एक विधवा का एक ही पुत्र था। उसके पालने-पोसने-पढ़ाने के उपरांत उसका विवाह भी कर दिया। सास बहू में पटरी न खाई। आए दिन लड़ाई रहने लगी। निदान बूढ़ी माँ ने घर छोड़ दिया और भिक्षा माँगकर पेट भरने लगी। बुढ़िया का क्रोधी स्वभाव तब भी ठंडा न पड़ा। एक विद्वान उस राह से निकले। उनसे वृद्धा ने इस कौतुक का कारण बताया और पुत्रवधू के कलह को धर्म की मृत्यु मानकर उसकी अंत्येष्टि करने के प्रयास का विवरण बताया। विद्वान ने समझाया-माता जी धर्म मरा नहीं है। आप अपने धर्म का पालन करें, पुत्रवधू से पुत्रवत् व्यवहार करें, धर्म फिर जीवित हो जाएगा। विद्वान वृद्धा को साथ लेकर उसके घर गया और सास-बहू दोनों को समझा दिया। वे प्रेमपूर्वक रहने लगीं और मरा धर्म जीवित हो गया।