परमपूज्य गुरुदेव ने प्राण−प्रत्यावर्तन की, प्राण-अनुदान-वितरण की प्रक्रिया इसी प्रयोजन से आरम्भ की। प्रारम्भ भले ही वह कुछ साधकों से, कुछ सत्रों से हुई हो, किन्तु यह क्रम बराबर विभिन्न सत्रों में आदान-प्रदान के रूप में इसीलिए जारी रहा कि जिन्हें वे तैयार कर रहे हैं, जिन्हें शक्ति से ओत-प्रोत करते चले जा रहें है, वे उनके महाप्रयाण के बद भी युगपरिवर्तन की प्रक्रिया को अग्रगामी बनाते चलें, आत्मबल सम्पन्न सद्गुरु का दिव्य अनुदान सत्प्रयोजनों के निमित्त नियोजित हो सके। अनुदान वितरण की इस प्रक्रिया को समय की आवश्यकता बताते हुए परमवंदनीया माताजी ने इसी संपादकीय में लिखा था “युग परिवर्तन के इस पर्व बेला में अभीष्ट प्रयोजनों की मूर्ति के लिए ऐसी आत्मबल सम्पन्न विभूतियों की आवश्यकता पड़ेगी जो भौतिक साधनों से नहीं, अपने आत्मबल से जन मानस के विपन्न प्रवाह को उलट सकने का साहस कर सके। इसके लिए ऐसे अग्रगामी लोकनायकों की आवश्यकता पड़ेगी जो मनस्वी और तपस्वी बनने में अपना गौरव गर्व अनुभव करें। जिनकी महत्त्वाकाँक्षाएँ भौतिक बड़प्पन से बढ़कर आत्मिक महत्ता पर केन्द्रीभूत हो सके। “ ....”मनुष्य में देवत्व के उदय एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण की पुण्य बेला में महामानवों की महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी। इतिहास के आकाश में ऐसे ही महामानव उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह अनंत काल तक चमकते हैं। इन्हीं का निर्माण इन दिनों अभीष्ट है। महाकाल ने उन्हीं का आह्वान किया है। युग की आत्मा ने उन्हीं को पुकारा है।
प्रत्येक पंक्ति और उसका झलकता भाव बताता है कि कितना स्पष्ट चिंतन उनका तब रहा होगा, जब वे एक नये आत्मबल सम्पन्न साधक परिवार को खड़ा कर रहे थे, जिसे भावी गायत्री तीर्थ से अगणित योजनाओं को क्रियान्वित कर भारत के नवनिर्माण की प्रक्रिया को गतिशील करना था। परमपूज्य गुरुदेव ने पुनः 1989 व 1990 में दोहराया जब उन्होंने “ ज्योति कभी बुझेगी नहीं। उद्बोधन के साथ सभी परिजनों को उनके महाप्राण से इक्कीसवीं सदी आरंभ होने तक व उसके सौ वर्ष बाद तक सतत् ध्यान रखने की बात कही।
स्वरूप सामने है। सम्भावनायें अनंत है। पथ है तो कठिन किंतु लक्ष्य संभव नहीं है। अपना मनोबल कभी गिरने न पाये। पूज्यवर की विभूतियों की खोज इस सदी के प्रारंभ से चल रही थी। किंतु महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के शुभारंभ के साथ 1966 में उन्होंने इस और गति दी। 1972-73 के बीच और वेग से बढ़ाया। उनके हाथों से लिखी कुछ पँक्तियाँ जो अखण्ड ज्योति में प्रकाशित हुई थी इस दृष्टि से पठनीय है।
पूज्यवर लिखते है-अभी इन दिनों युग परिवर्तन के प्रचण्ड अभियान का शिलान्यास-शुभारंभ हुआ है। ज्ञान यज्ञ की हुताशन वेदी पर बौद्धिक, नैतिक व सामाजिक क्राँति की ज्वाला प्रज्ज्वलित करने वाली आज्याहुतियाँ दी जा रही है। जन्मेजय की नाग यज्ञ की तरह फुफकारते हुए विषधर तक्षकों को ब्रह्मतेजस् स्वाहाकार द्वारा घसीटा ही जायेगा, तो उस रोमांचकारी दृश्य को देखकर दर्शकों के होश उड़ने लगे। वह दिन दूर नहीं जब आज की अरणि मंथन से उत्पन्न स्फुल्लिंग शृंखला कुछ ही समय उपरांत दावानल बनकर कोटि-कोटि जिह्वाएँ लपलपाती हुई वीभत्स जंजालों से भरे अरण्य को भस्मसात् करती दिखायी देगी। “
