मानव ने अपने प्रथम चिन्ह देवभूमि भारत में ही छोड़े

September 1999

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मानव है, तो कहीं उसकी उत्पत्ति भी हुई होगी। हाँ, यह सवाल जरूर है कि कहाँ पैदा हुआ और इतने विराट परिवार को विकसित करने में कैसे सफल हुआ? प्रथम मानव का धरती के किस स्थान पर आगमन हुआ, इस विषय पर अनेक मत हैं। पूर्वी जगत मनु को मनुष्य का पूर्वज मानता है, तो पाश्चात्य विज्ञान बंदर से मनुष्य के विकास को मान्यता प्रदान करता है। इस वैज्ञानिकों के अनुसार वानर से मानव विकास की यह यात्रा काफी धीमी गति से चलती रही है। नृतत्वविज्ञानियों के अनुसार, वानर से पूर्वमानव तक छह करोड़ वर्षों का दीर्घ समय लगा होगा। इन छह करोड़ वर्षों के समय को वे पाँच युगों में बाँटते हैं। १. पूर्व जीवकाल-१ करोड़ ७० लाख वर्ष। २. आदि जीवकाल-१ करोड़ २० लाख वर्ष। ३. अल्प जीवकाल-१ करोड़ २० लाख वर्ष। ४. मध्य जीवकाल-१ करोड़ ६० लाख वर्ष एवं ५. अति नूतनकाल-१ करोड़ १० लाख वर्ष।

कुछ विद्वानों का मत है कि अति नूतनकाल के अंतिम समय में ही मानव की विकासयात्रा प्रारंभ हुई होगी। मनीषी क्लेरी अलेक्सेवेव ने अपने अध्ययन मानवजाति की उत्पत्ति’ में इसका निर्धारण कुछ इस तरह किया है। १-आदिम प्राग युग-जिसे पूर्व पाषाण काल की आरंभिक अवस्थाएँ भी माना जाता है। इसके चालीस से बीस लाख वर्ष पहले आस्ट्रेलोपिथिसिस का आगमन माना जाता है। २-आरंभिक आदिम-युग पूर्व पुरापाषाण काल की उत्तरवर्ती अवस्था है, इसमें पिथिकैंथ्रोपस ने जन्म लिया। ३− मध्य पुरापाषाण काल-आदिम-युग का विकसित युग कहते हैं, इसमें नियंडरथल मानव का विकास हुआ। ४-आदिम सुदाय या उत्तरपाषाण काल, मध्यपाषाण काल, नवपाषाण काल और आरंभिक काँस्ययुग में आधुनिक मानव का विकास हुआ।

विश्वविख्यात पत्रिका ‘टाइम’ के १४ मार्च १९९४ के अंक में इस पर विस्तृत विवरण प्रकाशित किया गया था। इसके अनुसार १७५६ में निअंडर घाटी की खोज की गई। सर्वप्रथम मनुष्य का अस्तित्व इसी घाटी में प्रमाणित होने के कारण मनुष्य को निअंडरथल कहा गया। इसकी अवधि दो लाख से सत्ताईस हजार वर्ष पूर्व मानी जाती है। यह समय डार्विन की ओरिजन ऑफ स्पिशीज के प्रकाशन से काफी पहले का समय है, जब निअंडरथल मानव के अस्तित्व का पता चला। आयरिश भूगर्भवेत्ता डॉ. विलियम किंग इसे आदि मनुष्य के रूप में चित्रित करते हैं। जर्मन विज्ञानवेत्ता रुडोल्फ पिर्चो इसे ही मानव का मूल मानते हैं। १७७६ ई. में रुडोल्फ पिर्चो की इस मान्यता को स्वीकारा गया। सन १९०० के पूर्व दक्षिण फ्राँस के डार्डोगन क्षेत्र में बड़ी मात्रा में निअंडरथल की खोपड़ियाँ बरामद हुई। इस बरामदी को मानव की उत्पत्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में माना गया।

