यजन प्रक्रिया को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं मंत्र

November 1997

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श्रीमद्भागवत् गीता के तीसरे अध्याय के 10-12 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ। इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञीविताः॥

अर्थात्-प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को उत्पन्न करके उससे कहा- इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छित कामनाओं को देने वाला हो। तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को बढ़ाओ, वे देवता लोग तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार आपस में कर्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे। यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम्हारे लिए बिना माँगे ही अभीष्ट भोगों को प्रदान करेंगे।

यहाँ गीताकार ने यज्ञों का महत्व बताते हुए इसे देवताओं और मनुष्यों में संपर्क, सम्बन्ध व सहयोग के सघन-सूत्र स्थापित करने वाला अमोघ उपाय बताया है। कारण किसी भी कार्य में सफलता की प्राप्ति के लिए मात्र मानवीय पुरुषार्थ ही पर्याप्त नहीं है और न केवल दैवी शक्तियाँ ही सब कुछ कर सकने में समर्थ होती हैं। कल्याणकारी प्रयोजनों की पूर्ति दोनों के सहयोग से ही होता है। इस रहस्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए इस मंत्र में मनुष्यों को यह आदेश किया गया है कि वे अपना सर्वस्व यज्ञ के लिए लगा दें-

आयुर्योन कल्पताम प्राणोयज्ञेन कल्पताम् चक्षुर्योन कल्पताम् वाग्यज्ञेन कल्पताम् मनो यज्ञेन कल्पताम् आत्मा यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा।

अर्थात्-अपनी आयु, प्राण, इन्द्रियाँ, मन, आत्मा आदि सर्वस्व को यज्ञ के समर्पण करो।

इतना ही नहीं, यज्ञ के द्वारा देवों से सम्बन्ध स्थापित करने का पूरी तत्परता से प्रयत्न करने के लिए मनुष्यों के जैसी प्रेरणा देवताओं को भी दी गयी है-

देवा यहमानश्च सीदत।

अर्थात्- हे देवताओं! यजमान और तुम पास बैठो और इकट्ठे यज्ञ करो। कहने का तात्पर्य यह कि यज्ञ की महिमा अनिर्वचनीय है। इससे किसी एक का ही नहीं, वरन् समूचे जगत का कल्याण होता है। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य देवताओं से सम्बन्ध स्थापित करके उन्हें सहयोग देने के लिए बाध्य करता है और इससे संतुष्ट और परिपुष्ट हुए देवता मनुष्य को अनेक सुख-साधन एवं सुअवसर प्रदान करते हैं।

अब यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह देवता कौन है? कहाँ रहते हैं? इनसे हमारा क्या सम्बन्ध है और यज्ञ द्वारा वह क्यों संतुष्ट होते हैं? यज्ञ द्वारा उनका पोषण किस प्रकार होता है? उनका सहयोग मनुष्य को किस प्रकार प्राप्त होता है और उनमें ऐसी कौन सी सामर्थ्य है जिसके द्वारा संसार को वे लाभ पहुँचा सके। बिना यज्ञ के संसार को लाभ पहुँचाने में उन्हें क्या अड़चन होती है? इन सब प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक है, ताकि उपरोक्त अभिवचनों का तात्पर्य ठीक प्रकार समझ में आ जावे।

देव शब्द का सलिल अर्थ-देने वाला, सत्पुरुष, ज्ञानी, विद्वान आदि श्रेष्ठ व्यक्ति है। ऐसे सत्पुरुषों को सहयोग देना, उनकी शक्तियों एवं कर्म-पद्धतियों को आगे बढ़ाने के लिए निस्वार्थ भाव से सहायता करना यज्ञ है। इस यज्ञ से दोनों ही पक्षों को अपरिमित लाभ होता है और दोनों की सम्मिलित शक्ति दूनी नहीं वरन् एक और एक मिलकर दो के स्थान पर ग्यारह गुनी हो जाती है। यह स्थूल की साँसारिक देवपूजा हुई।

