कृत्रिम सृष्टि की दिशा में प्रयोगरत विज्ञान क्या सफल हो सकेगा ?

November 1997

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मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता जॉन बैरो ने एक पुस्तक लिखी है, नाम है-दि आर्टिफीशियल इण्टेलिजेंस एंड दि कमिंग सेंचुरी।’ जानकारी की दृष्टि से यह अत्यंत साधारण है, पर इसमें जिस प्रकार की संभावना का उल्लेख किया गया है, उसे देखते हुए उसको असाधारण ही कहना पड़ेगा और मानना पड़ेगा कि आगामी समय कदाचित विज्ञान द्वारा निर्मित कृत्रिम प्राणियों का होगा।

कल का अनुमान यदि आज लगाना हो तो उसके दो तरीके हैं-एक वह, जिसमें अतीन्द्रिय सामर्थ्य के आधार पर अध्यात्मवेत्ता आने वाले समय की भविष्यवाणी करते हैं, जब कि दूसरा उपाय अनुमान और आकलन पर आधारित है। वर्तमान परिस्थितियों के सहारे उसमें भविष्य की रूपरेखा तैयार करनी पड़ती है और यह देखना पड़ता है कि आगामी समय का रुख क्या होगा। अनागत को जानने का सर्वसामान्य तरीका यही हैं। इसी के आधार पर साधारण किसान से लेकर विज्ञ विज्ञानवेत्ता तक अपनी अटकलें लगाते और निष्कर्ष निकालते हैं। बैरो ने इसी का आश्रय लेते हुए वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति का विश्लेषण किया है एवं इस बात की संभावना प्रकट की है कि भविष्य में लगभग हर एक विकसित प्राणी की एक यांत्रिक अनुकृति होगी। वह अनुकृति कृत्रिम भले ही हो, पर उसकी आकृति और आचरण लगभग वास्तविक जैसे ही होंगे।

जलचरों और नभचरों के आधार पर वर्षों पूर्व वैज्ञानिकों ने जलयानों और वायुयानों का निर्माण किया। तब वे पूर्णतः मानवचालित थे। यों अब भी उनका परिचालन मनुष्य ही करते हैं, पर वर्तमान में धीरे-धीरे उनका स्वरूप स्वचालित होने लगा है। परिवहन और यात्री विमानों के अतिरिक्त मौसम की जानकारी पाने और जासूसी करने के उद्देश्य से जो छोटे आकार के यान विकसित हो रहे हैं, वे पूर्णतया कम्प्यूटरीकृत और पायलट रहित होते हैं। इसके अलावा ग्रहों-उपग्रहों के अध्ययन-अन्वेषण के लिए जिन यानों का उपयोग किया जाता है, वे भी मानव रहित होते हैं। मंगल ग्रह और चंद्रमा के अध्ययन के लिए आरंभ में रूस और अमेरिका ने स्वचालित या नहीं भेजे थे। उनका सम्पूर्ण नियंत्रण रोबोट के हाथ था। रोबोट को दिशा-निर्देश धरती के नियंत्रण कक्ष से मिलता था।

ऐसे यानों के लाभ भी है और हानियाँ भी। लाभ यह है कि जहाँ मनुष्य नहीं पहुँच सकते अथवा जहाँ जीवन संबंधी खतरे हैं, वहाँ पहुँचकर ये अपने कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न करते हैं। आज यदि ऐसे यान नहीं होते, तो ग्रह उपग्रह संबंधी इतनी विस्तृत और सूक्ष्म जानकारियाँ उपलब्ध नहीं होती । पिछले तीन दशकों में चंद्रमा, मंगल और बृहस्पति ग्रह के बारे में जो ठोस सूचनाएँ मिली हैं, वह सब इन्हीं यानों के कारण संभव हो सकी हैं। इनकी कमियाँ यह है कि ये कृत्रिम बुद्धि सम्पन्न हैं, अतः विपरीत परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? कौन-कौन से कदम उठाने चाहिए? इसका निर्णय वे स्वयं नहीं कर सकते, इसके अतिरिक्त सीमित ज्ञान होने के कारण ये कई बार भटक भी जाते हैं। पिछले दिनों अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययन के लिए भेजा गया एक अमेरिकी अंतरिक्ष यान इसी प्रकार भटक गया और अनंत अंतरिक्ष में कहाँ खो गया, इसका कुछ भी पता नहीं।

