धरती को अकाल मृत्यु से बचाएँ

September 1999

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धरती को समूचे सौरमण्डल में विश्व-ब्रह्माण्ड में अनुपम स्थान प्राप्त है। यह उसके इर्द-गिर्द काम करने वाली शक्तियों एवं परिस्थितियों की ही परिणति है। यह विशेष उपलब्धियाँ यदि उसे प्राप्त न होती तो अंतरिक्ष में फैले हुए अनेकानेक निर्जीव, निस्तब्ध ग्रह-गोलकों में ही एक गणना उसकी भी होती और स्वर्ग से भी बढ़कर यह धरतीमाता, जिस पर अवतरण के लिए देवताओं से लेकर भगवान तक प्रयासरत रहते हैं, अपनी गरिमा कभी की खो बैठती। यद्यपि मनुष्य ने अनेकों तरह के दुष्कृत्य अपनाकर अपनी कृतघ्नता एवं धृष्टता का परिचय दिया है, फिर भी उस ममतामयी धरतीमाता को देखिए कि वह उसके हितसाधन के लिए अपनी विशिष्ट क्षमताओं का नियोजन सदा-सर्वदा से करती चली आ रही है। अपनी छाती फाड़कर सब कुछ लुटा देने वाली धरती के प्रति क्या हमारा कुछ भी कर्तव्य नहीं बनता कि हम उसके दर्द को समझें और समय रहते अपनी ही विनाशलीला को आमंत्रित करने से बचें।

जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसके बारे में अभी सामान्य स्तर की जानकारी ही प्राप्त कर पाए हैं। यों तो पृथ्वी का व्यास और परिधि का मापन हो चुका है, पर वह स्थिर नहीं है। वैज्ञानिक प्रयत्नों किया गया है या जो कुछ जाना गया है, वह अत्यंत स्वल्प है। नूतन अनुसंधानों से पता चलता है कि भूतत्व के संबंध में अब तक की हजारों वर्षों की जानकारी बहुत स्वल्प है। अभी इसके संबंध में बहुत कुछ जानना शेष है। मनुष्य की बौद्धिक ऊहापोह और यांत्रिक निरीक्षण भी पूरी तरह कामयाब नहीं हो पा रहे हैं।

यों तो धरती उछलती-कूदती नाचती −थिरकती अपनी मोद-विनोद भरी जीवनयात्रा पर अनवरत गति से चलती चली जा रही है, किंतु अपनी धुरी पर वह सर्वथा स्थिर नहीं है। उसके अक्ष और सिरे अपना स्थान बदलते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जब मनुष्य उसकी नैसर्गिक गतिविधियों से छेड़खानी करता है। उसके गर्भ में छिपे खनिज द्रव्यों, बहुमूल्य संपदाओं का अंधाधुन्ध दोहन करके उस रिक्त बना देता है, तो उस असहज वेदना एवं छटपटाहट से जो दृश्य उभरकर सामने आता है, वह अत्यंत भयावह और विनाशकारी होता है। पिछले दिनों विश्व में कई जगहों पर हुए ज्वालामुखी विस्फोटों एवं भूकंपों की श्रृंखला ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी अपना ध्रुवीय संतुलन खो बैठी है। ऐरीजोना में वैरोंजर ज्वालामुखी विस्फोट की घटना इस बात का प्रमाण है, जिसके कारण ध्रुवक्षेत्र में बर्फ पिघलने से भूगर्भ में भरा हुआ गर्म लावा फूट पड़ा था। इन प्राकृतिक विपदाओं-प्रकोपों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि पृथ्वी अपने निवासियों विशेषकर मनुष्य की करतूतों से रुष्ट हो गई है और अब वह उसे न केवल सबक सिखाना चाहती है, वरन् उसके अस्तित्व तक को मिटा देने पर उतारू हो गई है।

इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रीमैन डाइसन ने अपनी कृति ‘डिस्टर्बिंग दि यूनीवर्स’ में कहा है कि मानवी दुष्कृत्यों-उत्पादों के फलस्वरूप ही अंतर्ग्रही प्रतिक्रिया क्रुद्ध होकर अपना कुप्रभाव पृथ्वी पर छोड़ती है। उनके अनुसार मनुष्य इन दिनों वातावरण को-पर्यावरण को जिस तरह विभिन्न स्रोतों से विषाक्तता से भरता जा रहा है, वह स्वयं की विनाशलीला का एक प्रमुख उपक्रम है। जानते-समझते हुए भी हम इस अनर्थकारी प्रक्रिया को रोकने में असमर्थ बने हुए हैं। इसका प्रभाव अंतर्ग्रही परिस्थितियों पर पड़ता है। सामान्य परिस्थितियों में, प्राकृतिक अवस्था में जहाँ अनंत अंतरिक्ष से जीवनदायी प्राणपर्जन्य की वर्षा होती है, वहीं विद्रूप परिस्थितियों में आकाश-मंडल से आग के गोले बरसते हैं। पानी से स्थान पर विषैले रसायनों की बरसात होती है। एक ओर जहाँ पृथ्वी क्रमशः फूलती जा रही है, दूसरी ओर वहीं समुद्र सूखता जा रहा है। सर्वेक्षणकर्ता प्रक्रिया के साथ मानवी दुर्बुद्धि को भी दोषी ठहराया है।