दूसरे देवता वे हैं जो अदृश्य हैं। यह देवता ईश्वर की विविध प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ हैं। वैसे तो ईश्वर एक ही हैं, उसकी शक्तियाँ अलग-अलग है, उसके गुण और कार्य भिन्न-भिन्न हैं। इन्हें देव कहते हैं। इसी प्रकार प्रकृति के अंतराल में काम करने वाली सृष्टि में रचना, विकास, पोषण और संहार करने वाली अनेक शक्तियाँ हैं, यह भी देव कहलाती हैं। अनेक ग्रह-मण्डलों से जो प्रभाव किरणें (कॉस्मिक रेंज) हम तक आती हैं, उन्हें भी देव कहते हैं। सूर्य की किरणों में जो सप्तवर्णी एवं विविध गुणों वाली शक्तिधाराएँ काम करती हैं, यह भी देव हैं। देव-पुराणों में 33 कोटि देवताओं का वर्णन हैं। 33 प्रकार के परिचय इस प्रकार हैं- वसु 8, रुद्र 11, आदित्य 12, अश्विनी कुमार 1, पूषा 1-यह देवशक्तियाँ इस विश्व ब्रह्माण्ड के वातावरण में नाना प्रकार के परिवर्तन, उपद्रव एवं उत्कर्ष उत्पन्न करती रहती हैं।

देवता 33 प्रकार के, पितर 9 प्रकार के, असुर 99 प्रकार के, गंधर्व 27 प्रकार के, पवन 49 प्रकार के बताये गये हैं। शास्त्रोक्त यह बातें आश्चर्य, कौतूहल एवं अविश्वास करने योग्य नहीं हैं। यह भारतीय सूक्ष्म विज्ञान के चिरकालीन प्रयत्नों एवं अन्वेषण के साथ की हुई खोज है। किसी समय इन शक्तियों की भारतीय ऋषि-मनीषियों को भली प्रकार जानकारी थी और वे उनसे लाभ उठाकर प्रकृति के स्वामी बने हुए थे। इन अदृश्य शक्तियों की खोज करके उनका उपयोग, नियंत्रण, संचालन, आवाहन और विसर्जन उन्होंने भली प्रकार जान लिया था। अन्य लोकों तथा ग्रह-नक्षत्रों में उनका आना-जाना था। अष्ट-सिद्धियों एवं नवनिधियों के वे स्वामी थे। अणिमा, महिमा, लघिमा, ईशित्व, वाशित्व जैसी सिद्धियाँ उन्हें करतलगत होती थीं। यह सब कार्य सूक्ष्म प्रकृति की उन शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते थे, जिन्हें देव नाम से पुकारते हैं। प्रत्येक सूक्ष्म शक्ति को अध्यात्म विज्ञान के अनुसार एक देव माना गया है। पंचतत्त्वों में जल को वरुण देव, गर्मी को अग्नि, पवन को वायु देव, धरती को गौरी, आकाश को इन्द्रदेव माना गया है। इसी प्रकार सृष्टि के अंतराल में जो शक्तियाँ काम कर रही हैं, उनको भी देव संज्ञा दी गयी है।

अदृश्य शक्तियों के दो भाग हैं- एक चेतना, दूसरा क्रिया। क्रिया प्रकृति से सम्बन्धित है और चेतना ब्रह्म का अंश है। जैसे सूर्य का सलिल रुपं अग्नि पिण्ड मात्र है, जिस भौतिक विज्ञानी इसी रूप में जानते हैं, पर अध्यात्म विज्ञान के अनुसार सलिल रूप के अतिरिक्त सूर्य में एक चैतन्य प्राण भी है, जो ब्रह्म से प्रेरणा प्राप्त करता है, ब्रह्मरूप है। इसी प्रकार जल, वायु, अग्नि आदि देवों के जो स्थूल रूप हैं, उनके अतिरिक्त उनमें एक चैतन्य आत्मा भी है, जो ब्रह्म से सम्बन्धित है। जैसे मनुष्य का शरीर भीतर की प्राण-चेतना के अनुसार कार्य करता है, वैसे ही इन देवों की अन्तः चेतना ही उनकी दृश्य क्रिया का संचालन करती है। उस देव आत्मा से जब सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, तो उसके अनुसार इन जल, वायु आदि के चलाने और रोकने का कार्य होने लगता है। इन्द्र की चैतन्य सत्ता को उपासना द्वारा प्रसन्न कर लिया जाए तो मनुष्य मनचाही वर्षा कराने में सफल हो सकता है। गंगा की देवी आत्मा को प्रसन्न करके भगीरथ पृथ्वी पर गंगा नदी को लाये और उसी जलधारा को इच्छित मार्ग से समुद्र तक ले गये। प्राचीनकाल में हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि इसी प्रकार आत्म साधना, उपासना, तपश्चर्या, मंत्र, योगाभ्यास, यज्ञ आदि क्रियाओं से देव तत्वों की सूक्ष्म आत्मा से अपना सम्बन्ध स्थापित करके उनकी महान शक्तियों का भरपूर लाभ उठाते थे।

