सद्ज्ञान विस्तार का पुण्य-परमार्थ (Kahani)

September 1999

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आद्रिक मुनि ने वसंतपुर के एक विद्वान की कन्या से इस शर्त पर विवाह किया कि जब तक पुत्र उत्पन्न न होगा तब तक वे गृहस्थ रहेंगे। बाद में संन्यास ले लेंगे। पुत्र उत्पन्न हुआ। माता ने अपने गुजारे के लिए सूत कातने का अभ्यास किया। एक दिन पुत्र ने माता से चरखे का सूत लेकर पिता की बीस परिक्रमा की और कच्चे सूत से बाँध दिया। साथ ही कहा-मुझे स्वावलंबी मुनि ने सूत के कच्चे धागे को कर्तव्य का प्रतीक माना और संन्यास की अपेक्षा कर्तव्यपालन को श्रेष्ठ मानकर उनने वन जाने का विचार छोड़ दिया।

नारद जी कलियुग का क्रम देखते हुए, एक बार वृंदावन पहुँचे। देखा, एक युवती के पास दो पुरुष मूर्च्छित पड़े हैं। दुखी युवती ने नारद जी को बुलाया पूछने पर बतलाया-मैं शक्ति हूँ। मेरे ये दो पुत्र ज्ञान और वैराग्य असमय में वृद्ध हो गए और मूर्च्छित पड़े हैं। इनकी मूर्च्छा दूर करें, तो मेरा दुख दूर हो। नारद जी ने उनकी मूर्च्छा दूर करने का प्रयास किया। वेदादि के पाठ से सामान्य हलचल शरीरों में हुई, पर मूर्च्छा नहीं टूटी। नारद जी दुखी होकर प्रार्थना करने लगे। आकाशवाणी हुई-हे नारद! आपका प्रयास उत्तम है, किंतु मात्र वेदपाठ से इनकी मूर्च्छा दूर नहीं होगी, संतों से परामर्श करके कुछ सत्कर्म करो, तो ज्ञान-वैराग्य भी प्रतिष्ठापित हों।

नारद जी ने तमाम संतों से पूछा-क्या सत्कर्म करें, जिनसे इनकी मूर्च्छा टूटे। कहीं समाधान न मिला। अंत में बदरी विशाल क्षेत्र में सनकादिक मुनियों से भेंट हुई। उन्होंने सारी बातें सुनी और कहा- आपकी भावना दिव्य है। कलि के प्रभाव से मूर्च्छित ज्ञान-वैराग्य की मूर्च्छा दूर करने के लिए ज्ञानयज्ञ ही एकमात्र ऐसा सत्कर्म है, जिसका प्रभाव निश्चित रूप से होगा। ज्ञानयज्ञ के लिए वेदादि का उपयोग भी ठीक है, पर वह कलि में बोधगम्य नहीं होने से उसका प्रभाव कम होता है, अतः आप कथा माध्यम से ज्ञानयज्ञ करें, वह निश्चित रूप से सफल होगा।

नारद जी सनत्कुमारों के साथ गंगा के किनारे आनंदवन में गए। वहाँ पवित्र वातावरण में उन्होंने यज्ञ का कथा-दृष्टांत के माध्यम से धर्मधारणा के विस्तार हेतु शिक्षण का शुभारंभ किया। उनकी इस सक्रियता से और ऋषियों को भी प्रेरणा मिली एवं उन्होंने भी सद्ज्ञान विस्तार का पुण्य-परमार्थ करने का निश्चय किया।


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