अमेरिकी और ब्रिटिश नृतत्व-विज्ञानियों ने इसे होमोसेपियंस से संबंधित माना। खुद वैज्ञानिक इसको होमोइरेक्अस के बाद की कड़ी भी मानते हैं। इनके अनुसार यह ३५ से ३० हजार वर्ष पूर्व अचानक गायब हो गया था। इस बारे में वैज्ञानिकों में मतान्तर है। तेल अबीव यूनिवर्सिटी इज़राइल के यौल रैक का कहना है कि यह संभवतः यूरोप में आए हिमयुग के कारण लुप्त हुआ होगा। हारवर्ड विश्वविद्यालय के बारयोरोफ के अनुसार यह लुप्त नहीं हुआ, बल्कि हिमयुग से बचने के लिए उत्तरी क्षेत्र की ओर पलायन कर गया। मिशिगन विश्वविद्यालय के मिलफोर्ड वोलपाक इसे अभी भी जीवित मानते हैं, जो तकरीबन दस हजार वर्ष पूर्व आधुनिक मानव में परिवर्तित हुआ।

मानव की उत्पत्ति के बारे में इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन ओरिजिन ने काफी गहन अन्वेषण-अनुसंधान किए हैं। इस संस्थान के वैज्ञानिक कार्ल स्वीशर और गर्निश कर्टीस ने इंडोनेशिया से प्राप्त होमोइरेक्टस का काफी बारीकी से अध्ययन किया है। इनके अनुसार पहला मानव अफ्रीका में पैदा हुआ और संभवतः वहाँ से चलकर इंडोनेशिया पहुँच गया होगा। इस बात को जॉन हाॅपकिंस यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक एलेन वाकर भी अपने शोध-निष्कर्षों के आधार पर स्वीकार करते हैं। और भी अनेक वैज्ञानिकों का स्पष्ट रूप से कहना है कि आज से चालीस वर्ष पूर्व अफ्रीका के जंगलों में आदिमानव स्वच्छंद एवं निर्द्वंद रूप से विचरण करता रहता था। उस समय अफ्रीका का जलवायु मनुष्य के लिए उपयुक्त माना जाता था।

क्या सचमुच में मनुष्य जाति की उत्पत्ति बंदर के वंशों से हुई? इस बात को प्रयोगों से प्रमाणित करने के लिए आई. एच. ओ. प्रेसीडेंट डोनाल्ड जाॅन्सन ने इथ्योपिया के सघन जंगलों का दौरा किया। वहाँ से प्राप्त अवशेषों के आधार पर डोनाल्ड ने एक रोचक जानकारी दी। यह जानकारी उनकी एवं उनकी टीम द्वारा पच्चीस साल तक अध्ययन करने का परिणाम है। इनके अनुसार इस क्षेत्र में साढ़े तीन फुट की महिला ही आदिमानव की माँ थी, जिसका नाम वैज्ञानिकों ने लूसी दिया। भूगर्भशास्त्री इसी लूसी को आदिमानव की माँ मानते हैं। आई. एच. ओ. के बील किंबेल तथा टीम व्हाइट इस लूसी के अवशेषों की उम्र साढ़े उन्नीस लाख वर्ष आँकते हैं। सन १९७० में तंज़ानिया की मेरी लिली ने लूसी को ३९ लाख वर्ष पहले का माना है। इनकी टीम ने ज्वालामुखी चट्टानों पर लूसी एवं इसके परिवार के अन्य सदस्यों के पाँवों के निशानों को भी खोजने में सफलता पाई है।

आदिमानव की माता लूसी को विज्ञानवेत्ताओं ने आस्ट्रेलोपिथिकस अफेरंसिस जाति में रखा है। उनके अनुसार यह चिंपांजी एवं गोरिल्ला के समान दो पैरों से चला करती थी। डोनाल्ड जान्सन ने इस लूसी को बंदर के सदृश चित्रित किया है। इसके आगे का जबड़ा और खोपड़ी चिंपांजी के समान ही पाई जाती थी। अनुमान है-लूसी पाँच फुट के बंदर के समान ज्यादा चालाक नहीं होती थी। वह पैरों एवं हाथों का स्वतंत्र रूप से संचालन कर लेती थी। इसी वजह से उसे अपनी भोजन व्यवस्था जुटाने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती थी। इसके अवशेष को इथियोपिया की ग्रेट रिफ्ट घाटी में पाया गया।