प्रवासी पक्षियों में दिशा संबंधी कम से कम इतना ज्ञान तो होता है कि प्रवास पूरा करके वे जहाँ से आये थे, वहाँ सकुशल पहुँच सके। इस क्रम में न तो वे अपना प्रवास-स्थान ढूँढ़ने में गड़बड़ाते हैं, न लौटने में ही रास्ता भटकते हैं। जीव और यंत्र में यही सबसे बड़ा अंतर है। इसके अतिरिक्त प्राणी प्रकृति प्रेरणा से भी अपना कार्य पूरा करते हैं। यंत्रों में इसका अभाव है। उसे प्रेरणा, दिशा, मार्गदर्शन धरती से मनुष्य के मिलते हैं, फिर भी अनेक बार वे उनका अक्षरशः पालन करने में विफल होते हैं। पक्षियों के साथ यह व्यतिक्रम नहीं होता। उनके साथ जुड़ी इन कुछ एक सुविधाओं और सफलताओं को छोड़ दिया जाय, तो यही कहना पड़ेगा कि मानव निर्मित यान नभचर के समतुल्य हैं।

पक्षियों की कुछ प्रजातियाँ उभयचर होती हैं। वे जल में भी तैर सकती है और आकाश में भी उड़ती भी है। इन्हें देखकर ऐसे हवाईजहाज बना लिये गये, जो आसमान में उड़ते भी हैं और आवश्यकता पड़ने पर जल-तल पर उतरकर उसमें तैर भी सकें। वीटाँल प्रकृति के इन वायुयानों की यह विशेषता है कि वे पक्षियों की तरह ही सीधे ऊपर उड़ जाते हैं। सामान्य हवाई जहाजों को उड़ने से पूर्व बहुत दूर तक रन वे पर दौड़ना पड़ता है। इसके बाद वे धीरे-धीरे ऊपर उठते हैं। इन्हें यह दौड़ नहीं लगानी पड़ती।

वैज्ञानिकों ने पनडुब्बी के रूप में जलचर की भी अनुकृति विकसित कर ली है। वह जल के अंदर ही अंदर लक्ष्य तक पहुँचने की क्षमता रखती है। इस दृष्टि से उन्हें जल-जीवों के समान ही कहना चाहिए। पानी के भीतर शत्रु की टोह लेने और लक्ष्य बेधने में भी वे अद्वितीय हैं। यह सामर्थ्य जलीय प्राणियों जैसी ही कही जा सकती है। इसके बाद विज्ञान ने मनुष्य के हमशक्ल रोबोट बनाये। यह रोबोट कई अर्थों में महत्वपूर्ण साबित हुए। इनकी पहली विशेषता तो यह है कि ये बिना विश्राम के अनवरत और अथक परिश्रम कर सकते हैं। श्रम में ईमानदारी बरतना, गुणवत्ता को बनाये रखना, तीव्रगति से काम करना आदि इनकी कितनी ही विशिष्टताएँ हैं। बिना पारिश्रमिक के श्रम करना, सर्दी-गर्मी जैसी प्रतिकूलताओं से अप्रभावित रहते हुए गति और गुणवत्ता को यथावत बनाये रखना, यह इन्हीं के द्वारा संभव है। मनुष्य चूँकि सचेतन प्राणी है, अतः उसकी क्षमता, वातावरण, मौसम, आहार, स्वास्थ्य आदि से प्रभावित होती है। जड़ पदार्थ बाह्य परिस्थितियों से कम से कम प्रभावित होते हैं, अस्तु जब इनके द्वारा यांत्रिक बुद्धि सम्पन्न यंत्रमानव बनाये गये, तो वे उपरोक्त विपरीतताओं से बेअसर रहकर अपनी पूरी सामर्थ्य और योग्यता के साथ कार्य करने लगे। इस दृष्टि से इसे चेतना के ऊपर जड़ की विजय कहा जा सकता है। इससे प्रोत्साहित होकर कई क्षेत्रों में यंत्र-मानवों की मदद ली जाने लगी। उद्योग से लेकर अंतरिक्ष तक में इनका समर्थ सहयोग मिलने लगा। यह सहयोग आगे रुकने वाला नहीं। जिन-जिन क्षेत्रों में अभी इसका आगमन नहीं हुआ है, वे सारे क्षेत्र अगले ही दिनों इसकी व्यापक परिधि में आयेंगे। तब न तो चिकित्सा क्षेत्र इससे अछूता रह सकेगा, न अनुसंधान, न चिंतन, न मानवी क्रियाशीलता-ऐसा विशेषज्ञों का अनुमान है। प्रतिरक्षा प्रणाली से लेकर युद्ध शैली तक में इसका स्पष्ट असर दिखलायी पड़ेगा।

