ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है- ब्रह्मचर्य में

November 1997

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अष्टावक्र के हृदय में ब्रह्मविद्या की अभीप्सा प्रबल हो उठी थी। ‘अयमात्मा ब्रता’ का रहस्य जानने के लिए उनका अन्तःकरण व्याकुल था। अपनी इस व्याकुलता को समेटे हुए वह सुविख्यात ब्रतावेत्त महर्षि वदान्य के आश्रम में जा पहुँचे। अपने सामने ब्रह्मविद्या के यथार्थ जिज्ञासु को पाकर महर्षि की आँखों में एक अनोखी दीप्ति उभर आयी। उनकी कोमल भावनाएँ मुखमण्डल पर उभरें, इसके पहले ही उन्होंने इन सब भावों को अन्तःकरण में ही दबाते हुए कहा-पुत्र ! मैं तुम्हारी अभीप्सा से परिचित हूँ। परन्तु मैं तुम्हारी जिज्ञासा को शान्त करूं, तुम्हें समर्थ ब्रह्मवेत्ता बनाऊँ, इसके पहले तुम्हें मेरी एक आज्ञा माननी होगी।”

अष्टावक्र ने शिष्योचित विनम्रता से पूछा, “ वह क्या महर्षि ?”

महर्षि वदान्य ने कहा, “ तुम्हें उत्तर दिशा में जाना होगा। अलकापुरी और हिमालय पर्वत के आगे जाने पर तुम्हें कैलाश पर्वत मिलेगा। वहाँ महादेव जी अनेक सिद्ध, चरण, भूत, पिशाचगणों के साथ विचरण करते हैं। उस स्थान के पूर्व और उत्तर की ओर छहों ऋतुएँ, काल, रात्रि-दिवस देवता और मनुष्य आदि भूतभावन महेश्वर की उपासना करते रहते हैं। इस स्थान को लाँघने के बाद तुम्हें मेघ के समान एक नीला वन मिलेगा। उस स्थान पर एक वृद्धा तपस्विनी रहती है। तुम उसके दर्शन करके लौट आना। मैं उसी क्षण तुम्हें अयमात्मा ब्रता का तत्त्वबोध कराऊँगा।” अष्टावक्र सच्चे अभीप्सु थे। जिज्ञासा की प्रचण्ड वुि उनके अन्तः-करण को जलाए दे रही थी। महर्षि वदानय की बातें महयाचल की शीतल बयार और वर्षा की ठण्डी फुहारों की भाँति लगीं। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता और श्रद्धा के साथ सिर नवाकर उनकी बात स्वीकार कर ली एवं यात्रा के लिए चल पड़े। पहले तो वे हिमालय पर्वत पर पहुँचे और वहाँ धर्म दायिनी बहुदा नदी के पवित्र जल में स्नान और देवताओं का तर्पण करके उसी पवित्र स्थान पर कुशासन बिछाकर विश्राम करने लगे। वहीं रात भर सुखपूर्वक सोये। वहीं प्रातःकाल अग्नि प्रज्वलित करके उन्होंने यज्ञ किया। वहीं पास में सरोवर था, जहाँ शिव-पार्वती की मूर्ति थी। उन्होंने मूर्ति के दर्शन किए और फिर अपनी यात्रा पर चल दिए।

वे कैलाश, मन्दिर और सुमेरु आदि अनेक पर्वतों को लाँघकर किरात रूपी महादेव के स्थान की प्रदक्षिणा करके उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। कुछ ही आगे जाने पर एक सुन्दर वन उन्हें दिखाई दिया। उस वन में एक दिव्य आश्रम था। उस आश्रम के पास अनेक रत्नों से विभूषित पर्वत, सुन्दर तालाब और तरह-तरह के सुन्दर पदार्थ थे। देखने में वह कुबेर की नगरी से भी अधिक शोभायमान दिखाई दे रहा था। वहीं अनेक प्रकार के सोने और मणियों के पर्वत दिखाई देते थे। जिन पर सोने के विमान रखे हुए थे। मन्दार के फूलों से अलंकृत मन्दाकिनी कल-कल निनाद करती हुई बह रही थी। चारों ओर मणियों की जगमगाहट से उस दिव्य वन की कल्पना श्री से ऊँची उठ जाती थी, लेकिन उसकी समता कहीं भी मस्तिष्क खोज नहीं पाता था।