पृथ्वी पर प्रतिवर्ष हजारों उल्कापिंड टूटकर गिरते हैं, जिनमें से दो-तिहाई समुद्र में समा जाते हैं। इनमें से अधिकाँश इतने छोटे होते हैं जिनकी तुलना धूलकणों से लेकर छोटे-मोटे कंकड़-पत्थरों से की जा सकती है। लेकिन कभी-कभी बड़े आकार के भारी उल्कापिंड भी धरती पर आ टपकते हैं, जिनसे जन-धन को भारी क्षति उठानी पड़ती है। डायनासोर जैसे भीमकाय प्राणियों के विलुप्त होने का मूल कारण इन प्राकृतिक विपत्तियों को माना जाता है।

धूमकेतुओं की विनाशलीला सर्वविदित है। सन १९०८ में साइबेरिया के तुँगुस्का क्षेत्र की ८०० वर्गमील की सरसब्ज भूमि को रेगिस्तान में परिवर्तित कर देने का प्रमुख कारण वैज्ञानिकों ने इन्हीं को माना है। खगोलज्ञों ने इन कणों को ‘कौमेटरी न्यूक्लियस’ नाम से संबोधित किया है। वस्तुतः इस प्रकार की विभीषिकाएँ पृथ्वी के साथ धूमकेतुओं के टकराने से उत्पन्न होती हैं। दुर्भिक्ष, बाढ़, भूकंप आदि इसी की दुष्परिणती है।

अन्वेषणकर्ता मूर्द्धन्य भूगर्भविदों ने पृथ्वी के दोनों ध्रुवों में हो रहे आकस्मिक परिवर्तनों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि मनुष्य को हिमयुग की स्थिति का सामना अब जल्दी ही करना पड़ सकता है। यदि ध्रुवों की परिवर्तनशीलता की गति इसी प्रकार से चलती रही तो पृथ्वी का अंत होने में ज्यादा विलंब नहीं समझना चाहिए।

अमेरिका के मूर्द्धन्य अभियंता डॉ. एडम बारबेर ने गाइरोस्कोप नामक यंत्र का निर्माण करके पृथ्वी की परिभ्रमणशीलता को मापने में पूर्णरूपेण सफलता पाई है। उनने ‘बारबेर साइंटिफिक फाउंडेशन’ नामक एक संस्था भी स्थापित की है। उनने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘द कमिंग डिजास्टर वर्स दैन द एच’ में पोल शिफ्ट अर्थात् ध्रुवीय विस्थापन के रहस्यमय तथ्यों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। अपनी उक्त पुस्तक में पृथ्वी के एक नहीं दो ग्रहपथ अर्थात् कक्षाओं के अस्तित्व के प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताया है कि छोटी कक्ष ५७ करोड़ मील और दूसरी बड़ी कक्षा १०० करोड़ मील की आँकी गई है। पृथ्वी जब अपनी धुरी पर सीधी घूमती है, तो उसकी दोनों कक्षाएँ समकोण पर सुनिश्चित अवधि में भ्रमणशील बनी रहती हैं। यदि अनायास ही उसकी धुरी १३५ डिग्री के अनुपात से खिसकना आरंभ करती है तो उत्तरी ध्रुव पर इसका प्रभाव पड़ता है और वह ९० डिग्री तक खिसकना आरंभ कर देता है। परिवर्तन की इस तात्कालिक प्रक्रिया को पूरा होने में मात्र डेढ़ घंटे का समय लगता है।

पृथ्वी का यह तात्कालिक परिवर्तन अब सन्निकट आता दृष्टिगोचर होने लगा है। लगभग ९००० वर्ष पूर्व एक ऐसा ही परिवर्तन हुआ था और परिणामस्वरूप भीषण प्राकृतिक विपत्तियाँ सामने आ खड़ी हुई थीं। उनके अनुसार गाइरोस्कोप के माध्यम से पृथ्वी की धुरी की गतिविधियों का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि अब इसका संतुलन गड़बड़ाने लगा है। २६ हजार वर्ष के परिभ्रमणकाल को पूरा करने के उपरांत अब पृथ्वी अपनी क्रियाशीलता और भू-चुंबकत्व को क्रमशः खोती जा रही है और अन्य ग्रह-गोलकों की भाँति शाँत और जड़वत् जीवनयापन करने की बात सोचने लगी है।