उक्त संभावना पर अपना मत प्रकट करते हुए प्रसिद्ध फ्राँसीसी रक्षा विशेषज्ञ जे. बी. शुकमा ने अपनी पुस्तक ‘दि सोरसरर्स चैलेंज में लिखा है कि विश्व स्तर पर युद्ध के संदर्भ में इतनी जनचेतना जाग्रत हो चुकी है और युद्ध की विभीषिका से समाज इस कदर त्रस्त है कि आने वाले समय में कोई विश्वयुद्ध होगा, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी किसी तरह परिस्थितियाँ यदि वैसी बनती हैं, तो वह आदमी-आदमी के बीच न होकर रोबोट-रोबोट के मध्य होगा। सन 1991 में लड़ गये खाड़ी युद्ध का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि वास्तव में उसे पूरी तरह मानवी लड़ाई कहना उचित न होगा। वह एक प्रकार से अर्द्धरोबोटिक-अर्द्धमानवी युद्ध था, जिसमें एक ओर ईराकी सैनिक थे, तो दूसरी ओर यंत्रमानवों द्वारा प्राप्त गुप्त सूचनाओं के आधार पर रणनीति बनाने और आक्रमण करने वाली बहुराष्ट्रीय सेना। यह यंत्रमानव पायोनियर नामक विमान में सवार थे और रणक्षेत्र वाले आकाश में उतुँग ऊँचाई पर चक्कर लगा रहे थे। बाद में ईराकी सैनिकों ने इसी रोबोट के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था। उक्त घटना पर टिप्पणी करते हुए अमेरिकी नौसेना के वाइस एडमिरल स्टेनल आर्थर ने कहा था कि युद्ध के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब मनुष्य ने किसी यंत्रमानव के सम्मुख आत्मसमर्पण किया हो।

यों तो खाड़ी युद्ध में अमेरिका बहुराष्ट्रीय सेना में सम्मिलित था और बाद में उसकी विजय भी हुई, पर ऐसी बात नहीं कि शत्रु पक्ष के आक्रमण से वह एकदम अछूता रहा हो। युद्ध में उसके अनेक सैनिक हताहत हुए, कितने ही बंदी बना लिये गये और अगणित विषैले रेगिस्तानी साँपों के शिकार हुए। अमेरिकी जनता इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी और उनका कोपभाजन तत्कालीन सरकार को बनना पड़ा। तब से अमेरिकी सरकार अपनी मानव सेना बाहर भेजने से कतराने लगी और उसी समय से इसका कोई यांत्रिक विकल्प ढूँढ़ने का प्रयास करती रही, जिसका परिणाम अब सामने आया है। वहाँ के नेशनल आर्म एण्ड एम्यूनिशन रिसर्च लैबोरेटरी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा रोबोट सैनिक विकसित किया है, जो युद्ध के मैदान में यह पता लगाने में पारंगत है कि बंदूक की गोली, तोप के गोले, राकेट आदि छोड़े गये? ठिकाने का सही-सही पता लगाकर वह उन्हें क्षण मात्र में विस्मार करने में अद्भुत क्षमतावान् है।