अष्टावक्र यह देखकर आश्चर्यचकित से खड़े रहे। वे सोच रहे थे कि यहीं ठहरकर कुछ देर आनन्द से विचरण करना चाहिए। इससे अधिक सुखकर और रमणीय स्थान और कहाँ मिल सकता है ? अब वे अपने लिए एक उपयुक्त स्थान ढूँढ़ने लगे। आगे बढ़ने पर उन्होंने पाया कि यह तो एक पूरा नगर है। इस नगर के द्वार पर जाकर उन्होंने पुकार कर कहा, “मैं अतिथि हूँ। इस नगर के निवासी मेरा उचित स्वागत करें। “

उसी समय द्वार से सात परम सुन्दरी कन्याएँ अतिथि के स्वागत के लिए निकल आयीं। वे कन्याएँ इतनी अधिक सुन्दर थीं कि उन्हें देखकर ऋषि अष्टावक्र ठगे से खड़े हो गए। वह जिसकी तरफ आँख उठाकर देखते, उसे ही देखते रह जाते। इस तरह कुछ देर तक उनके अन्तर में भारी कोलाहल-सा मचा रहा। तभी उन्हें ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की जिज्ञासा याद आयी और उन्होंने संयमपूर्ण अपने मन को स्थिर किया।

उन सुन्दरियों ने कहा- “आइए भगवान ! पधारिये। हम आपका स्वागत करती हैं। “

महर्षि एक भव्य प्रासाद के अन्दर चले गए। वहाँ उन्हें सामने ही एक वृद्धा बैठी मिली। वह स्वच्छ वस्त्र पहने थी और उसके शरीर पर अनेक तरह के आभूषण थे। महर्षि को देखते ही वह वृद्धा उठकर खड़ी हो गयी और उनका समुचित स्वागत करके बैठ गयी। महर्षि भी वहीं पास में बैठ गए। उन्होंने उन सुन्दरी कन्याओं की तरफ बढ़कर कहा- “हे कन्याओं ! तुममें से जो बुद्धिमती और धैर्यवती हो वही यहाँ रहे, बाकी सब यहाँ से चली जाएँ।

एक को छोड़कर सभी कन्याएँ वहाँ से चली गयीं। वृद्धा वहीं बैठी रही। रात होने पर महर्षि के लिए वहीं पर एक शय्या की व्यवस्था कर दी गयी। जब महर्षि सोने लगे, तो उन्होंने उस वृद्धा से भी जाकर अपनी शय्या पर सोने के लिए कहा। उनके कहने पर वृद्धा अपनी शय्या पर लेट गयी।

रात्रि का एक ही प्रहर बीता होगा कि वृद्धा जाड़े का बहाना करती हुई काँपती-सी महर्षि अष्टावक्र की शय्या पर आ लेटी। महर्षि अष्टावक्र ने आदर के साथ उसे लेट जाने दिया। थोड़ी देर बाद ही उन्हें उस वृद्धा की चेष्टाएँ चौंकाने लगीं। फिर भी महर्षि काष्ठ के समान कठोर और निर्विकार पड़े रहे।

वृद्धा उनसे कहने लगी, “ हे ऋषि मैं जीवन भर आपकी कृतज्ञ रहूँगी। यही आपकी तपस्या का अभीष्ट फल है। मेरी यह सारी सम्पत्ति आपकी ही है। आप यहीं मेरे पास रहिए। देखिए, हम यहाँ लौकिक और अलौकिक अनेक प्रकार के सुख भोगते रहेंगे।”