अगले दिनों कोटि-कोटि के घटकों से विभिन्न स्तर से ऐसे ज्योति पुँज फूटते दिखायी पड़ेंगे जिनकी अकूत शक्ति द्वारा सम्पन्न होने वाला कार्य अनुपम ही और अद्भुत समझे जायेंगे। वहीं समयानुसार अपनी आज की मंगलाचरण थिरकन को क्रमशः तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम करता चला जायेगा। तांडव नृत्य से गगनचुम्बी जाज्वल्यमान आग्नेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तित करने की भूमिका किस प्रकार , किस रूप में अगले दिनों सम्पन्न होने जा रही है। आज उस सब को सोच सकना कल्पना परिधि में ला सकना सामान्य बुद्धि के लिए प्रायः असंभव ही है। फिर भी जो भवितव्यता है वह होकर रहेगी। युग को बदलना ही है। आज की निर्विणनिशा का कल के प्रभातकालीन अरुणोदय में परिवर्तन होना ही है। (पृष्ठ 59, 60 अप्रैल, 73 अखण्ड ज्योति)
कितना दृढ़ एवं स्पष्ट कथन है कि ये मात्र ऐसी सत्ता लिख या कह सकती है जो द्रष्टा स्तर की हो। ये सभी के सामने है। पुरातन को नूतन में बदलने की प्रक्रिया ही युग निर्माण है। एवं ये होकर ही रहना है वो भी आगामी कुछ वर्षों में। ये स्पष्ट चिंतन उभरकर सामने आता है।
आज जनमानस में छायी असुरता जिस स्तर की है उसके लिए ज्ञान यज्ञ की पतन निवारण हेतु श्रेष्ठ विचारों के विस्तार की सर्वाधिक आवश्यकता है। शान्तिकुञ्ज में चल रही वर्तमान प्रक्रिया जिसके अंतर्गत विभूतियों को नवसृजन की गतिविधियों में नियोजित करने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। जिसके अधीन विगत दिनों श्रद्धा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, साधना, सद्ज्ञान सम्वर्द्धन वर्ग के चार महोत्सव आयोजित किये जा चुके है। छावनी के रूप में, टकसाल के रूप में विनिर्मित इस केन्द्र शाँति कुँज गायत्री तीर्थ में सभी साधक स्तर के विभूतिवान् कार्यशालाओं , गोष्ठियों के माध्यम से वैचारिक आदान-प्रदान कर उन शस्त्रों का निर्माण करें जिससे विचार क्राँति होनी है। ये कार्य पूर्णतया संभव है असंभव नहीं। मात्र प्रतिभाओं के सुनियोजन की आवश्यकता भर है।
गायत्री यज्ञ साधना अनुष्ठान संस्कार महोत्सवों के माध्यम से जो युग निर्माण प्रक्रिया का अलख सारे देश में गूँजा है। विदेश तक जिसकी आवाज सुनी व बड़े व्यापक स्तर पर पहचान ली गयी है। 1999 के अंत तक सारे विश्व में वासन्ती बयार चलने लगी। इसके संकेत नजर आ रहे है। ये तो प्रचारात्मक पक्ष हुआ। जन संवेदनाओं को उभार कर सुसंस्कारिता की दिशा में मोड़ने की प्रक्रिया हुई । इसके आगे नवनिर्माण का महती पुरुषार्थ सामने खड़ा है। प्रत्येक को पेट भरने को अन्न मिले, साक्षरता के माध्यम से वो ज्ञान की महत्ता को जाने तथा प्रस्तुत संधि बेला के समझते हुए उसे भी श्रेय अर्जित करने का अवसर दिया जाय।
ये कार्य आगामी ढाई वर्षों में महापूर्णाहुति की बेला आने तक किस द्रुत गति से होगा ये महाकाल पर छोड़कर स्वयं को प्रतिकूलताओं की भँवरों के बीच से निकालते हुए पार पहुँचने की स्थिति में तैयार करना ही इस समय का सबसे बड़ा गुण धर्म है। यदि हम गुरुसत्ता पर विश्वास करते हैं -उनकी प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में यह भाव रखते हैं कि उनका वरद हस्त हमारी पीठ पर है तो हम अपने आत्मबल को निरंतर बढ़ाते हुए सक्रियता के अनुपात में और वृद्धि करेंगे एवं संकल्पित होकर लाखों वर्षों में पहली बार एक ऐसे अवसर का लाभ उठाने के लिए तत्पर हो जायेंगे जो सारे विश्व सुधा का भाग्य नये सिरे से लिखने हेतु सहज ही भागवत् मुहूर्त ही सामने खड़ा हुआ है।