आस्था संकट का निवारण इस तरह होगा

November 1997

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पिछले दिनों बुद्धिमान सवं विज्ञान का जो विकास हुआ है, उसने भौतिक सुविधाओं को भले ही बढ़ाया हो, आध्यात्मिक आस्था को दुर्बल बनाया है। विज्ञान ने जब मनुष्य को एक पेड़-पौधा मात्र बनाकर रख दिया और उसके भीतर किसी आत्मा को मानने से इनकार कर दिया, ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत किया। इस सृष्टि को सब कुछ अणुओं की स्वाभाविक गतिविधि के आधार पर स्वसंचालित बताया तो स्वभावतः विज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर अति प्रामाणिक मानने वाली बुद्धिवादी नयी पीढ़ी उसी मान्यता को शिरोधार्य क्यों न करेंगी? प्रत्यक्ष है कि विचारशील वर्ग अनास्थावान् होता चला जा रहा है और यह एक भयानक परिस्थिति है, क्योंकि एक बुद्धिजीवी वर्ग के पीछे जनता के अन्य वर्गों के चलने के लिए विवश होना पड़ता है। आज के थोड़े से अनास्थावान् बुद्धिजीवी कल-परसों अपनी मान्यताओं से समस्त जन-समाज को आच्छादित किये हुए होंगे।

आध्यात्मिक मान्यताएँ सदाचार, सहयोग, सद्भाव, सेवा, सद्भावना, पुण्य, संयम एवं त्याग बलिदान जैसी सत्प्रवृत्तियों की रीढ़ हैं। आत्म कल्याण, ईश्वरीय प्रसन्नता, पुण्य परमार्थ, स्वर्ग-नरक कर्मफल आदि मान्यताओं के आधार पर ही मनुष्य अपनी चिरसंचित पशुता-पाशविकता पर नियंत्रण करने और लोक कल्याण के लिए नितांत आवश्यक सत्प्रवृत्तियों को चरितार्थ करने में समर्थ होता है। यदि वह आधार ही नष्ट हो गया-यदि उन आधार पर नष्ट हो गया-यदि उन मान्यताओं को कपोल-कल्पित मान लिया गया, तो फिर न किसी को संयमी बनने की आवश्यकता अनुभव होगी, न सदाचारी होने की। न पुण्य अभीष्ट होगा, न पुरुषार्थ। न त्याग की कोई बात करेगा, न बलिदान की। फिर मनुष्य खाओ-पीओ मौज उड़ाओ के आदर्श को अपनाकर हर अनैतिक कार्य करने के लिए तैयार हो जायेगा ताकि वह अधिक मौज-मजा उड़ाने का अधिक अवसर प्राप्त कर सके। कानूनी पकड़ एवं दण्ड से बचने का रास्ता अब अति सरल है। कानून बहुत ही ढीले-पोले है। फिर जिन पर कानून पालने के लिए विवश करने की, दण्ड देने-दिलाने की जिम्मेदारी है, वे राज्य कर्मचारी ही कहाँ दूध के धुले है? अपराधी से साठ-गाँठ रखने की कला उन्हें भी आ गई है और उस दुर्बलता से हर भ्रष्टाचारी, हर सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला पूरा-पूरा लाभ उठाता है, उठा सकता है। केवल कानून के द्वारा अपराध रोक सकने की बात सोचना उपहासास्पद है। मनुष्य केवल अपनी अंतरात्मा की पुकार और ईश्वरीय सत्ता के रोक-अनुग्रह का विचार स्मरण रखकर ही कुमार्ग से बचता और सन्मार्ग अपनाता है। यदि आत्मा और ईश्वर कोई है ही नहीं, कर्मफल देने की कोई अज्ञान व्यवस्था है ही नहीं, तो फिर पाप प्रवृत्तियों को अपनाकर शौक-मौज के साधन जुटाने को कोई चूके क्यों? आज यही विचार बुद्धिजीवी पीढ़ी के मस्तिष्क में घूम रहे है और उनका नैतिक स्तर दिन-दिन दुर्बल होता चला जा रहा है।

