इन आकाशीय उत्पातों के संकेत समझें

September 1999

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अस्तित्व को चुनौती देते हुए गुजर जाने वाले संकट अपने पीछे एक अवसर छोड़ जाते हैं। वह अवसर आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन और आत्मबोध के क्षण होते हैं, उन क्षणों को जीआ जा सके तो चित्त में ध्यान और समाधि के फूल खिल उठते हैं। ‘विज्ञान भैरव’ तंत्र में इस तरह के कई अवसरों का उल्लेख है, जिसमें व्यक्ति अपनी आत्मचेतना के केंद्र में स्थिर होता है। संकट का सदुपयोग किया जाए तो बोध का एक सामान्य-सा भाव भी साधक की दिशाधारा मोड़ देता है।

पिछले डेढ़-दो वर्षों में हमारी पृथ्वी कई संकटों से गुजरी और सुरक्षित निकल आई। भूकंप, ज्वालामुखी, दावानल, बाढ़, सुखा, युद्ध जैसी विपदाएँ तो आती ही रहती हैं। उनसे जूझने के सरंजाम भी जुटाए जाते हैं, जो संकट पृथ्वी के अस्तित्व को चुनौती देते हुए निकल गए, वे आकाशीय थे। कम-से-कम दस घटनाएँ ऐसी घटी हैं, जिन्हें चेतावनी के तौर पर लिया जाना चाहिए। इनमें से कोई भी घटना अपना प्रभाव उत्पन्न कराती तो भारी संकट आ सकता था।

अगस्त १९९७ में पृथ्वी से बहुत दूर स्थित एक तारे से अज्ञात विकिरण निकला और पृथ्वी के वायुमंडल को वेधता चला गया। सूर्य हमारे लिए परिचित सबसे समीप तारा है। उससे निकलने वाला ऊर्जाप्रवाह पृथ्वी पर जीवन और निवास को संभव बनाता है। यह पृथ्वी से १४.९ करोड़ किलोमीटर दूर है। अंतरिक्ष में दूरी मापने के लिए जिस कालमान का उपयोग करते हैं वह ‘ प्रकाशवर्ष’ है। प्रकाशवर्ष के मानदंड से सूर्य पृथ्वी से साढ़े सात मिनट दूर है। इस स्पष्टीकरण से अज्ञात तारे की दूरी और सामर्थ्य का अनुमान लगाया जा सकता है। वह तारा पृथ्वी से करीब २० हजार प्रकाशवर्ष दूर है। उससे निकला विकिरण पृथ्वी के वायुमंडल से टकराया। विकिरण अपने में इतनी क्षमता समेटे हुआ था कि यदि उसे किसी तरह सँभालना संभव होता तो पृथ्वी की कई अरब साल की ऊर्जा आवश्यकताएँ पूरी हो सकती थीं।

एस. जी. आर. १९००/१४ नामक इस तारे से निकला ऊर्जाप्रवाह दिन के समय पृथ्वी को सूर्य से मिलने वाले प्रवाह के बराबर था। बीस हजार प्रकाशवर्ष की दूरी एक प्रकाशवर्ष भी कम हुई होती तो पृथ्वी पर जमी हुई बर्फ पिघलने लग सकती थी। समुद्र का जलस्तर बढ़ जाता और उस कारण पृथ्वी का कितना ही भूभाग उस बाढ़ में डूब जाता। समुद्र के तट पर बसे नगर तो कम-से-कम बर्बाद हो ही जाते। एक बड़े हिस्से में जलप्रलय की स्थिति आ जाती।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के कैविन हरले क अनुसार एस. जी. आर. तारे से निकली गामा और एक्स किरणें २७ अगस्त ९८ की रात को पृथ्वी के वायुमंडल से टकरायी। सात उपग्रहों ने इस टकराव को रिकार्ड किया। प्रवाह इतना प्रचंड था कि दो उपग्रहों को बंद कर दो पड़ा। यदि वे चालू रहते तो विकिरण उनके इलेक्ट्रानिक्स को नष्ट भ्रष्ट कर देता। आश्चर्य यह है कि उस प्रचंड प्रवाह को पृथ्वी के आयनमंडल का बचाव करने वाली परत पर ही रोक लिया गया। वहाँ हुई टक्कर ने वायुमंडल को नुकसान तो पहुँचाया, लेकिन पृथ्वी की सतह पर होने वाली क्षति टल गई।

१९९९ के अगस्त महीने में चालीस किलोमीटर लंबे एक क्षुद्रग्रह के पृथ्वी के आस-पास मँडराने लगने को भी एक दुर्घटना के रूप में देखा गया था। बर्फ और बिखरी चट्टानों के ढेर से बना यह ग्रह पृथ्वी के क्षेत्र में आ जाता तो किसी भी हिस्से में विनाश ला सकता था। वह आशंका टली और खगोलविदों को शोध-अनुसंधान की एक नई सीढ़ी हाथ लगी।