इसके अतिरिक्त अमेरिकी नौ सेना और थल-सेना ने मिलकर एक ऐसी योजना बनायी है, जिसके अंतर्गत सैनिक चौकियों के आस-पास गश्त लगाने का कार्य अब यंत्रमानव करेंगे। मोबाइल डिक्टेशन एसेसमेण्ट रिस्पोंस सिस्टम के नाम से जानी जाने वाली यह प्रणाली चौकसी बरतने में इस बात में मानवी-रक्षकों से श्रेष्ठ होगी कि वह बिना निद्रा, विश्राम और आहार के आठों याम एक जैसी क्षमता के साथ अपनी ड्यूटी पूरी करती रह सकेगी। यों तो मानव सृष्टि से वह सर्वोत्तम ही होगा। एक यंत्र के रूप में उसका आकार बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। इसके कई कारण विज्ञानवेत्ताओं ने गिनाए हैं। उनका कहना है कि दो पैरों वाला होने के कारण आदमी किसी दीवार पर कीट की तरह आसानी से चल फिर नहीं सकता। दूसरे उसके चलने की खड़ी मुद्रा, जो कि धरती में समकोण बनाती हुई होती है, इसमें विशेष बाधक है। इसकी तुलना में सतह के समानान्तर मुद्रा अधिक सुविधाजनक और सरल होती है। छिपकली, कीड़े अपनी इसी विशेषता के कारण दीवारों, खम्भों पर आसानी से चढ़ और दौड़ लेते हैं, साथ ही सतह से चिपकने वाले उनके ऐसे पैर और पंजे होते हैं, जो उन्हें गिरने नहीं देते। मनुष्य में इनका अभाव होता है।

ऊर्ध्व मुद्रा युक्त होने के कारण आदमी के साथ एक बड़ी अड़चन यह जुड़ी होती है कि उसका गुरुत्व केन्द्र काफी ऊँचाई पर शरीर के मध्य भाग में नाभि के आस-पास स्थित होता है। इससे उसकी संतुलन क्षमता प्रभावित होती और स्थिरता घटती है। इसी कारण से किसी को हल्का सा धक्का दे देने पर वह लड़खड़ा जाता है। गुरुत्व केन्द्र धरती के जितना निकट होगा, स्थायित्व उतना ही मजबूत होता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर नृत्य प्रशिक्षक लम्बे और नाटे शिष्यों में से सदा ठिगनों को चयन करना पसंद करते हैं, कारण कि लंबे और नाटे शिष्यों में से सदा ठिगनों को चयन करना पसंद करते हैं, कारण कि लंबे व्यक्ति की तुलना में उनका गुरुत्व केन्द्र जमीन के अधिक समीप होने के कारण नृत्य की कठिन मुद्राओं में भी वह अपना संतुलन कायम रखते हैं। इसके अलावा अधिक संख्या में टाँगों का होना भी संतुलन को स्थिरता प्रदान करता है। इसे किसी मानव शिशु और पशु शावक को देखकर भली-भाँति जाना-समझा जा सकता है।