यह विभीषिका इतनी भयानक है कि इसकी भावी सम्भावनाओं का स्मरण करने मात्र से आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। शुतुरमुर्ग की तरह बालू में मुँह ढँक कर खतरा टल गया, ऐसा सोचना मूर्खता है। सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा ऐसी मान्यता वास्तविकता से दूर है। जहाँ धर्म-अध्यात्म का प्रकाश नहीं पहुँचा है, ऐसे अफ्रीका आदि प्रदेशों के जंगली लोग अभी भी नरमाँस खाते और एक से एक बढ़ कर घृणित एवं नृशंस रीति-रिवाज अपनाये बैठे है। अपने आप सब कुछ ठीक होने वाला होता, तो सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक लाखों वर्षों में वे अपने आपको सभ्यता के उच्च स्तर तक ले आने में समर्थ हो गये होते। अपने आप कुछ नहीं होता-सब कुछ करने से होता है। ऋषियों ने लाखों वर्ष तक तप, त्याग, मनन चिंतन करके अध्यात्म और धर्म का अति महत्वपूर्ण कलेवर खड़ा किया है। उसे जन मानस में प्रविष्टि कराने के लिए अगणित साधु ब्राह्मणों ने तिल-तिल करके अपना जीवन जलाया है। अगणित धर्मग्रंथ लिखे गये हैं और उन्हें पढ़ने, सुनने, समझने तथा हृदयंगम करने की स्थिति उत्पन्न करने के लिए अगणित मानवतावादी परम्पराओं या रीति-रिवाजों प्रक्रियाओं, पूजा-पद्धतियों एवं कर्मकाण्डों का प्रचलन किया है। लगातार उस विचारधारा से सम्पर्क बनाये रखने के लिए उन्होंने धर्म एवं अध्यात्म का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया है।

यदि ऋषियों द्वारा प्रादुर्भूत धर्म संस्कृति का आविर्भाव न हुआ होता तो अन्य प्रदेशों की उद्धत जंगली जातियों की तरह समस्त जन-समाज पशु-प्रवृत्तियों अपनाये होता और उसकी बौद्धिक विशेषता पतनोन्मुख होकर इस संसार में पैशाचिक कुकर्मों की आग जला रही होती। ईश्वर अपने आप सब कुछ कर लेगा, यह सोचना ठीक नहीं। गत 80 वर्षों में संसार का 80 फीसदी भाग बौद्धिक एवं राजनैतिक स्तर पर साम्यवादी शासन के अंतर्गत आ गया। जिस तीव्रगति से अब वह चक्र घूम रहा है, उसे देखते हुए अगले 20 वर्ष में शेष 20 प्रतिशत भाग भी उसी मान्यता के क्षेत्र में चला जा सकता है।

बुद्धिवाद और विज्ञान के द्वारा प्रतिपादित उन मान्यताओं के संबंध में हमें सतर्क होना होगा , जो मनुष्य को अनास्थावान् एवं अनैतिक बनाती है। विचारों को विचारों से, मान्यताओं को मान्यताओं से, प्रतिपादनों को काटा जाना चाहिए। समय-समय पर यही हुआ है। वाममार्गी विचारधारा को बौद्धों ने हटाया और बौद्ध धर्म के शून्यवाद का समाधान जगद्गुरु शंकराचार्य के प्रबल प्रयत्नों द्वारा हुआ।

उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति अनास्था उत्पन्न करने वाली आज की बुद्धिवादी और विज्ञानवादी मान्यता तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती चली जा रही है। उसकी भयंकरता की दुर्धर्ष संभावना का मूल्याँकन कम नहीं किया जाना चाहिए। उसका प्रतिरोध करने के लिए तत्परतापूर्वक खड़ा होना चाहिए। युग के प्रबुद्ध व्यक्तियों की यह महती जिम्मेदारी है। इसकी न तो उपेक्षा की जानी चाहिए और न अवज्ञा। हमें एक ऐसा विचार मोर्चा खड़ा करना चाहिए जो भौतिक वादी अनास्था से पूरी तरह लोहा ले सके। यदि यह कार्य सम्पन्न किया जा सका तो समझना चाहिए कि मानव जाति के मस्तिष्क को, धर्म-संस्कृति और अध्यात्म की, अंधकार के गर्त में गिरने से बचा लिया गया।

