मतदाता अपने अधिकार का उपयोग विवेक से करें

September 1999

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चुनावयज्ञ में मतदाता का उत्साहपूर्वक निकलना और मतदान में हिस्सा लेना ही पर्याप्त नहीं है। यह प्रारंभिक पक्ष है। अनुष्ठान का शेष अंश ज्यादा महत्त्वपूर्ण है और वह गहरी समझ के साथ किए गए निर्णय पर निर्भर करता है। जिन दिनों लोग विरासत में या बलप्रयोग से, हिंसा की शक्ति द्वारा सत्ता पर अधिकार कर लिया करते थे, उन दिनों की बसत और है। वे दिन अब इतिहास का विषय बन गए। कई देशों में आज भी राजतंत्र या सैन्य-तंत्र प्रचलित है। उन देशों को पिछड़े युग का समझा जाता है। आधुनिक विश्व में उनका कोई सम्मानजनक स्थान नहीं है। लोकतंत्र इसी लिए सराहा और श्रेष्ठ समझा जाता है कि लोग स्वयं उसे चुनते और चलाते हैं। अगर गलत लोग चुन लिए जाते हैं, भले ही वे तिकड़म और फरेब से सफल होते हों, तो भी जिम्मेदारी मतदाता की अपनी ही होती है। मतदाता यदि अपना स्वामित्व नहीं समझे तो मानना चाहिए कि उस देश में पुरानी-पिछड़े युग की व्यवस्था ही चल रही है। लोकतंत्र नाम भले ही, वस्तुतः वह है नहीं।

तिकड़म, फरेब, बाहुबल और हिंसा के सहारे लोग सत्ता में पहुँचते हैं तो वह व्यवस्था सभ्य और उन्नत नहीं कही जा सकता। पिछले दिनों भारतीय व्यवस्था में इस प्रवृत्ति ने बल पकड़ा है। स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव रहने तक तो लगता था कि लोग विचार, व्यक्ति और कार्यक्रमों को वोट देते हैं। करीब तीस वर्षों तक साफ दिखाई देता था कि मतदाता एक भावबोध से प्रेरित होकर मत देने आता था। वह बोध विभिन्न स्तरों का होता था, उनमें विरोध भी होता था, लेकिन एक अर्थ में वे सहज और स्वीकार्य भी होते थे, क्योंकि उनके माध्यम से समाज की चिंता झलकती थी। लोग किसी-न-किसी कसौटी पर राष्ट्र, समाज और क्षेत्र का हित सोचते थे, उस आधार पर मतदान करते थे, उससे पूरी तरह सही और खरे न सही, व्यावहारिक स्तर के भरोसेमंद और उत्तरदायी प्रतिनिधि चुनकर आते थे।

बाद के वर्षों में स्थितियाँ विषम होती गई। इतनी विषम कि आसुरी और पाशविक शक्तियों का सहारा लेकर ही लोग चुनाव में जीतने लगे। किसी समय भ्रष्ट साधनों से चुनाव जीतने का आरोप लगने भर से प्रतिनिधि का सिर लज्जा से झुक जाता था। वह अपने लिए दुनिया भर की सफाई देता और लोकसमाज में अपनी छवि औसत से बहुत ऊपर से स्तर की रखने और निभाने की कोशिश करता था। याद कीजिए वे दिन, जब एक मामूली रेल दुर्घटना से खिन्न होकर लालबहादुर शास्त्री ने रेलमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। यही नहीं, प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी अपने परिवार द्वारा विलासिता के साधन यथा एयरकंडीशनर प्रयोग करने पर उनने कड़ा कदम उठाया था, किंतु इन दिनों इस तरह की कामना भी नासमझी होगी। कोर्ट से चुनाव रद्द कर दिए जाने पर लोग न्याय का मुँह चिढ़ाते और उसकी आँखों में धूल झोंकने का उपक्रम रचते हैं।