इस घाटी की विशेषता है कि यहाँ पर अफ्रीका, सोमाली तथा अरब की टेक्टोनिक प्लेटें आपस में मिलती है। अन्वेषकों का कहना है कि मनुष्य की खोपड़ी १३०० घन से. मी. के आस-पास की होती है, जबकि लूसी की खोपड़ी ५०० घन से. मी. थी। होमो हेवीलीस की खोपड़ी ६३० घन से. मी. की है। सामान्यतः पुरुष पाँच फुट ऊँचा एवं १०० पाउण्ड वजन का होता है। महिलाओं का औसत वजन ६० पाउण्ड माना जाता है। लूसी का वजन भी ठीक इसी के समान पाया गया। अनुमान है कि लूसी ने एक लाख अस्सी हजार वर्षों में ९ हजार पीढ़ियों का सफर तय किया। लूसी के इन अवशेषों को क्वींलैंड म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में रखा गया है। इसका काल्पनिक चित्र सर्वप्रथम ओवेन लवजाय तथा ब्रुस लंटीमर ने बनाया।

यह सभी जानते हैं कि विकास जगत की मूलभूत प्रकृति है। प्रकृति में इसी नियम के अनुसार ए. अफेंरसिस भी विकसित हुआ होगा। डार्विन का कहना है कि वही जाति अपने गुणों को अगली पीढ़ी तक पहुँचा सकती है, जो मजबूत एवं सशक्त हो। प्रकृतिवरण का नियम ए. अफेरंसिस पर भी लागू हुआ होगा। जो भी हो, विभिन्न प्रमाणों से वह सिद्ध होता है कि यह जाति ३० से २० लाख वर्ष तक निर्द्वंद भाव से विचरण करती रही। इस दौरान इनकी शारीरिक बनावट में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। परिवर्तन हुआ तो सिर्फ अस्थियों का यह परिवर्तन तीन नई जातियों में बँट गया। इसे आस्ट्रेलोपिथिकस अफ्रेकेनस, पैरान्थोपस रोबुस्टा एवं पैरान्थोपस बोसेई के रूप में जाना गया। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि पी. रोबुस्टा एवं पी. बोसेई काल के गर्त में समा गए। केवल ए. अफ्रेकेनस ही जीवित रह पाया। यही बाद में बुद्धिमान मानवजाति का पूर्वज सिद्ध हुआ।

इसके २५ लाख वर्ष पूर्व होमो हैबिलीस जाति थी। इसे हैंडीमैन के नाम से जाना जाता है। इसकी खोपड़ी अपेक्षाकृत बड़ी थी। इसी जाति ने पहले-पहल अपनी आत्मरक्षा के लिए औजारों का आविष्कार एवं उनका उपयोग प्रारंभ किया। हाँ, यहाँ यह सवाल जरूर है कि आदिम जाति के ये लोग हथियारों का उपयोग किस काम के लिए करते थे। इस बारे में भी वैज्ञानिकों के अलग-अलग मत हैं। कुछ वैज्ञानिकों कहना है कि ये वनस्पति खाद्य के संग्रहण में खाने योग्य जड़ों को खोद निकालने में, खाने योग्य जड़ों को खोद निकालने में, छोटे जंतुओं के बिलों की खुदाई करने में इस्तेमाल किए जाते थे।

बुद्धिमान होमोहैबिलीस हथियारों को खूबसूरती से तराशता था। इसके कुछ हथियार तो १.५२ मीटर तक ऊँचे तथा ४५ किलो तक वजनी मिले हैं। हालाँकि यह पूरी तरह से शाकाहारी था। इन हथियारों का उपयोग वह जंगली जानवरों से अपनी आत्मरक्षा में करता था, साथ ही ये हथियार जड़ों एवं कंदों को खोदने में काम आते थे। इसके बाद होमोइरेक्टस की ऊँचाई ५ फुट ६ इंच थी। गर्दन के निचले भाग को देखने से यह आज के मनुष्य से काफी कुछ मिलता है। यद्यपि इसकी खोपड़ी गोरिल्ला तथा चिंपांजी के समान चौड़ी थी तथा निचले जबड़े में ठोड़ी नहीं दिखाई देती। नृतत्त्वविज्ञान में मानव एवं बंदर के बीच की कड़ी नहीं मिलती। इस अज्ञात कड़ी को वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से प्रमाणित करते की कोशिश की है।

