सद्गुरु के स्वर

November 1997

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

अन्तःकरण के मौन में गुरुदेव की परावाणी गूँजती है-अहो । मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ । तुम चाहे जहाँ जाओ, वहाँ मैं उपस्थित हूँ ही । मैं तुम्हारे लिए ही जीता हूँ । अपनी अनुभूति के फल मैं तुम्हें देता हूँ । तुम मेरे हृदय-धन हो । मेरी आँखों के तारे हो । प्रभू में हम एक हैं । मैं सदा-सर्वदा तुमसे एकता की अनुभूति करता हूँ । तुम्हें कठिन संघर्षों की धधकती-ज्वालाओं में झोंक देने में मुझे भय नहीं होता, यह इसलिए क्योंकि मैं तुम्हारी शक्ति की मात्रा को जानता हूँ । मैं तुम्हें अनुभवों के बाद अनुभवों में भेजता हूँ, किन्तु तुम्हारे इस भ्रमण में मेरी दृष्टि सदैव तुम्हारा पीछा करती रहती है । तुम जो भी करते हो, वह सब मेरी उपस्थिति में करते हो ।

मेरे विचारों में, मेरे साहित्य में मेरी इच्छाओं को ढूँढ़ो । उन शिक्षाओं का अनुसरण करो, जो मेरे गुरु ने मुझे दी थीं और जिसे मैंने तुम्हें दिया है । जो एक है, उसी का दर्शन करो, तब तुम मेरे सहस्रों शरीरों के साथ रहकर जितनी एकता का अनुभव करते उससे कहीं अधिक एकता का अनुभव करोगे । मेरी इच्छा और विचारों के प्रति जागरूकता, अस्मिता और भक्ति में ही शिष्यत्व है । हम दोनों बीच असीम प्रेम है । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध वज्र से भी अधिक दृढ़ होता है । वह मृत्यु से भी अधिक सशक्त होता है ।

इस सत्य को अनुभव करते हुए यह ध्यान रखो वत्स !इन्द्रियाँ सदैव आत्मा के विरुद्ध संघर्ष करती हैं । अतः सतत् सावधान रहो । इन्द्रियों पर विश्वास न करो । ये सुख तथा दुःख के द्वारा विचलित होती रहती हैं । उनके ऊपर उठ जाओ । तुम आत्मा हो, मेरे अविनाशी अंश । शरीर का किसी भी क्षण नाश हो सकता है । सचमुच कौन उस क्षण को जानता है ! इसलिए सदैव अपनी दृष्टि लक्ष्य पर सुस्थिर रखो । अपने मन को मेरे विचारों से परिपूर्ण कर लो । मृत्यु के क्षणों में नहीं, किन्तु जीवन के इन्हीं क्षणों में अपने मन को मुक्त और पवित्र रखो । तब यदि मृत्यु अकस्मात् तुम्हें ग्रास बना ले तो भी तुम प्रस्तुत हो । इस प्रकार जीवन जियो मानो इसी क्षण तुम्हारी मृत्यु होने वाली है । तभी तुम सच्चा जीवन जी सकोगे । समय भाग रहा है । यदि तुम शाश्वत तथा अमर विचारों में डूबे रहो, तभी भागते समय को शाश्वत बना सकोगे ।

हर किसी को अपने आदर्श के लिए अनेकों तरह के कष्ट सहने पड़ते हैं । तुम भी सभी प्रकार की कसौटियों को सहो, विपत्तियों का सामना करो । आदर्श का जीवन जियो तथा ईश्वर के नाम पर निर्भीक बनो । भगवान पर सच्ची निर्भरता सभी भयों को भगा देती है । तुम मेरे सन्तान हो । जीवन में या मृत्यु में, सुख या दुःख में, भले या बुरे में जहाँ भी तुम जाओ, जहाँ भी तुम रहो, मैं तुम्हारे साथ हूँ । मैं तुम्हारी रक्षा करता हूँ । मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ, क्योंकि मैं तुमसे बँधा हूँ । ईश्वर के प्रति मेरा प्रेम मुझे तुम्हारे साथ एक कर देता है । मैं तुम्हारी आत्मा हूँ । वत्स ! तुम्हारा हृदय मेरा निवास स्थान है । फिर चिन्ता किस बात की-निश्चिन्त रहो, निर्भीक बनो ।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118