गए साल जून का महीना शुरू होते ही दो बड़े धूमकेतु सूर्य के पास पहुँचे। ये धूमकेतु ‘केयुरज सन ग्रेज’ जाति के थे जो आमतौर पर सूर्य के प्रभामंडल से ५० हजार किलोमीटर दूर घूमते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इन दो धूमकेतुओं को सूर्य के पास पहुँचते देखा। मान लिया गया कि सूर्य की सीमा में पहुँचने के बाद वे जलकर नष्ट हो गए। प्रकाश की एक तेज चमक कौंधी और थोड़ी ही देर में उनका दिखाई देना बंद हो गया। उनके विलीन होने के बाद सूर्य के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में तीव्र विस्फोट हुआ, यों सूर्य क्षेत्र में विस्फोट होते ही रहते हैं। उसकी समस्त ऊर्जा विस्फोटों से ही जागती और प्रक्षेपित होती हैं। लेकिन यह विस्फोट विलक्षण किस्म का था, जो सूर्य के उस भाग में घटी चुंबकीय प्रक्रिया के कारण हुआ था। जलती हुई आग के गोला-बारूद फेंक देने की तरह हुए इस विस्फोट का प्रभाव पृथ्वी और अन्य ग्रहों पर भी पड़ सकता था। उससे पृथ्वी का तापमान बढ़ सकता था। नए ऊर्जा प्रवाह रोग-बीमारियाँ ला सकते थे, फसलों को नुकसान पहुँचा सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

साल भर भी नहीं बीता होगा उस घटना को, जब भारत समेत तमाम एशियाई देशों में रात के तीसरे पहर लोग अपने घर की छतों पर खड़े होकर आसमान की ओर निहार रहे थे। वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की थी कि आसमान में आतिशबाजी होने वाली है। उस दिन पृथ्वी पर बड़ी संख्या में उल्काएँ बरसने वाली थीं। भारत में लोगों ने आधी रात के बाद आकाश को निहारते हुए रात बिताई। चीन से स्विट्जरलैंड और नार्वे तक कोई नहीं सो पाया। कहा गया था कि उल्काएँ पृथ्वी पर गिरकर जन-धन को क्षति भी पहुँचा सकती हैं। वैसा होना तो दूर रहा अनारदानों जैसी चिंगारियाँ भी कहीं नहीं दिखाई दीं। वैज्ञानिकों ने कहा था कि उल्कापात देखने के लिए चीन की दीवार के पास वाला क्षेत्र आदर्श स्थान है, लेकिन लोग वहाँ ठंड में ठिठुरते खड़े रहे और कुछ नहीं हुआ।

क्या हुआ? क्या अध्ययन-अनुसंधान के आधार पर किया गया अनुमान गलत निकला? नहीं! जापान में लोगों ने उल्कापात का आनंद लिया। उस दिन समुद्रतट हजारों परिवारों से अड़े पड़े थे। दूर सागर की लहरों पर आग के फूल बरसते देखे गए थे। थाइलैंड में भी उल्कापात हुआ। बाकी सभी जगह शाँति थी। निष्कर्ष गलत क्यों सिद्ध हुए? खगोलविदों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। अध्यात्मविद् ही कह सकते हैं-नाश की पूरी आशंका होते हुए भी रचयिता उसे टाल देता है। वह हस्तक्षेप किसी शुभ प्रयोजन के लिए ही होता है।

एक और आकाशीय घटना कुछ महीनों पहले घटी। अमेरिकी खगोलविदों ने पाया कि आकाशगंगा में कुछ आवारा तारे प्रवेश कर गए हैं और संदिग्ध अवस्था में चक्कर काट रहे हैं। किसी भी आकाशगंगा के सदस्य तारे परिवार के अनुशासन में बँधे रहते हैं और अपनी कक्षा में घूमते रहते हैं। खगोलज्ञों ने जिन तारों को विजातीय माना, वे अपनी ही नहीं मंदाकिनी की कक्षा से भी दस बार विचलित हुए। खगोलविदों को इन तारों का व्यवहार विचित्र लगा और वे मान रहे हैं कि ये किसी और मंदाकिनी से आए हैं।

इन आकाशीय घटनाओं के संदर्भ में विचार किया जाना चाहिए कि इनके पीछे नियंता का कोई निश्चित उद्देश्य है या ग्रह-उपग्रह या तारे ऊधम मचा रहे हैं। विश्वब्रह्माण्ड जिस व्यवस्था में चल रहा है, उसमें अपवाद की गुँजाइश नहीं के बराबर है। अपवाद यदि होते भी हैं तो वे एकाध ही होते हैं और पचास साल में दिखाई देते हैं-डेढ़-दो साल में जितनी घटनाएँ घटीं उनमें से प्रत्येक सौ-डेढ़ सौ साल के अंतराल से होती होंगी। कैनिन हरले के अनुसार पैंतीस-चालीस में एकाध आकाशीय अपवाद होते थे, किंतु अब मात्र दो साल में दस घटनाएँ निश्चय ही आश्चर्यजनक हैं।

जीव-जंतुओं की तरह ग्रह-नक्षत्र और तारे भी अपनी मौत मरते रहते हैं। उनके शव असीम आकाश में किसी कोने में फेंक दिए जाते हैं। उन्हें कोई पूछने नहीं जाता। जीते-जागते ग्रह-उपग्रह इस तरह की हरकत नहीं करते। उनकी मौत या विचलन को अकाल मृत्यु की कहा जाना चाहिए। इन घटनाओं को गंभीरता से नहीं लिया गया, लेकिन लिया जाना चाहिए। जीवन की क्षणभंगुरता से लेकर उसे लिप्सा-लोलुपता में ही नहीं खपा देने, मर्यादाओं में रहने, नीति-नियमों का पालन करने जैसी प्रेरणा उभरनी चाहिए। दुर्घटनाओं को ऐसे संकट के रूप में लेना चाहिए, जो मूर्त नहीं हुआ। सिर्फ छूकर निकल गया। उसके स्पर्श से आई कँपकँपी अंतर्जगत के प्रवेश का द्वार बने तो आने वाला समय उज्ज्वल-धवल मानना चाहिए।


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