यज्ञ में मंत्रोच्चार की प्रमुख भूमिका होती है। वेदमंत्रों का गठन ही ऐसे विलक्षण एवं विज्ञानसम्मत ढंग से हुआ है कि उनका विधिपूर्वक शुद्ध उच्चारण करने से अनन्त अन्तरिक्ष में एक विशेष प्रकार के कम्पन उत्पन्न होते हैं। विशेष मंत्रों का उच्चारण करने से एक ऐसी ध्वनि लहरी उत्पन्न होती है, जो अपने शरीर के कुछ देव केन्द्रों को झंकृत करती है और आकाशस्थ देवशक्तियों को प्रभावित करती है। जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में सभी देवशक्तियाँ व्याप्त है, उसी प्रकार पिण्ड (काया) में भी उनका कोई न कोई विशिष्ट स्थान निर्धारित है। मंत्र को शब्दब्रह्म कहा गया है, मंत्र की शक्ति को वज्र या ब्रह्मास्त्र भी कहते हैं। इस शक्ति का उद्भव मंत्रोच्चारण से होता है और देहगत तथा ब्रह्माण्डगत वह देवशक्ति आपस में सम्बन्ध स्थापित करती है, परस्पर आलिंगन करती हैं और दोनों में सान्निध्य एवं सामीप्य स्थापित होता है। यजमान और देव में सम्बन्ध स्थापित करने की महान शक्ति यज्ञ में मौजूद है। स्थूल रूप से मंत्रों में विशेषकर गायत्री मंत्र में ईश्वर की प्रार्थना है, किन्तु यह कार्य तो गद्य प्रार्थना तथा पद्य कविता आदि से भी हो सकता है। जैसे सूर्य स्थूल रूप से अग्नि पिण्ड और सूक्ष्म रूप से प्रसवित सविता है, उसी प्रकार मंत्र स्थूल रूप से शिक्षा प्रद प्रार्थना’ और सूक्ष्म रूप से सृष्टि की अत्यन्त ही महत्वपूर्ण एवं प्रचण्ड शक्तिशाली देवशक्तियों से जीवन का सान्निध्य कराने वाले रहस्यपूर्ण माध्यम है। मंत्र की शक्ति महान है, तभी तो मानसकार ने इसे - “मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि रि सुर सर्व” कहा है।

मंत्र शब्दब्रह्म है। शब्द की महान शक्ति से हमारे ऋषि परिचित थे। आधुनिक विज्ञान ने शब्दशक्ति की जानकारी प्राप्त करके बेतार के तार एवं राडार जैसे यंत्र उपकरणों का विकास किया है। मंत्र का राडार इससे कहीं अधिक शक्तिशाली है जो लोक-लोकान्तरों तक आसानी से पहुँच जाता है। उसकी पहुँच देवों तक, देवलोकों तक, देवशक्तियों तक भली प्रकार हो जाती है।