इन्हीं सब कठिनाइयों को देखते हुए वैज्ञानिकों ने सम्प्रति यंत्रमानवों के स्थान पर यंत्रकीट बनाने का निर्णय लिया है। कीड़ों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे बिलकुल जमीन से सटकर चलते हैं और टाँगे भी दो से अधिक होने के कारण उनका संतुलन बहुत चुस्त-दुरुस्त बना रहता है। इसके अतिरिक्त जमीन के समानांतर वाली उनकी शारीरिक संरचना छोटे कार्यों के लिए अत्यंत अनुकूल है। मानवाकार शक्ल इसमें विघ्न उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी पाइप के अंदर स्थित मशीन के किसी पुर्जे की गड़बड़ी का पता लगाना हो, तो वहाँ रेंगने वाली रोबोटिक संरचना ही उस कार्य को करने में सफल हो सकती है। मानवाकृति शक्ल का तो उस छोटे व्यास वाले पाइप में प्रवेश कर सकना संभव ही न होगा। इसलिए आवश्यकता और उपयोगिता को देखते हुए यंत्रमानव को अब यंत्रकीट का आकार दिया जा रहा है। अभी पिछले ही दिनों एक अमेरिकी कम्पनी ने ऐसा ही एक रोबोट बनाया है। न्यू वर्म के नाम से जाना जाने वाला यह यांत्रिक कीट 30 सेंटीमीटर लंबा है एवं दस मीटर प्रति मिनट की चाल से चलता है। इसे किसी भी पाइपनुमा संरचना के भीतर भेजा जा सकता है। अंदर पहुँचकर यह कृत्रिम अपने छोटे से कैमरे से बिगड़े पुर्जे की तस्वीर खींच लाता है, जिसके आधार पर खराबी को पहचानकर बाद में उसकी मरम्मत कर दी जाती है।

यंत्रकीट की सफलता से उत्साहित होकर अमेरिकी सेना ऐसे कीटनुमा यांत्रिक जासूस तैयार करने की सोच रही है, जो युद्ध के मैदान में अपने अत्यंत छोटे आकार के कारण दुश्मनों की आँखों से अदृश्य रहते हुए उनके टैंकों, बख्तरबंद गाड़ियों एवं दूसरे शस्त्रास्त्रों की संख्या तथा उनका ठीक-ठीक स्थान बता सके। इन्हें ही नहीं, उपकरणों के अंदर घुसकर उन्हें नष्ट करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। वे शत्रुओं की युद्ध संबंधी रणनीति की भी भविष्यवाणी करने में भी सफल होंगे।

इस योजना का कार्य शुरू हो गया है। बोस्टन यूनीवर्सिटी के इलेक्ट्रानिक्स प्रभाग के वैज्ञानिक, जोहानिस स्मिथ अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इसे साकार करने में जुटे हुए हैं। यह तो समय ही बतायेगा कि इसमें वे कहाँ तक सफल हुए। जापान रोबोट टेक्नालाँजी में सबसे आगे है। वहाँ के इंस्टीट्यूट फॉर इण्डस्टियल आटोमेशन एण्ड द रोबोटिक डिवाइसेज नामक एक संस्थान ने डिस्क रोलर नाम का एक ऐसा रोबोट विकसित किया है, जो चुम्बकीय पहियों के सहारे खिसककर मशीन के वाँछित पुर्जे के नजदीक पहुँचता है और नाखून के बराबर अपने वीडियो कैमरे में उसका चित्र उतार लेता है। जापान में इसका उपयोग समुद्री जहाजों के हिस्से-पुर्जों की खराबी परखने में किया जाता है। बड़े आकार के जीव-जंतुओं को ठीक ढंग से शिक्षित-प्रशिक्षित करके उन्हें वशवर्ती बनाया और आज्ञानुवर्ती जैसा कार्य लिया जा सकता है, पर अत्यंत छोटे आकार वाले कीटकों के साथ ऐसा शक्य नहीं, जबकि जरूरत इसकी भी अनुभव की जा रही है। अस्तु, टोकियो यूनिवर्सिटी के रोबोटिक विभाग के अध्यक्ष हिंरोफ्युमी मियुरा एक ऐसे यंत्रकीट को विकसित करने में संलग्न है, जो न सिर्फ रेंग सकेगा, वरन् कीड़ों की तरह उड़ेगा भी और मालिक का कहना मानने में अग्रणी रहेगा। इसकी उपयोगिता की जानकारी देते हुए वे कहते हैं कि इसका मुख्य उद्देश्य एक फूल से दूसरे में जाकर परागण की क्रिया सम्पन्न करना और वैसे कीटकों को समाप्त करना होगा, जो फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। ब्रिटेन के पोर्टसमाउथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक भी इस दिशा में जापानियों से पीछे नहीं है। उन्होंने एक ऐसी नकली मकड़ी बनायी है, जिसके पैरों में दीवार में चिपकने वाले न्यूमैटिक कप्स लगे हुए है। इनकी मदद से वह फुर्ती से दीवार पर चढ़ने लगती है। निर्माताओं ने इसका नाम रोबग-थ्री रखा है।

