य से "द ओरियन" अर्थात् "वेदकाल का निर्णय" नामक ग्रन्थ की रचना की। वस्तुतः समय एवं श्रम का समुचित सदुपयोग किया जा सके, तो किसी भी दिशा में व्यक्ति शानदार सफलता प्राप्त कर सकता है। समय श्रम तथा विचारों का महत्व समझने वाले कितने ही व्यक्तियों ने जेल के घुटन भरे अंधकारपूर्ण जीवन में साहित्य, ज्ञान व विज्ञान के क्षेत्र को प्रकाशित किया है। जर्मनी के जाइगोर नामक एक नवयुवक की कहानी कुछ इसी प्रकार है। किसी अपराध में वह पकड़ा गया और कारागार में डाल दिया गया। जेल की उस एकांत कोठरी में रहते हुए उसने उस समय का उपयोग अध्ययन-मनन में किया और कालांतर में एक सफल लेखक बना। जेल अधिकारियों ने उसकी लगन और श्रमशीलता को देखकर सुविधाएँ प्रदान कीं। कुछ समय पश्चात उसकी प्रथम साहित्यिक रचना-दी फोट्रेस’ प्रकाशित हुई और जर्मनी में काफी लोकप्रिय हुई। जेल में बंद मुलजिम जाइगोर समय के सदुपयोग एवं अपनी श्रमनिष्ठा से साहित्य जगत का सिरमौर बन गया।

बंगाल केमिकल के संस्थापक पी.सी. राय का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। विरासत में उन्हें श्रमनिष्ठा, बुद्धि, चातुर्य एवं समय की महत्ता मिली थी। पारिवारिक उत्तरदायित्वों व कार्यों में पूरा सहयोग करते हुए भी वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सफल हुए। उन्होंने समय के एक एक क्षण का सही सदुपयोग करने का व्रत ले रखा था। कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्राध्यापक पद पर रहते हुए अध्यापन करने के साथ ही साथ गाँधी जी के खादी प्रचार का कार्य भी करते थे। इतना सब करते हुए भी जो थोड़ा समय बचता, उसमें उन्होंने विश्वविख्यात ग्रंथ-हिंदू केमिस्ट्री” की रचना की और अमर हो गए।

सामान्यक्रम में देखते देखते जिंदगी के कितने वर्ष ऐसे ही हँसते-हँसाते रोते-कलपते व्यतीत हो जाते हैं और शरीरयात्रा पूरी करने के अतिरिक्त कोई और महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो पाता। किंतु यदि दिनचर्या बनाकर समय के एक-एक क्षण का ठीक तरह से उपयोग करने का क्रम बना लिया जाए, तो मनचाही दिशा में कितनी बड़ी प्रगति संभव हो जाती है। यदि कोई व्यक्ति एक घंटे का समय अध्ययन में लगाएँ तो कुछ ही दिनों में किसी भी विषय में प्रवीणता प्राप्त कर सकता है। जर्मनी के सुप्रसिद्ध विद्वान एंडरसन ने नित्य एक घंटा अन्य भाषाओं के सीखने के लिए निश्चित किया और नियमपूर्वक उसका निर्वाह करते हुए तीस वर्ष में संसार की प्रमुख भाषाओं के अधिकारी विद्वान बन गए।

अपने देश के महान संत बिनोवा भावे २३ भाषाओं के विद्वान थे। यह ज्ञान उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम में से थोड़ा समय ज्ञानसंपादन के लिए नियमित रूप से लगाकर पाया था। जीवन के अंतिम समय वे चीनी भाषा सीख रहे थे।

एडवर्ड बटलर लिटन के साठवें ग्रंथ के प्रकाशन पर एक मित्र ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए उनसे पूछा-महाशय आप राजनीति और पार्लियामेंट के कार्यों में इतने व्यस्त रहते हुए भी साहित्यिक रचनाएँ कैसे कर लेते हैं? मुसकराते हुए लिटन ने कहा-मैंने तीन घंटे का समय पढ़ने और लिखने के लिए नियत किया है। बस इस थोड़े, किंतु नियमित समय ने मुझे हजारों पुस्तकों को पढ़ डालने और अनेक ग्रंथों के प्रणयन करने का सौभाग्य प्रदान किया।