तंत्र विज्ञान में मारण, मोहन उच्चाटन वशीकरण स्तंभक जैसे शब्दों का प्रयोग होता है। मारण किसी व्यक्ति को जान से मार डालना मोहन किसी की बुद्धि को मोहित कर लेना, उच्चाटन किसी व्यक्ति का मन जमे हुए काम, स्थान या विचार पर से उचाट देना वशीकरण हिप्नोटिज्म की भाँति किसी व्यक्ति को आज्ञानुवर्ती बना देना। शास्त्र और यंत्रों का संचालन मंत्रों द्वारा करने की विद्या तो हमारे देश में किसी समय बहुत साधारण हो गयी थी। आज वह विद्या लुप्तप्राय भले ही हो गयी हो, पर किसी मय वह उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर थी और ऐसी आशा करनी चाहिए कि उसका पुनः उत्कर्ष होगा।

शब्द की शक्ति महान है, फिर वेदों में जिस वैज्ञानिक ढंग से शब्दों का गुँथन हुआ है, उसकी महत्ता तो अनिर्वचनीय ही है। इन शब्दों का मर्म एवं रहस्य कोई ठीक प्रकार समझ ले, इन शब्दों में छिपी हुई प्रेरणाओं शिक्षाओं विद्याओं एवं शक्तियों से अवगत हो जाए, तो उनके लिए यह मंत्र कामधेनु के समान सब कुछ दे सकने वाले बन जाते हैं। महर्षि पतंजलि का ऐसा ही अभिमत है - एकः शब्दः सम्यक् ज्ञात सुप्रयुक्त, र्स्वगलोके कामधुग्भवति। अर्थात् श्रफति का एक अब्द भी ठीक प्रकार जानकर उसको भली प्रकार काम में ले आवे, तो वह एक शब्द ही कामधेनु तथा स्वर्गीय सुख का दाता होता है।

देवशक्तियों एवं मंत्र की महत्ता पर संक्षिप्त प्रकाश यहाँ इसलिए डाला गया है कि इन दिनों संस्कार महोत्सवों के क्रम से जो यज्ञ शृंखला चल रही है, उसमें होने वाले मंत्रोच्चारण का महत्व समझने में सुगमता हो। विभिन्न प्रकार के यज्ञों में अलग-अलग प्रकार की सामग्री काम में आती हैं, क्योंकि उनके प्रयोजन, मंत्र विधान एवं देव भिन्न होते हैं।

एक उपचार योग मनोविकार प्रेतबाधा

भूतबाधा के नाम से प्रचलित एक प्रकार के आवेश का लक्षण एवं प्रभाव ऐसा होता है, जिसे देखते हुए उसे बहानेबाज़ी या सनक भी नहीं कहा जा सकता। उसके प्रभाव प्रत्यक्ष दीखते हैं। उन कारणों से रोगी का जीवनक्रम ही अस्त व्यस्त नहीं हो जाता, कई बार तो जान पर बन आती है और बुरी तरह बर्बादी उठानी पड़नी है। ऐसी दशा में उसे झुठलाया कैसे जाए। इसमें प्रेतबाधा का खेल भी शामिल हो सकता है, पर हर परिस्थिति में यह बात सही नहीं होती। कई बार कई लोग इस संकट में बुरी तरह फँसे पाये जाते हैं।

फिर ऐसे उपद्रव या आक्रमण प्रेत ही करते हों, आवेश या उन्माद खड़े करते हो यह बात प्रेत-विज्ञान से प्राप्त जानकारियों से सर्वथा भिन्न है। मृतात्माओं का अस्तित्व होना उनका व्यक्ति विशेष के साथ संबंध जुड़ना एक बात है। समझदार लोगों में वैसा कुछ क्यों नहीं होगा ?