नृतत्त्वविज्ञानी होमोइरेक्टस की उत्पत्ति अफ्रीका को मानते हैं। चूँकि विज्ञानविदों ने इसे यायावरी जाति के रूप में पाया और माना है, इसलिए संभव है यह अफ्रीका से विश्व के अन्य भागों में पहुँचा होगा। यह अवधि १७ लाख वर्ष पूर्व की होगी। पिछले १४ लाख वर्ष से ४००० वर्ष तक होमोइरेक्टस का अस्तित्व देखा गया है। बाद में यह अफ्रीका के मध्य पूर्व एवं यूरोप होते हुए पैसिफिक क्षेत्र में फैल गया। वैज्ञानिकों के अनुसार होमोइरेक्टस के हथियार और भी विकसित रहे थे। उसने अपने ये हथियार विशेष तरह के पत्थरों से बनाए थे। ऐसा पत्थर जो टूटे नहीं और नुकीला भी हों। वैज्ञानिकों ने इनकी इस तकनीक को ‘एश्यूलियन’ नाम दिया।

एश्यूलियन युग में ये आदिम जाति के लोग पशुओं का हाँककर किसी निश्चित स्थान पर ले जाते थे। यही नहीं हिंसक जानवरों को वे अपने इन नुकीले हथियारों से मार भगा देते थे। इनके द्वारा मारे गए पशुओं में सबसे अधिक संख्या घोड़ों एवं अन्य खुरदार पशुओं की है। भूगभ्रशास्त्रियों एवं नृतत्व विज्ञानियों ने किन्हीं निश्चित स्थानों पर पाए गए विशाल ढेरों को देखकर उपर्युक्त निष्कर्ष निकाला है। इस समय छोटे जानवरों का शिकार करना एवं कंद-मूलों का संग्रह करना आम प्रचलन था। वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार लगता है कि ये लोग सर्वभक्षी थे। इस समय प्राणि प्रोटीन इनके आहार का मुख्य घटक रहा होगा। होमोइरेक्टस के औजार के संबंध में आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी कैनबरा के प्राध्यापक एलेन थौर्ने ने बताया है कि ये आदिमानव पत्थरों के अलावा बाँस-लकड़ी आदि के हथियारों का भी निर्माण एवं संचालन करते थे। इसका प्रमाण पूर्वी अफ्रीका की रीफ्ट घाटी में अवशेष के रूप में मिलता है।

होमोइरेक्टस के काल में नृतत्वशास्त्रियों ने मानव विकास की जानकारी के लिए और अनेक जीवाश्मों को खोज निकाला है। इस विषय में ‘साइंस’ पत्रिका में विस्तृत विवरण प्रकाशित हुआ था। इसके अनुसार सन १९३६ में मोजाकार्टो चाइल्ड की दस लाख वर्ष प्राचीन खोपड़ी बरामद हुई। इसकी उम्र का पता रेडियोएक्टिव तकनीक द्वारा खोजी गई इस प्रक्रिया से चला कि इसकी वास्तविक उम्र २० लाख वर्ष है। विज्ञानवेत्ता स्वीशर ने इसे ‘मिसिंगलिंक’ के रूप में माना। स्वीशर ने मानव विकास की यात्रा को इसी जीवाश्म से मानते हुए कहा कि यह लाखों वर्ष प्राचीन होगा। स्वीशर ने आगे स्पष्ट किया कि इसने मूल स्थान से अन्य भागों की ओर प्रवास किया होगा। वैज्ञानिकों के अनुसार प्रवास का यह इतिहास काफी पुराना है। हाथी भी अफ्रीका को छोड़कर गया है। इसी तरह आदिमानव भी अफ्रीका के प्रतिकूल वातावरण एवं जलवायु से बचने के लिए अन्य जगहों की ओर गया होगा।

येल विश्वविद्यालय के पैलियेन्टोलाँजिस्ट एलिजाबेथ बर्था का मानना है कि आदिमानव में प्रतिरोधक क्षमता आश्चर्यजनक रूप से विकसित हुई थी। वह इसी क्षमता के बल पर प्रकृति के उतार-चढ़ावों को हँसते हुए झेलता रहा। इन विपरीत स्थितियों में उसका अवसान न होना ही इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। एलिजाबेथ के अनुसार