वृद्धा की प्रार्थनाएँ सुनकर अष्टावक्र बोले-हे देवी ! मैं एक तपस्वी हूँ और बचपन से अभी तक मैं पूर्ण ब्रह्मचारी रहा हूँ। इन्द्रिय-भोगों में प्रवृत्ति आत्मतेज को नष्ट करने वाली होती है। विवेकवान वही है जो इन्द्रियों पर संयम रखकर आत्मज्ञान की, ब्रह्मविद्या की अभीप्सा रखते हैं। मैं भी आत्मविद्या का जिज्ञासु हूँ। अपने गुरुदेव महर्षि वदान्य के आदेश से आपके दर्शन हेतु आया हूँ। आप मुझे आशीष दें, ताकि मैं अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकूँ।”

यह सुनकर वृद्धा ने कहा-

“ऋषिवर ! आप जिस ब्रह्मविद्या की बात करते हैं, वह तो निरा भ्रम है। लोक प्रत्यक्ष है उसके भोग भी स्पष्ट हैं। इन भोगों का स्वाद संसार के प्रत्येक प्राणी के मन को लालायित करता रहता है। इन्द्रियों के विभिन्न भोगों के आस्वादन के लिए संसार के समस्त जीवधारी लगातार श्रम करते हैं। शास्त्रों ने भी तप का लक्ष्य स्वर्ग को बताया है। इन्द्रिय-भोगों की सघनता और निरन्तरता ही तो स्वर्ग है। आप मेरे साथ जीवनयापन करिए, यहीं पर स्वर्गीय सुख साकार होने लगेंगे।”

महर्षि को उस वृद्धा की बातें अद्भुत लगीं। वह सोचने लगे-गुरुदेव महर्षि वदान्य ने मुझे क्यों इसके पास भेजा ? तभी उनके हृदय में संशय जागा कि हो सकता है कि यह कुछ समय पूर्व इस प्रासाद की अधिष्ठात्री देवी कोई युवती हो और किसी शाप के कारण इस तरह वृद्धा हो गयी हो। यह संशय पैदा होते ही उन्होंने उसकी वृद्धावस्था का कारण पूछना चाहा, लेकिन सीधे ही वृद्धा से प्रश्न करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी।

एक दिन बीत गया। संध्या होने पर वृद्धा ने आकर कहा- “हे महर्षि ! वह देखिए, सूर्य अस्त हो रहा है। अब आपकी क्या आज्ञा है ?”

वृद्धा जाकर जल ले आयी और उसके साथ सुगन्धित तेल और वस्त्र भी लेती आयी। महर्षि से आज्ञा लेकर वह उसके शरीर पर तेल-मर्दन करने लगी और फिर अपने हाथों से ही उनके शरीर को मल कर उनको स्नान कराने लगी। महर्षि बड़े आनन्द से स्नान करते रहे। स्नान करते-करते सारी रात बीत गयी। प्रातःकाल जब सूर्य की किरणें स्नानागार में आने लगीं, तो ये चौंक पड़े और इसे कोई माया समझकर वृद्धा से कहने लगे- “शुभे ! क्या भोर हो गयी ? या यह भी किसी तरह का छल है ?”

वृद्धा ने कहा, “ भगवन् ! वास्तव में भोर हो गयी। देखिए सूर्य भगवान प्राची में निकल आये हैं।”

महर्षि स्नान कर चुके थे। इसके बाद वृद्धा ने पूछा, “हे भगवन् ! अब मैं क्या करूं?

अष्टावक्र कुछ भी उत्तर नहीं दे पाए और चिन्तामग्न होकर पिछले दिन से हो रही इस विचित्र लीला के बारे में सोचने लगे। इसी बीच उत्तर की प्रतीक्षा न करती हुई वृद्धा उठी और अन्दर से एक थाल में सजाकर स्वादिष्ट भोजन ले आयी। महर्षि भोजन करने लगे। फिर भोजन करते-करते उन्हें पूरा दिन बीत गया। रात्रि आयी। वृद्धा ने अलग-अलग पलंग बिछा दिए। महर्षि जाकर अपने पलंग पर लेट गए और कुछ देर बाद उनको नींद आ गयी, आधी रात्रि के समय वृद्धा फिर बहाना करती हुई उनके पलंग पर आ गयी।

महर्षि सहसा जागकर कहने लगे, “हे देवी ! तुम व्यर्थ प्रयत्न न करो। शास्त्रकारों ने परस्त्रीगमन को महापाप माना है। यह कार्य मुझे धर्माविरुद्धः लगता है। इसलिए इसे त्याज्य समझकर मैं इसमें कदापि प्रवृत्त नहीं होऊँगा।”