यह प्रश्न ऐसे है जो अपना निश्चित समाधान माँगते हैं। इस संदर्भ में विज्ञजनों ने लम्बी खोजों के बाद इस स्थिति को अचेतन मन की विलक्षण विकृति कहा है। ऐसी या इससे मिलती जुलती विकृतियाँ संसार भर में देखी गई है, जिन्हें कोई चाहे तो प्रेम बाधा भी कह सकता है।

शारीरिक रोगों की बढ़ोत्तरी के इस युग में मानसिक रोगों की भी चित्र विचित्र किस्में निकली है। उन्माद आमतौर से उसे कहा जाता है, जिसमें व्यक्ति सामान्य लोक व्यवहार और चिंतन की मर्यादाओं का व्यतिक्रम करके कुछ भी सोचने और कुछ भी करने लगे। इन्हें एक विशेष प्रकार की सनक कहा जा सकता है जो यदा कदा उभरती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं जो स्वभाव में अपने लिए स्थान बना लेती है।

उत्तरी ध्रुव पर निवास करने वाले एस्किमो लोगों में कभी कभी किसी किसी पर एक भयानक मानसिक रोग चढ़ दौड़ता है। इसमें वह आपे से बाहर हो जाता है और ऐसा लगता है कि कोई उससे यह सब बलपूर्वक करा रहा है।

आँखें लाल हो जाती है, माँसपेशियाँ जकड़ जाती है, पसीना छूटता है। आवेशग्रस्त मनः स्थिति में पत्नी तक रेडियम हिरन जैसी दीखती है और उस पर आक्रमण कर बैठने पर उतारू दीखता है। मुँह से जार टपकती है। भूख से तड़पता है और जो भी हाथ पड़े, खाने लगता है। स्थिति पूर्णतया उन्मादी जैसी होती है।

यह उस क्षेत्र का प्रख्यात रोग है। इसे उस क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टरों ने विन्डेगो ना दिया है। वहाँ के निवासी इसे हिममानव का आक्रमण है, जो भूखा होने पर किसी को भी क्षुधा निवृत्ति के लिए चुन सकता है, जिसे पकड़ता है, उसे फिर जीवित नहीं छोड़ता।

उन्माद जब अस्तिर पर होता है, तो रोगी किसी को भी मार डालने जैसे आक्रमण करता है। साथ ही यह भी कहता है कि यदि बचना है तो मुझे उन्हें अपना वफादार सहयोगी मानकर पुरस्कार भी देता है।

कनाडा के डाक्टरों ने इसे रोग के संबंध में गहरी छानबीन की है और उस व्यथा को विन्डिगो साइकोसिस नाम दिया है। पर उसकी रोकथाम के उपाय अपनाये गये हैं, तो स्थिति और घटनाक्रमों का अनुपात कम होता जा रहा है।

मानस रोगों के प्रत्यक्ष कारणों से व्यक्तिगत दुश्चिन्तनों अरुचिकर सामाजिक प्रचलनों अनपेक्षित दबावों को प्रमुख माना जाता है। जिनकी भौगोलिक एवं वातावरण संबंधी चुम्बकीय परिस्थिति किन्हीं पर अतिरिक्त प्रभाव डाले और उसे इस प्रकार उन्माद में जकड़ दें।

साइकोलाजिस्टों और एन्थ्रोपोली जिस्टो के एक वर्ग ने इसे हिस्टेरिया की तरह छूत स्तर का माना है। भूतोन्मादों के पीछे यही प्रक्रिया काम करती है। वे सर्वत्र नहीं होते। किसी विशेष क्षेत्र या समुदाय में ही उनकी धूम रहती है। यह व्यथा छूत की तरह एक से दूसरे को लगती है। दुखती आँखों को देखने भर से अच्छी आँखें भी दुखने लगती है। जुकाम वालों की समीपता से अन्य दुर्बल प्रकृति के लोग भी वैसी ही शिकायत करने लगते हैं बड़ों को भूत से आक्रान्त देखकर छोटों के मन पर भी वह कुहासा जमने लगता है, जो अनुकूल अवसर मिलने पर फूट निकलता है। जिनके परिवार मुहल्लों में भूत प्रेतों की घटनाएँ होती रहती है। कथानकों से प्रभावित ऐसे लोग भी इस व्यथा में फँस जाते हैं, जिनकी मानसिक संरचना में उन्माद प्रकट होने की आशंका नहीं की जाती थी।

मलेशिया की महिलाओं में ‘लता’ नामक भयाक्रान्त रोग होता है, यदि उनसे आग में हाथ डालने को कहा जाए तो रोगिणी आग में हाथ देगी। ऐसा ज्ञात होता है। कि यह रोग परम्परागत होता है, महिलाएँ पश्चिमी नकल को बाध्य की गयी थी। लता मात्र अन्धाधुन्ध नकल की मानसिक दासता का प्रतीक है।