२५ से २७ लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में अल्पकालीन हिमयुग था। उस समय वहाँ का अधिकतम तापमान ११ डिग्री सेल्सियस था। संभवतः इसी वजह से आदिमानव ने सवाना जैसे सूखे प्रदेश की ओर प्रवास किया। ये बड़े-बड़े सघन वनों में वृक्षों की ओर रहते थे। इसी कारण इन जीवों को वृक्षोपजीवी कहा गया। ये हाथों का प्रयोग अधिकतम करते थे। वर्षा एवं अन्य कई कारणों से वातावरण में काफी परिवर्तन आया। जंगल एवं घास के बड़े-बड़े मैदान सिमटने लगे। मैदानी इलाकों में चिंपांजी आदि को चलना पड़ा, इसलिए पैरों का प्रयोग हुआ। विकास के इस चरण में पैरों के विकसित होने के पश्चात ही आदिमानव ने संसार के अन्य क्षेत्रों की ओर प्रस्थान किया होगा।

जॉन हाॅपकिंस विश्वविद्यालय के प्राध्यापक वाकर के अनुसार होमो सेपियंस होमोइरेक्टस में विकसित हुआ। नृतत्वशास्त्री होमोसेपियंस की उत्पत्ति भी अफ्रीका में मानते हैं। आधुनिक मानव एवं होमोसेपियंस के बीच घनिष्ठ संबंध होने की मान्यता है। आस्ट्रेलिया के थार्ने की मान्यता है कि होमोसेपियंस कई समूहों में विभाजित हो गया। इन समूहों की पीढ़ियों के बीच आनुवंशिक गुणों का स्थानान्तरण हुआ। इस तरह विज्ञान की मान्यताओं के अनुसार मानव जीन का जोहंसवर्ग से बीजिंग तक एवं पेरिस से चेन्नई तक प्रसार हुआ। ‘टाइम’ के १४ मार्च १९९४ के अंक के अनुसार चीन में पाया गया दो लाख वर्ष प्राचीन जीवाश्म एशिया में मानव उत्पत्ति का संकेत करता है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर श्री एच. गोपाल के शोधपत्र ‘प्रागैतिहासिक मानव और संस्कृति’ में भी कुछ ऐसा ही उल्लेख हुआ है।

विशेषज्ञों के अनुसार मानव की चार मुख्य जातियाँ हैं-श्वेत काकेशस, पीले मंगोलियन, काले नीग्रो एवं रेड इंडियन। इन चारों के अलावा भारतीयों को पाँचवीं जाति माना जाता है। इस जाति में चारों रंगों एवं आकार का मिलन-मिश्रण है। जेनेटिक संरचना से स्पष्ट होता है कि भारतीय जाति उपयुक्त चारों जातियों की संकरता से नहीं उत्पन्न हुई है। भारतीयों में सभी प्रकार के जीन पाए जाते हैं। संसार की किसी दूसरी मनुष्य जाति में अब सब जातियों के आकार के जीन नहीं रहे। वर्णसंकर हुए बिना श्वेत जाति से नीग्रो या मंगोलियन आकृति का शिशु उत्पन्न हो जाता है। अनुसंधानकर्ता इसका यही अर्थ निकालते हैं कि मनुष्य जाति की उत्पत्ति निश्चित रूप से भारत में ही हुई होगी।

डॉक्टर ऐन्सन एवं अन्य कई विद्वानों ने भौगोलिक स्थिति का अध्ययन करके पता लगाया है कि पूर्वकाल में अफ्रीका, अमेरिका तथा यूरोप की ऐसी स्थिति नहीं थी कि वहाँ मानव की उत्पत्ति को परोक्ष रूप से हिमालय की ओर इंगित किया है। टेलर साहब की मान्यता है कि वह स्थान स्वर्ग तुल्य कश्मीर ही है। ईरान की पारसी जाति भी अपना मूल निवास हिमालय को ही मानती है। पारसियों, हिंसुओं, यहूदियों, क्रिश्चियनों के धर्मग्रंथों के अनुसार यदि सृष्टि ऐसे स्थान पर हुई जहाँ दस महीने सर्दी तथा दो महीने गर्मी पड़ती है, तो निश्चित रूप से वह स्थान मानसरोवर से कश्मीर तक होना चाहिए। इब्ने अली हातिम ने भी स्वीकारा है कि हिंद की घाटी में ही आदम बहिश्त से उतरा था। इतिहासवेत्ता ए. एल. बाशम ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ में स्पष्ट रूप से लिखा है-ईसा से तकरीबन एक लाख से भी अधिक वर्ष पहले मानव ने पहली बार अपने जीवन के प्रथम चिन्ह भारत में छोड़े। महाभारत के इस श्लोक में भी मानवजाति की उत्पत्ति भारत में ही बतायी गयी है−