इस विश्वमंच पर उन्नति की महत्त्वाकाँक्षा रखने वाले हर व्यक्ति ने समय-संपदा के महत्त्व को जाना और लाभ उठाया है। समय के एक छोटे-से-छोटे घटक का भी कितना महत्त्व है, वह इस घटना को पढ़कर जाना जा सकता है। चाय बनाने के लिए उबलते पानी के लिए इंतजार करने में जितना समय लगता है, इस छोटी-सी अवधि में लाँगफेलो ने ‘इनफरलो’ नामक ग्रंथ का अनुवाद करना शुरू किया। नित्य इस कार्य को करते हुए कुछ ही दिन में ग्रंथ का अनुवाद पूरा हो गया। इसी तरह मोजार्ट ने समय के हर क्षण का उपयोग करना जीवन का आदर्श बना लिया था। बीमारी की अवस्था में मौत से संघर्ष करते हुए भी उसने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रैक्यूम’ की रचना कर डाली। ब्रिटिश कॉमनवेल्थ और प्रोटेक्टरेट के मंत्रीपद की जिम्मेदारी वहन करते हुए मिल्टन को जो भी समय खाली मिलता, उसमें उन्होंने ‘पैराडाइस लास्ट’ नामक विश्वविख्यात काव्यसंग्रह की रचना कर डाली। नियमितता की आदत मनुष्य को प्रगति के शिखर पर पहुँचा देती है।

समय को, जिस पर सर्वसाधारण कुछ भी ध्यान नहीं देते, उसी समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग करके लोगों ने अनेकों महत्त्वपूर्ण कार्य कर दिखाए। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के जाने-माने गणितज्ञ-चार्ल्स फास्ट ने प्रतिदिन एक घंटा गणित के अभ्यास में लगाया और उनका यह क्रम जीवनपर्यन्त चलता रहा। परिणामस्वरूप वे गणित के प्रख्यात आचार्य बन गए। हैनरी ह्वाइट ब्रिटिश सेना में चिकित्सक थे। वे अपने घर से कार्यालय पैदल आया-जाया करते थे। इस आने-जाने के समय का नियमित उपयोग करके उन्होंने ग्रीक, इटालियन, फ्रेंच जैसी अनेक भाषाएँ सीख ली थीं।

मनस्वी दूरदर्शी होते हैं और विवेकवान भी। वे जो निर्णय करते हैं, उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहते हैं। आवश्यक साधन जुटाने के लिए वे सूझबूझ का पूरा प्रयोग करते और समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग करके अपने संकल्पों को पूरा करते हैं। विश्वविख्यात खगोलशास्त्री एरिग्मे की कहानी कुछ ऐसी ही है।

एरिग्मे एक पुस्तक विक्रेता की दुकान पर फटी-पुरानी पुस्तकों पर जिल्द चढ़ाने का काम करते थे। उसी मेहनत-मजूरी से वे अपना व अपने परिवारजनों का भरण-पोषण करते थे। रात्रि में वे उसी दुकान के बाहर बने बरामदे के धुँधले उजाले में अध्ययन करते। जब तक वे उस दुकान में कार्यरत रहे, उनका अध्ययन नियमित रूप से चलता रहा। समय के सदुपयोग, लगन व मेहनत की त्रिवेणी ने अपना रंग दिखाया और एक दिन वे विश्वप्रसिद्ध खगोलवेत्ता और विविध विषयों के प्रकाण्ड विद्वान बन गए।

प्रकृति ने किसी को गरीब-अमीर या विद्वान-मूढ़ नहीं बनाया। उसने तो सबको मुक्तहस्त अपना अमूल्य वैभव लुटाया है। श्रम करने की सामर्थ्य तथा समय का अनुदान-इन दो अस्त्रों से सुसज्जित करके उसने अपने राजकुमारों को जीवन के समरांगण में मस्तक पर तिलक लगाकर विजयश्री वरण करने के लिए ही भेजा है।

समय-संपदा धन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिए विवेकशील व्यक्ति उसका भी उसी प्रकार बजट बनाते हैं-समय-सारणी बनाते हैं, जैसा कि कोई समझदार व्यक्ति बजट बनाकर पैसे-पैसे का हिसाब रखता और आवश्यकतानुसार खर्च करता है। दिन भर के चौबीस घंटों में किस समय से किस समय तक क्या-क्या काम होंगे, इस प्रकार का टाइम–टेबुल बनाकर उस पर चलने से समय का सदुपयोग तो होता ही है, गुणात्मक रूप से भी काम अधिक और अच्छा होता है। साथ ही जीवन में सरसता बनी रहती है। जो उसका विभाजन नहीं करते, वे दिन भर कोल्हू के बैल की तरह लगे भले ही रहें, कम ही काम कर पाते हैं और परिणामस्वरूप खीज़, मानसिक थकान, अरुचि व निराशा ही हाथ लगती है। समय का विभाजन हो जाने से काम करने तथा विश्राम करने में सामंजस्य बना रहता है।

मनुष्य का जीवनकाल ईश्वर ने निर्धारित करके उसे गिनी हुई साँसें प्रदान की हैं। अपनी इस अमूल्य संपदाओं-समय और श्वास की महत्ता को समझकर विवेकपूर्ण ढंग से खर्च करके हम अपने जीवन की उसी तरह सफल और सार्थक बना सकते हैं जिस प्रकार महामानवों ने इनका सदुपयोग करके अपने का धन्य बनाया। उनके पदचिह्न आज भी हमारा पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं, जिन पर चलकर हम अपना ही नहीं, समाज का भी उद्धार कर सकते हैं।


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