मलेशिया का मानस रोग एमोक बड़ा भयानक है। युवा रोगी विक्षिप्त होकर छुरा भोकता फिरता है। उसका कारण नौकरी से निकाला जाना या परीक्षा की असफलता आदि होती है। अनेक मनुष्यों को घायल होते हो तो उस पर काबू पाया जाता है। जबकि देशभक्त स्वराज्य प्राप्त एमोक पर निकल पड़ते थे और देश के लिए मर मिटने को निकल पड़ते थे। धर्म परिवर्तन के समय वे मरने को अधिक पसन्द करते थे। एमोक से मृत व्यक्तियों का सम्मान 1850 तक था उसके बाद यह मानस रोग माना जाने लगा है। किन्तु रक्त के संस्कार तो बने ही रहते हैं।

विश्व के विभिन्न स्थानों में मानसिक रोग विभिन्न रूप लेते हैं। स्थान की संस्कृति जलवायु जलप्रपात तथा परम्परागत अन्धविश्वास मानस संस्थान पर छाये रहते हैं। यह बात मात्र पिछड़ी जातियों तक ही सीमित नहीं वरन् पढ़े लिखे आधुनिक सभ्यता में पले लोगों को भी होती है।

इंग्लैण्ड के एक परिवार में पीढ़ियों से यह मान्यता चली आयी है कि उसका हर नर सदस्य 50 वर्ष की आयु से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। पिछले दिनों एसोसिएट्स प्रेस के माध्यम से 26 अक्टूबर, 1983 सातवें स्टेटलमैन अख़बार में एक समाचार छपा कि सातवें अर्ल क्रेवन ने जो गत पाँच वर्षों से आसन मृत्यु से भयभीत था, 26 वर्श की आयु में ही स्वयं को गोली मारकर आत्म हत्या कर ली। थामस राबर्ट डगलस क्रेवन शाही परिवार की सातवीं पीढ़ी के एकमात्र पुरुष सदस्य थे।

कहा जात है कि इनके पिता 35 वर्श की आयु में व दादा मात्र 37 वर्ष की आयु में नाव में डूबने से अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए थे। यही इतिहास परिवार के हर सदस्य का है। कुछ लोग इसे एक भय की आत्म सम्मोहन की स्थिति कहते हैं, जिसमें हर व्यक्ति संभाव्य को सच मानकर ही जिया है व उसने मानो लोकोक्ति को ही सही सिद्ध करने के लिये आत्महत्या की है।

एन्थ्रोपोलोजिस्ट चार्ल्स लिन्हाम का कथन है कि पिछड़े क्षेत्रों में पाया जाने वाला उन्माद भूतोन्माद कहा जाता था जिसके प्रति उपेक्षा व्यंग्य उपहास का ही प्रयोग होता था। अब वह नये रूप से शिक्षित समुदाय में भी नई नई सनकों और उमंगों के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा है। उसे भूतकाल की पुरातन पृष्ठभूमि पर नई परिस्थितियों के अनुसार उगा नये किस्म का किन्तु उसी प्रकृति का पौधा कहा जा सकता है।

प्रेत बाधा या भूतोन्माद का न उपहासास्पद ठहराया जाए और न उसकी उपेक्षा की जाए। यदि बहाने बाजी पाई जाए तो उसका पर्दाफाश किया जाए, किन्तु यदि वस्तुतः कोई इस व्यथा से आक्रान्त है, तो उसका एक मानसिक रोगी की तरह उपचार किया जाए। खोजने पर जैसे अन्य रोगों के समाधान मिल गये इस प्रकार इस विक्षेप के निराकरण का भी युक्तिसंगत मार्ग मिल सकता है।