अथगच्छेतराजेन्द्रदेविकाँलोकविश्रुताम्। प्रसूतिर्यश्रविप्राणाँश्रूयतेभरतर्षभ॥

अर्थात् सप्तऋषि तीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मानवजाति की उत्पत्ति हुई। इस तरह सारे प्रमाण सिद्ध करते हैं कि आदिमानव का जन्म देवभूमि भारत के उत्तराखण्ड क्षेत्र में ही हुआ। यहीं से सब ओर सभ्यता की किरणें फैली। इतनी स्पष्ट होने पर समझा जा सकता है कि भारत में जन्म लेना क्यों इतना महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस सुरदुर्लभ तन का यदि जननी जन्मभूमि क निमित्त नियोजन हो सके, तो उससे श्रेष्ठ और क्या सदुपयोग इसका हो सकता है।

अपरिग्रह आदि महाव्रत कहलाते हैं। ऐसे उच्चस्तरीय नियमों का प्रतिज्ञापूर्वक परिपालन भी इसमें आता है। उपवास, अस्वाद, मौन आदि व्रत भी अनेक दिशाओं में बिखरी हुई शक्ति को एकत्र करके अभीष्ट दिशा में लगाने के लिए किए जाते हैं। व्रत एक संकल्प है, जिसे लेकर मनुष्य अपने ऊपर एक स्वेच्छा उत्तरदायित्व लेता है। यह उत्तरदायित्व प्रतिज्ञा के आधार पर पालन होता रहता है। महर्षि रमण का मौनव्रत विख्यात है। शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, दयानंद, विवेकानंद, आदि ऋषि आहार संबंधी सीमाबंधन का सरलतापूर्वक निर्वाह कर सके। श्रम संबंधी नियम भी निभ सकते हैं। इतना अध्ययन, व्यायाम, भजन आदि करना है, ऐसी प्रतिज्ञाएँ उपयुक्त भी हैं और निभती भी हैं।

यही बात सत्य के संबंध में भी है। सुरक्षा या सैन्य विभाग के रहस्यों का प्रकट करना वाचक सत्य हो सकता है, पर उद्देश्यपूर्ण सत्य नहीं। चोरों और ठगों को अपनी वास्तविक स्थिति बता देना प्रकारांतर से अनीति का ही परिपोषण करना है। अतः हम व्रतशील तो बनें, संकल्प लें, प्रतिज्ञाएँ भी करें, परंतु वे सभी विवेकपूर्ण और दूरदर्शिता युक्त हों। आवेश में की हुई हठवादिता को जितना जल्दी उलटा जा सके उतना ही अच्छा है।

संत-महापुरुषों का जीवन-चरित्र जिनने गंभीरतापूर्वक पढ़ा है, वे जानते हैं कि संत ज्ञानेश्वर के पिताजी ने गृहस्थ के उत्तरदायित्व को अधूरा छोड़कर संन्यास ले लिया था। उनके गुरु देव स्वामी रामानंद को जब वस्तुस्थिति विदित हुई तो उनने उन्हें पुनः गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने का आदेश दिया और संन्यास छुड़ा दिया। इसमें वचनभंग का दोष तो आता है, पर उससे बड़ा व्रत निभाता है-भूल सुधार का।

प्रख्यात है कि अंगुलिमाल डाकू नित्य अपने चंगुल में फँसे निर्दोषों की अंगुलियां काटकर उनकी माला देवी पर चढ़ाया करता था। इसी आधार पर उसने अपना नाम अंगुलिमाल रखा हुआ था। भगवान बुद्ध के संपर्क में आने पर उस प्रतिज्ञा से मुँह मोड़ा वह अहिंसा का प्रचारक बन गया। इसी तरह अंबपाली को नगरवधू रहने की शपथ दिलाई गई थी, उसने बुद्ध की शरण में आते ही उस अनीति बंधन को टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया और सती-साध्वी की तरह धर्मप्रचार में संन्यासिनी बनकर जुट गई।