समय रहते चेतने में ही बुद्धिमानी है। बुद्धिमत्ता की भूमिका प्रस्तुत करनी चाहिए। वही शुभारम्भ किया भी जा रहा है। बुद्धि सम्पन्न एवं विज्ञान सम्मत अध्यात्म के प्रतिपादन की चर्चा इसी दृष्टि से की जा रही है। यह कहना सही नहीं कि धर्म, अध्यात्म, ईश्वर, आत्मा आदि का प्रतिपादन बुद्धि का नहीं, श्रद्धा का विषय है। अंध-श्रद्धा नहीं विवेक सम्पन्न श्रद्धा ही स्थिर और समर्थ हो सकती है। प्राचीनकाल के ऋषियों ने भी बुद्धि की शक्ति से ही अध्यात्म का सारा कलेवर खड़ा किया था। कार्य कठिन है। अति विस्तृत और अति श्रमसाध्य है। उसके लिए भारी मनोयोग, अध्यात्म और प्रत्युत्पन्नमति की आवश्यकता है। पर इस संसार में अभाव तो किसी वस्तु का नहीं। आखिर कठिन काम भी तो मनुष्यों ने ही किये है। यदि हम अध्यात्मवादी मान्यताओं का आज विज्ञान, तर्क और प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सकते हों तो निःसंदेह जन समाज को उसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी और यह भी निश्चित है कि जो बात अन्तःकरण की गहराई में स्वीकार की जाती है। वह आचरण में भी अवश्य उतरती है। आज अध्यात्म का प्रतिपादन जिन आदर्शों पर, जिस ढंग से किया जाता है, वे जनमानस में गहराई तक प्रवेश नहीं करते। कथा पुराणों, धर्मशास्त्रों, किम्वदन्तियों एवं परम्पराओं की प्रामाणिकता पर अब लोगों के मन में संदेह उत्पन्न हो गया है। वे उन्हें किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों की ऐसी कल्पनायें मानते हैं जिनकी उपयोगिता एवं वास्तविकता प्रमाणित नहीं होती। आज हर व्यक्ति तर्क, प्रमाण और विज्ञान को आधार मानता है। इस युग में कोई भी मान्यता केवल इस तीन आधारों पर ही प्रामाणिक एवं ग्राह्य बन सकती है।

इस युग के मनीषियों का पवित्र कर्तव्य है कि अपने समय की आवश्यकता को समझें और उसको एक व्यवस्थित विचार पद्धति विनिर्मित करने में संलग्न हों। युग निर्माण के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए यह नितांत आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए जीवन जीने की कला का व्यवहारिक अध्यात्म का प्रतिपादन शिक्षण किया भी जा रहा है। अखण्ड ज्योति पत्रिका इसी प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न है। विज्ञान और अध्यात्म का क्षेत्र सर्वथा पृथक् एक दूसरे से सर्वथा असंबद्ध है। पर अब ऐसी स्थिति नहीं रही। सर्वसाधारण की जानकारी प्रायः पिछड़ी हुई बनी रहती है। प्रगति के नवीन चरण में उसमें प्रायः अविज्ञात ही बने रहते हैं। डार्विन का विकासवादी सिद्धांत अब नयी खोजों के आधार पर उपहासास्पद बनता चला जा रहा है। नवीन शोधों ने विकासवाद और मनोविज्ञान को अध्यात्म की दिशा में काफी आगे तक बढ़ा दिया है और लगता है उनके बढ़ते जाते कदम अध्यात्म के समर्थन की दिशा में ही बढ़ रहे है। अणु विज्ञान के आचार्य आइंस्टीन की नवीन खोजों के अणु सत्ता की पीठ पर एक सचेतन उत्कृष्ट सत्ता का अस्तित्व को स्वीकार किया है और भी इस दिशा में बहुत कुछ काम हुआ है। पर वह उतने ऊँचे स्तर के क्षेत्र में है कि सर्वसाधारण तक उसकी जानकारी मुद्दतों बाद पहुँचेगी और तब तक अनास्थावादी मान्यताएँ इतनी प्रखर हो जायेंगी कि उन्हें हटाना, मिटाना संभव न रहेगा।

दर्शन और तत्त्वज्ञान के उद्गम से ही कोई विचार-पद्धति एवं आचार प्रक्रिया प्रादुर्भूत होती है। अध्यात्म का दर्शन और तत्त्वज्ञान प्रतिपादन करने के लिए ही वेद, उपनिषद्, दर्शन, ब्राह्मण आरण्यक आदि का आविर्भाव हुआ। ईश्वर जीव प्रकृति के विभिन्न भेद-उपभेदों की चर्चा रही। दर्शन ही विचार और आचरण का मूल आधार है, इसलिए ईश्वर आत्मा, धर्म, स्वभाव कर्मफल आदि के दार्शनिक सिद्धांतों को सही ढंग से प्रतिपादित करना होगा। संसार की दिशा मोड़ने वाले दार्शनिकों ने मानवीय आस्थाओं का मूलभूत विश्लेषण अपने ढंग से किया है और यदि वह लोगों को ग्राह्य हुआ, तो निस्संदेह जनसमूह की गतिविधि भी उसी दिशा में सोचने, करने और बढ़ने के लिए प्रेरित प्रभावित होगी। अब भी यही किया जाना है। हम अध्यात्म के दार्शनिक सिद्धांतों का विज्ञान तर्क और प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सके, तो निस्संदेह जन-मानस को पुनः उसी प्रकार सोचने और करने को तत्पर किया जा सकता है। जिस पर कि भारतीय जनता लाखों वर्षों तक आरुढ रहकर समस्त विश्व का प्रकाशपूर्ण मार्गदर्शन करती रही है।


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