यंत्रकीटों के विकास में सबसे अधिक लाभ चिकित्सा विज्ञान को हुआ है। अब शरीर शास्त्री शरीर के अंदर की खराबी को आसानी से जान सकेंगे और यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि गड़बड़ी कहाँ, किस स्तर की, कितनी गंभीर है। पिछले दिनों इस प्रकार के कई प्रयोग परीक्षण स्तर पर किये गये, जिसमें रोबोट कीट अपनी जिम्मेदारी भली-भाँति निबाहते देखे गये। ऐसे ही एक प्रयोग के दौरान कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नालॉजी के वैज्ञानिक ने एक यांत्रिक कीड़े को सुअर की आहार नाल में प्रवेश कराया और आदेश दिया कि उसकी आँत में जो सूजन और छाले हैं वे किस अवस्था में एवं कितने गंभीर है तथा उनका ठीक-ठीक स्थान क्या है, इसका पता लगाये। रोबोट ने आज्ञाकारी सेवक की तरह इसका पालन किया और सुअर की चार मीटर लंबी आत की यात्रा करके चिकित्सकों को इसकी विस्तृत जानकारी दी। इस उत्साहवर्द्धक सफलता के बाद अब वैज्ञानिक रक्तवाहनियों में जमने वाले रक्त के थक्कों और कोलेस्टरोल की रुकावटों को दूर करने के लिए ऐसे ही मिनी यंत्र जीवों की सहायता लेने की सोच रहे हैं। इसमें वे कितने सफल होंगे यह बता पाना अभी मुश्किल है।

इलियान यूनिवर्सिटी अमेरिका के रोबोटविदों ने कीट शक्ल से अलग हटकर रेशम के कीड़े के लार्वा के आकार का एक यंत्र लार्वा बनाने में सफलता प्राप्त की है। यह पचास सेंटीमीटर लंबा जीव छह पैरों वाला हैं तथा उसकी चाल एकदम वास्तविक लार्वा जैसी है। शरीरविज्ञानी इन दिनों दो पृथक् प्राणियों को मिलाकर संकर जीव पैदा करने में संलग्न है। घोड़े और गधे की परिणति खच्चर के रूप में सामने आई। लायन और टाइगर के संयोग से लायगर बनाया गया। अभी इसी वर्ष मनुष्य और चिम्पैंजी का परस्पर संपर्क कराया गया। इससे उत्पन्न जीव अर्धमनुष्य अर्द्धम्पाँजी जैसा था, तो शरीर मनुष्य का। इस प्रकार की दो घटनाएँ इस वर्ष हुई। इस साल के प्रारंभ में जापानी बेण्डाई कंपनी के एक इंजीनियर आकी होरो योकोई ने टामागोची नामक एक रोबोटिक अण्डा बना डाला। सोनी कंपनी ने उस अण्डे को से एक कर रोबोडाँग पैदा कर लिया। यह यांत्रिक कुत्ता घूमता -फिरता है, पूँछ हिलाता है और पालतू एवं प्रशिक्षित कुत्ते की तरह हाथ मिलाता है। शक्ल भी लगभग कुत्ते जैसी है।

ब्रह्मा की चेतन सृष्टि से पृथक् कृत्रिम जड़ सृष्टि रचने का विज्ञान का यह अपने ढंग का प्रयास है। देखना यह है कि इस दिशा में वह कितना और कहाँ तक सफल होता है।


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