अब तो वृद्धा को गहरा धक्का लगा, लेकिन फिर भी उसने धैर्य नहीं छोड़ा, फिर वह आशा लेकर अष्टावक्र से बोली, “हे महर्षि ! यदि आप मुझे परस्त्री समझते हैं तो मुझे अपनी स्त्री बना लीजिए। मैं इसके लिए सहर्ष तैयार हूँ। आप विश्वास कीजिए, मैं अभी तक कुँवारी हूँ।”

अब तो अष्टावक्र एक अजीब पशोपेश में पड़ गए। तत्काल उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझ पड़ा। चिन्ता के भार से उन्होंने अपना सिर नीचे झुका लिया। कुछ ही क्षणों बाद जब उन्होंने कुछ कहने को अपना मुँह ऊपर उठाया और उनकी दृष्टि उस स्त्री पर पड़ी तो महान आश्चर्य के कारण वे सहसा हिल उठे। वह वृद्धा अब एक सोलह वर्ष की परम रूपसी कन्या का रुपं धारण करके सामने बैठी मुस्करा रही थी।

अष्टावक्र ने अधीर होकर पूछा- “हे देवी ! यह तुम्हारा कैसा रूप ? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है कि तुम कौन हो ? पर तुम जो भी हो, मैं अभी भी अपने पूर्व कथन पर अडिग हूँ। मैं ब्रह्मविद्या का अभीप्सु हूँ, साँसारिक भोग मुझे नहीं चाहिए। देवि ! मैं मनुष्य हूँ और मनुष्य की परिभाषा यही है- जिसने मन पर विजय पा ली हो, वहीं सच्चा मनुष्य है। लेकिन तुम्हारा परिचय प्राप्त करने के लिए अवश्य लालायित हूँ। बताओ कल्याणी ! तुम कौन हो ?”

उस कन्या ने मुसकराते हुए ही कहा- “ हे महर्षि अष्टावक्र ! स्वर्ग-मृत्यु आदि सभी लोकों के स्त्री-पुरुषों में विषय-वासना पायी जाती है। मैं आपके मन को विचलित करके आपकी परीक्षा ले रही थी, लेकिन अपने कठोर संयम के कारण आपने धर्म-मर्यादा को नहीं छोड़ा। इसलिए मेरा विश्वास है कि जीवन में आप कभी किसी प्रकार का कष्ट नहीं भोगेंगे।

“मैं उत्तर दिशा हूँ। मैंने यह वृद्धा का रूप आपको यह बताने के लिए रखा था कि आप जान लीजिए कि इस संसार में वृद्धावस्था को प्राप्त स्त्री-पुरुषों को भी काम सताता है। इसीलिए विवेकवान वही है, जो संयम के लिए वृद्ध होने की प्रतीक्षा नहीं करता, बल्कि बचपन से ही ब्रह्मचर्य का पालन करता है। ब्रह्मचर्य में ही ब्रह्मविद्या का रहस्य निहित है। मुझे प्रसन्नता है कि आपने ब्रह्मचर्य व्रत को नहीं छोड़ा, इसलिए ब्रह्म और इन्द्र आदि देवता आप पर अत्यन्त प्रसन्न हैं। जिस काम के लिए महात्मा वदान्य ने आपको यहाँ भेजा था वह अवश्य पूरा होगा।”

अष्टावक्र यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उस देवी से चलने की आज्ञा माँगने लगे। उत्तर दिशा ने आदर के साथ अष्टावक्र को विदा कर दिया। जब वे लौटकर महर्षि वदान्य के पास आए तो महर्षि ने बड़ी प्रसन्नता से उन्हें आशीष दिया। क्योंकि वे अपनी दिव्यदृष्टि से अपने शिष्य के साथ घटी सारी घटनाओं को जान चुके थे। गुरु की कृपा से शिष्य ने ब्रह्मविद्या के रहस्य को जाना और श्रेष्ठतम ब्रह्मवेत्ताओं के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की।


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