बात यहीं तक सीमित नहीं। विभीषिका यहाँ तक पहुँच गई है कि अपराध जगत के नामी सरगना लोकतंत्र के मंदिर में डेरा जमाए रहते हैं। जिन लोगों के नाम गिरफ्तारी वारंट जारी हुए हैं, गिरफ्तार रहे हैं और संगीन मामलों में पुलिस को तलाश रहते हैं, वे येन-केन-प्रकार से चुनाव जीतकर राज करने लगते हैं। निश्चित ही सही, योग्य और ईमानदार लोग भी बड़ी संख्या में चुनाव जीतकर जन प्रतिनिधि संस्थाओं में पहुँचते हैं। वे संख्या में सत्तर-अस्सी प्रतिशत होंगे। इससे ज्यादा प्रतिशत भी हो सकता है। गलत तरीकों से गलत और अपराधी अतीत वाले लोग थोड़ी संख्या में भी सफल होते हैं, एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है, की तरह अंगुली पर गिने जाने लायक लोग भी यदि राजनेता बन जाते हैं, तो उससे व्यवस्था दूषित होती है।

यह बात मर्यादा और संकेत रूप में ही कही जा रही है कि आज अपराधी प्रवृत्ति के गिने-चुने लोग ही राजनेता बन पाते हैं। अपने आसपास दृष्टि दौड़ाकर स्वयं अनुभव किया जा सकता है कि इस तरह के लोगों की संख्या कम है या ज्यादा? स्थिति इतनी विषम भी दिखाई दे सकती है कि लोग प्रतिनिधि संस्थाओं में पहुँचकर भी अपराधी गतिविधियाँ चला रहे हैं। प्रश्न यह है कि गलत और अयोग्य लोगों के चुनाव जीतकर प्रतिनिधि संस्थाओं में पहुँच जाने के लिए उत्तरदायी कौन है? इसका उत्तर एक ही हो सकता है-मतदाता

व्यवस्था, चुनाव पद्धति, वोट की राजनीति और इसी तरह के दूसरे बहानों के आधार पर मतदाता अपने दायित्व से बच नहीं सकता। योग्य, कर्तव्यनिष्ठ और समाज के प्रति अपना दायित्व निभाने वाले लोग ही चुनाव जीत पाएँ, यह देखन मतदाता का काम है। मतदाता किसी भी कारण इस दायित्व से विमुख होता है तो उसका परिणाम उसे और पूरे देश-समाज को भुगतना पड़ता है। दायित्व से विमुख होने का अर्थ है-योग्य और सही मामले में जनप्रतिनिधित्व करने वाले प्रत्याशी को मत नहीं देना। उसके स्थान पर दूसरे कारणों से प्रेरित होकर जिस-तिस को वोट दे बैठना।

इन दिनों दूसरे कारणों और दबावों से वोट देने का प्रचलन ही बढ़ा है। इन कारणों से क्षेत्रीयता और जाति− वर्ग के नाम पर मतदान की प्रवृत्ति मुख्य है। बीस-पच्चीस साल पहले क्षेत्रीयता के आधार पर वोट देने का प्रचलन था। कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, उड़ीसा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीयता वोट संगठित करने का आधार बनी। उसकी अपील ने असर किया। आज इन सभी प्राँतों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व है। अखिल भारतीय स्तर की पार्टियों का अस्तित्व इन राज्यों में क्षीणप्राय है। क्षेत्रीय या भाषाई पार्टियाँ ही हावी हैं।

भारत विविधताओं से भरा देश है। एक राष्ट्र राज्य के रूप में यह संगठित नहीं हो सका। कम-से-कम गुप्त साम्राज्य के बाद से तो कभी नहीं। विभिन्न रीति-रिवाजों भाषाओं और बोलियों वाले इस देश में धार्मिक-साँस्कृतिक आधार से सिवाय एकता के कोई विशेष सूत्र नहीं है। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में राष्ट्रप्रेम का आधार बना और फैला। वह सुदृढ़ भी हुआ। क्षेत्रीय और भाषीय आग्रहों ने उस भाव को तोड़ा तो नहीं, प्राथमिकता क्रम में दूसरे स्थान पर जरूर ला दिया। राष्ट्रहित को दूसरे क्रम पर रखकर भाषा और क्षेत्र को ध्यान में रखकर वोट देने का चलन इसीलिए बढ़ा।