सभ्यता और धर्म के समन्वय का नाम संस्कृति है। जिस तरह इड़ा और पिंगला के योग से सुशुम्ना का गंगा और यमुना के योग से त्रिवेणी का आविर्भाव होता है, उसी प्रकार संस्कृति धार्मिक परिप्रेक्ष्य में तो अन्तर्मुखी जीवन के विकास की प्रेरणा देती है, और सभ्यता के रूप में वाह्य जीवन को भी शुद्ध और ऐसा बनाती है, जिसमें एक मनुष्य किसी भी दूसरे प्राणी के हित का अतिक्रमण न करता हुआ, जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे।

समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान (वाङ्मय खण्ड क्र. 35)

योगीराज श्रीकृष्ण की समग्र क्रान्ति अब इस रूप में स्वामी विवेकानन्द, योगी अरविन्द घोष जैसे द्रष्टाओं-महापुरुषों ने भारत को पुनः अपनी महानता प्राप्त करने की सुनिश्चित घोषणाएँ की हैं। भारत को पुनः विश्व का आध्यात्मिक मार्ग दर्शन करना है। इसके हेतु अपने को प्रभावशाली स्थिति में लाने के लिए उसे आर्थिक एवं सैन्य शक्ति के रूप में भी उभरना होगा, लेकिन उसकी वास्तविक भूमिका आध्यात्मिक ही है। आर्थिक प्रगति के लिए बड़े पैमाने पर मशीनीकरण से पर्यावरण को तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का वर्चस्व बढ़ने से भारत की आत्मनिर्भरता को खतरा होने लगा है। इस अर्थप्रधान युग में आर्थिक परावलम्बन का अर्थ परतन्त्रता जैसा ही कुछ होता है। प्रकृति को ‘माता’ कहने वाले भारत में पर्यावरण की शुद्धता तथा ‘पूर्ण बन्धन मुक्ति’ को जीवन-लक्ष्य मानने वालों के लिए आत्मावलम्बन दोनों ही अत्यधिक आवश्यक हैं। क्या किया जाए ? इस संदर्भ में ‘महान भारत’ की स्थापना के लिए ‘महाभारत’ रचाने वाले योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा प्रदर्शित कुछ सूत्र अत्यन्त उपयोगी हो सकते हैं।

कलेवर सँवारे, आत्मा को न भूले

स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, श्री अरविन्द, महामना मालवीय, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे, डॉ0 राधाकृष्णन, लोकनायक जयप्रकाश आदि न भारत के विकास के लिए पाश्चात्य औद्योगीकरण को भी एक सीमा तक अपनाने की सहमति दी है। इसमें कायकलेवर तथा बुद्धि-कौशल के साथ भाव-संवेदनाओं को संतुलित अनुपात में बनाए रखने पर भरपूर जोर दिया गया है।

आज भौतिक विज्ञान के युग में भौतिक संसाधनों के विकास को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता, लेकिन उसे भौतिक कलेवर से अधिक महत्व भी नहीं दिया जाना चाहिए। इस भौतिक दौड़ में भारत की आत्मसत्ता की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण योगीराज थे। उन्होंने अपने समय में भौतिक प्रगति के साथ भावनात्मक विकास का सुन्दर योग कर दिखाया था। उन्होंने भारत के सर्वांगीण विकास के लिए समग्र क्रान्ति की योजना बनायी थी। पू0 गुरुदेव ने बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति के जिन तीन अनिवार्य चरणों की बात की है, वे भगवान श्रीकृष्ण की समग्र क्रान्ति के भी अंग थे।

ज्ञान क्राँति के उद्घोषक के रूप में वे गीतकार हैं। उनके ज्ञान की प्रखर और प्रबल धारा का जोहा सारा संसार मानता है।

नैतिक क्राँति, भावनात्मक नवनिर्माण के लिए वे भक्तिरस के संचारक हैं। उनकी भक्तवत्सल, लोकहित के लिए समर्पित भाव को कोई नकार नहीं सकता।