कई हठवादी एक बार मुख से निकले शब्दों को पूरा करने में ही संकल्प की पूर्ति समझते हैं और अपने दर्प को पूरा हुआ समझते हैं। गुरु द्रोणाचार्य राजा द्रुपद के दरबार में कुछ याचना करने गए और गुरु कुल में साथ पढ़ने की मित्रता का स्मरण दिलाया। इस पर द्रुपद ने उनका उपहास उड़ाया। द्रुपद से उस अपमान का बदला लेने के लिए उनने अपने शिष्य पाँडवों से उन्हें परास्त करने और मुश्कें बाँधकर सामने प्रस्तुत करने का आदेश दिया। वही हुआ। इसके बाद प्रतिशोध की क्रिया-प्रतिक्रिया चल पड़ी और उसका अंत महाभारत के सर्वनाशी रूप में सामने आया। चम्बल के डाकुओं की खदान उमड़ पड़ने का कारण भी प्रतिशोध की परंपरा चल पड़ना ही निमित्त कारण है। इसीलिए कहा गया है कि किसी आवेश में की हुई प्रतिज्ञा का पूर्ण करना आवश्यक नहीं। मन बदलने पर परिस्थितियों में अंतर आ जाने पर बात को बदल देने में समझदारी ही मानी जाती है।

कहा जाता है कि सम्राट अशोक ने जीवन के अंत में बुद्ध संघ को सहस्र स्वर्णमुद्राएँ दान देने का संकल्प लिया था। परंतु राज्य उनके उत्तराधिकारी के हाथ में चले जाने पर दैनिक उपयोग की वस्तुएँ दीं और अंत में एक सूखा आँवला जो उनके पास शेष रहा था, वह उनने संघ को देकर अपने संकल्प की पूर्णाहुति मान ली।

वचन के एक बार मुँह से निकल जाने पर वैसा ही करते रहना प्रतिज्ञापूर्ति मानी जाती है, पर उसका मूल्य तभी है जब अपनी सामर्थ्य को तोलते हुए, परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उच्च उद्देश्यों के निमित्त की जाए। इस कसौटी पर आत्मशोधन के लिए किए गए, व्रत, उपवास, संयम, निर्वाह आदि के संकल्प ही उस

मर्यादा के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें कष्ट सहते हुए भी निबाहना चाहिए।

कई व्यक्ति एक पैर पर खड़े रहने, एक हाथ ऊँचा रखने, जमीन पर न सोने-बैठने आदि की प्रतिज्ञाएँ कर लेते हैं और उन्हें बहुमूल्य जीवन शक्तियों का समापन करते हुए निबाहते हैं। कुछ लोग कष्टसाध्य मौन धारण करते हैं एवं कभी स्लेट-पेन्सिल पर अपनी इच्छाएँ व्यक्त कर वार्त्तालाप का क्रम चलाते हैं। ऐसे व्रतधारण को अनावश्यक ही नहीं, अहितकर परंपरा उत्पन्न करने वाला और दूसरों के सम्मुख अपना बड़प्पन सिद्ध करके यश लूटने का षड्यन्त्र भी माना जा सकता है। सादगी अपने अप में एक व्रत है, जिसके साथ उच्च विचारों का अविच्छिन्न संबंध जुड़ा हुआ है।

भगवान बुद्ध आरंभ में अत्यंत कठोर तप करने लगे थे और अस्थिपञ्जर मात्र रह गए थे। तब उन्हें दैवयोग से उस हठ को छोड़ने और मध्यम मार्ग अपनाने की प्रेरणा मिली। उनने कठोर तप से विरत हो आत्म-बोध के लक्ष्य को योग द्वारा ही प्राप्त किया।

व्रतशीलता और प्रतिज्ञा पालन अच्छी बात है। उससे मनोबल बढ़ता है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी के बहकावे में आकर कोई कुकृत्य कर बैठने की प्रतिज्ञा तो नहीं कर ली गई है। यदि ऐसा हो तो उसे तत्काल सुधारा जाता चाहिए। आत्मसुधार में हठवादिता का परित्याग भी आता है, जो अपने आप में एक श्रेष्ठ व्रत है।


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