क्षेत्रीयता से भी ज्यादा हानिकारक या घातक भाव जाति और वर्ग का इन दिनों पनपा है। राष्ट्रीय हितों या क्षेत्र के विकास को दरकिनार कर जाति या वर्गविशेष के नाम पर वोट देने की अपील प्रायः सुनाई देती है। लोग अपनी जाति के प्रत्याशी को वोट देते हैं और लालच या भय के कारण वोट देते हैं। जाति-वर्ग के आधार पर नए-नए राजनैतिक दल भी बने, आदिवासी, अल्पसंख्यक, हरिजन, पिछड़े जैसे वर्गीकरणों को इन दलों ने वोट बैंक बनाया। उस आधार पर मिली छोटी-मोटी सफलताओं से सत्ता में हिस्सा बँटाने का दावा भी किया। राष्ट्रहित और सामूहिक हित की प्राथमिकता निचले क्रम पर चली गई तो क्षुद्र और संकीर्ण स्वार्थों का सिर उठाना ही था, उन्हें सफल होना ही था और वे सफल होने लगे।

चुनाव के दिनों में मतदाता की जरा-सी नासमझी कितने बड़े संकट को आमंत्रित करती है, यह हम आज की स्थिति में अनुभव कर सकते हैं। पिछले आठ सालों में चार चुनाव देश को देखने पड़े। हर दूसरे चुनाव में पाया कि जो प्रतिनिधि चुनकर आए हैं, वे पिछली सरकार से भी कम दिनों तक चलने वाले सदन के सदस्य रहे हैं। दलगत स्वार्थ या निजी राग-द्वेष समर्थन-विरोध का आधार बनते हैं, इसलिए जब भी तात्कालिक स्वार्थ बदलते हैं सदन भी चरमराने लगता है। केंद्र भी नहीं राज्यों की विधायिकाएँ भी इसी रोग का शिकार बनी हैं। वहाँ भी जाति-वर्ग संप्रदाय जैसे आधार पर चुने गए प्रतिनिधि आते हैं और पूरी या आधी अवधि चलने वाला सदन बनाते हैं। अल्प अवधि वाले सदन में भी दो-तीन बार सरकारें बनाते हैं।

आसन्न चुनावों में मतदाता को इस विवेक से अपने अधिकार का प्रयोग करना चाहिए कि पूरे समय चलने वाली सरकार चुने। उन उम्मीदवारों को वोट दें जो किसी भी निर्णय या प्रस्ताव को समर्थन देने से पहले व्यापक हित को सोचें। जिनके निजी और सार्वजनिक जीवन में ऐसे आक्षेप न लगे हों जो उन्हें अपराधी और भ्रष्ट सिद्ध करते हों या वैसा होने की शंका उत्पन्न करते हों, उनके चरित्र और स्थिति को संदिग्ध बताने वाले आरोप जिन लोगों पर लगे हों, वे जनप्रतिनिधि का दायित्व नहीं निभा सकते। कम-से-कम इसका नैतिक अधिकार तो इन्हें नहीं ही रह जाता था।

जागरूक मतदाता जब अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं, तो लोकतंत्र के नथुनों में शुद्ध-स्वच्छ प्राणवायु की काया में ऊर्जा और पवित्रता का संचार करते हैं। उस प्रयोग के बाद चुनकर आई सरकार ही लोक और समाज को विकास के पथ पर ले जाएगी। मताधिकार का प्रयोग विवेकपूर्वक नहीं किया गया तो विपत्ति विडंबना भी किस सीमा तक बढ़ेगी, कहा नहीं जा सकता। इस विभीषिका से लोकतंत्र को बचाना चाहिए। मतदाता को अपने अधिकार का विवेक के साथ प्रयोग करना चाहिए।


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