सामाजिक क्राँति-नायक के रूप में उन्होंने वृज में गोरस सत्याग्रह से लेकर महाभारत तक का संचालन किया। इन सबके पीछे उनके दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन का, युगधर्म की स्थापना का सुदृढ़ संकल्प कार्य करता दिखाई देता है। सामयिक कार्यक्रमों के रूप में उन्होंने अनेक अभियान चलाए, लेकिन भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के स्थाई सूत्र के रूप में उन्होंने किस ओर संकेत किया है, वह उन दोनों भाइयों द्वारा अपनाए गए सम्बन्धों में प्रकट होता है।

हलधर-गोपाल की जोड़ी श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम हलधर थे तथा वे स्वयं गोपाल कहलाए। इस संबोधनों को अपनाने के पीछे उनकी विशेष मंशा झलकती है। भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ भी उपजाऊ भूमि में अन्न, फल से लेकर औषधियों वनस्पतियों की अटूट सम्पदा उपजती रहती है। यही सम्पदा पर्यावरण संतुलन के लिए भी आवश्यक है। इस सम्पदा को विकसित करने की साधना का नाम कृषि और उक्त साधना में निष्ठापूर्वक लगे रहने वाले साधक का नाम कृषक । कृषक का ही प्रतीक चिन्ह है हलधर । श्रीकृष्ण अग्रज ने हलधर कहलाना पसन्द किया। वे कृषि संवर्द्धन के लिए समर्पित व्यक्ति रहे।

भारत को कृषि प्रधान देश मानकर कृषि के उत्कर्ष की बात सोचना योगीराज के सामाजिक उत्कर्ष के सूत्र का एक ही पक्ष हुआ। हम गोपाल के गूढ़ महत्व को भूल गये तथा पहले दूध व्यापार और फिर माँस व्यापार से संपन्न बनने के क्रूर प्रयास करने लगे। इस क्रम में हम पशु धन के प्रति तो क्रूर बने ही, पर्यावरण और मानवीय संवेदना के हनन में भी हमें संकोच नहीं रह गया है।

गोरस आन्दोलन

भगवान कृष्ण ने धन के लोभ में गोरस बेचे जाने के विरुद्ध वृज में सबसे पहले सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा था। धन के लोभ में बछड़ों और बालकों को गोरस से वंचित करके उसे राक्षसों को उपलब्ध कराने का उन्होंने कड़ा विरोध किया था। बछड़ों को दूध पीने के लिए चुपचाप छोड़ देने से लेकर छिपकर बालकों को गोरस बेचने जाने वालों की हाँड़ी तोड़ देना उनके इसी आन्दोलन का अंग था।

क्रूरता का स्रोत

धन के लोभ में गोरस बेचा जाता है, तो क्रूरता पनपती है। पहले बछड़ों और बच्चों का हक मारा जाता है। फिर अधिक दूध चोड़ने के लिए फूँका लगाने से लेकर हारमोन्स के इंजेक्शन देने जैसी अमानवीय हरकतें की जाती है। जब दूध कम मिलता है तो माँस से धन वसूलने की सीमा तक पहुँच जाते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने इस क्रूरता के चक्र को तोड़ने के लिए ही आन्दोलन चलाया। उस समय के हिसाब से उन्होंने गो-पूजन जैसी भावभरी परिपाटियाँ चलायी थीं आज की परिस्थितियों में हमें उसी तथ्य को कुछ भिन्न प्रकार से समझना और समझाना होगा।

दूध एवं माँस बेचकर धन कमाने की अपेक्षा उसके बिना ही पशु धन गोधन की उपयोगिता सिद्ध करनी होगी।

पशु धन के पक्ष में

यदि हम मानवीय संवेदनाओं तथा पर्यावरण की रक्षा करना तथा अपना कर्तव्य समझते हैं, तो हमें अपनी सोच में कुछ आधारभूत परिवर्तन करने होंगे।

हमें अधिक धन कमाना है, इसके लिए पशुपालन करना है, यह विचार बदलना होगा। यह मानना होगा कि हमें मानवीय संवेदनाओं और पर्यावरण के लिए पशुओं के साथ सद्व्यवहार करना है। उनकी रक्षा हमारे लिए आर्थिक भार बने, इस स्तर तक अवश्य विचार करना होगा। इस दृष्टि से बहुत कुछ समझा और किया जा सकता है।


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