पृथ्वी की धुरी का चुंबकत्व ध्रुवप्रदेश की विशेषताओं के रूप में देखा जा सकता है। वहाँ से निस्सृत होने वाले चुंबकत्व का समूचे भूमंडल पर किस प्रकार बहुआयामी प्रभाव होता है, उसे देखकर ही इसकी क्षमता को, गरिमा को समझा जा सकता है। विनाश के कगार पर खड़ी धरतीमाता को कैसे बचाया जाए, इसके लिए दुनिया के मूर्द्धन्य वैज्ञानिक, दार्शनिक तथा अध्यात्मवेत्ता अपनी-अपनी तरह के प्रयत्न, उपाय-उपक्रम कर रहे हैं, फिर भी सफलता के आसार नजर नहीं आते।

पृथ्वी के ध्रुवीय विस्थापन के अनेकानेक कारणों में सबसे प्रमुख सूर्य द्वारा अपनी सहचरी पृथ्वी को जीवनोपयोगी परिस्थितियों के अनुदान में कटौती कर देने का है। इतना ही नहीं, वह प्रतिशोध स्वरूप हानिकारक विषैली गैसें व विकिरण छोड़ने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। ऐसी परिस्थितियों में पृथ्वी का भविष्य क्या होगा? इस संबंध में भिन्न-भिन्न तरह की विचारधाराएँ भिन्न-भिन्न समुदायों द्वारा समय-समय पर प्रस्तुत की जाती रही हैं। मिश्र के पिरामिडों में अंकित भविष्यकथनों को देखते हुए तो यही लगता है कि पृथ्वी अब प्रायः अस्त-व्यस्त एवं जर्जर स्थिति में पहुँचकर अपनी मौत की घड़ियाँ गिन रही है। उसकी रुग्ण स्थिति को देखकर कुछ नहीं कहा जा सकता कि वह कब दम तोड़ बैठेगी। मूर्द्धन्य मनीषी मदर शिप्टन के अनुसार इसकी क्रियाशीलता पर विराम लगने ही वाला है। यदि मनुष्य इसकी उपयोगी क्षमताओं की गरिमा को न समझकर अपनी विनाशकारी दुर्बुद्धि का परिचय ही देता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी अपने जीवन को समेट लेगी।

‘प्लेन ट्रुथ’ विश्व की प्रमुख पत्रिकाओं में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। उसके एक अंक में ‘प्रजेंट एज’ नामक शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि पृथ्वी अपने जीवनक्रम के ६००० वर्ष हँसते-हँसाते बिता चुकी है, किंतु अब वह विभिन्न प्रकार की आधि-व्याधियों से ग्रस्त होकर मरणासन्न स्थिति में जा पहुँची है और अपने पुत्रों की करतूतों को कोसती हुई मानों कह रही है कि वे कैसे कुपात्र निकले, जो प्रकृति-प्रदत्त जीवनोपयोगी परिस्थिति एवं चिरसंचित संपदा का सदुपयोग करने की क्षमता भी खोते जा रहे हैं।

इस संपदा और परिस्थिति को उपयुक्त बनाए रखने के लिए पृथ्वी अपने ढंग से प्रयास करती रहती है। वातावरण प्रदूषित होने पर वह वृक्ष-वनस्पतियों द्वारा उसे परिशोधित करती रहती है। अत्याधिक शीत एवं ताप से बचने के लिए सूर्य से उपयुक्त परिमाण में गर्मी प्राप्त करती है और घातक ब्रह्मांडीय किरणों से यहाँ के जीवन योग्य परिस्थितियों को सुरक्षित रखने के लिए अपने चारों ओर विभिन्न प्रकार के सुरक्षाकवचों का निर्माण करती है, ताकि यहाँ से स्वर्गीय वातावरण का लाभ मनुष्य एवं अन्य प्राणी ले सकें। परंतु इस अनुदान का प्रतिदान मनुष्य उसे पंगु बनाकर लेने पर अमादा है। यह नैतिकता एवं मानवी अस्तित्व-दोनों ही दृष्टि से अनुपयुक्त एवं आत्मघाती है। पृथ्वी एवं पर्यावरण की रक्षा में ही अपनी सुरक्षा है। इसे अकालमृत्यु से बचाया ही जाना चाहिए।


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