अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर ...

November 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानवी काया युगों- युगों से जन-जन के लिए एक रहस्य की पहेली बनी हुई है । अनन्त संभावनाएँ अपने अन्दर समेटे काया के इस भाण्डागार में इतना कुछ विलक्षण है कि इसके विषय में प्रायः हर ग्रन्थ में ऐसा कुछ वर्णन पाया जाता है जिसे गुह्य-विज्ञान की परिधि में माना जा सकता है । जहाँ गीता में योगीराज श्रीकृष्ण इसे शरीर क्षेत्र कहते हुए “देहेअस्मिन्पुरुषः परः” के माध्यम से यह कह जाते हैं कि “इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है,” वहाँ योग वसिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ कहते हैं कि यह शरीर जो दृश्य रूप में रासायनिक संरचनाओं का समुच्चय नजर आता है, मन की अपने संकल्पों द्वारा की गयी रचना है । “करोति देहं संकल्पात्कुँभकारो घटं यथा” (4/11/19) के अनुसार उनका प्रतिपादन है कि मन, शरीर को उसी प्रकार अपने संकल्पों से विनिर्मित करता है जैसे कि कुम्भकार घड़े को । यह हड्डी और माँस का, पंचभूतों का पुतला शरीर नहीं, मात्र मन की काल्पनिक रचना है, यह सोच-सोचकर लगता है कि हमारे ऋषिगणों ने कितनी सूक्ष्म पैनी दृष्टि से इस देह व इसके अंदर के रहस्यों का विश्लेषण कर वह सब लिखा होगा, कहा होगा जिसे श्रुति के अनुसार “आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनम्” के रूप में हम पाते हैं ।

स्थूल दृष्टि से ही देखें तो इस देह में कितना कुछ अजूबा भरा पड़ा है । यह अकारण तो नहीं हो सकता । इतना कुछ विलक्षण परमसत्ता का यह घटक लेकर जन्मा है एवं यदि इस मात्र पेट-प्रजनन का जीवन इसे किसी तरह भार की तरह ढोकर समाप्त कर देना है, तो फिर इससे बढ़कर विडम्बना और क्या हो सकती है । साठ-खरब जीव-कोशिकाओं से बनी यह काया प्रति मिनट लगभग तीस करोड़ जीव कोशिकाओं को समाप्त कर उनसे मुक्त हो लेती है, किंतु अगले ही क्षण इतने नये प्राप्त कर अपनी संख्या वही बनाए रखती है । क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रकृति में संव्याप्त परमात्मसत्ता प्रतिपल-प्रतिक्षण मानवी काया का पुनर्निर्माण करती रहती है एवं उसे वह शक्ति देती है जिससे वह अपने अंदर की आत्मसत्ता के जगाने हेतु समुचित साधना-पुरुषार्थ कर सके । संभवतः है ऐसा ही, किंतु भगवान के उस कुम्भकार के बनाए हुए घट हम मनुष्य इस अनुदान की कीमत को जान नहीं पाते ।हमारे प्राणमय कोश में प्रतिक्षण इजाफा करने वाले ये जीवकोष नूतन प्राणशक्ति का स्पन्दन लेकर आते हैं, किंतु हम कृत्रिम साधनों से-बनावटी स्वयं के आमंत्रित प्रदूषणों से भरा जीवन जीकर उस प्राणशक्ति को सतत गँवाकर सहज ही अशक्ति के शिकार होते रहते हैं, अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं अथवा रोगग्रस्त बने रह स्वयं को औरों को कष्ट देते रहते हैं ।

प्रत्येक जीव कोश जिसने इस शरीर को बनाया है, प्रतिक्षण-प्रतिपल गतिशील रहता है, हृदय की तरह स्पन्दित होता रहता है एवं क्रमशः विभाजित होता हुआ अनेकानेक संगी-साथी बनाता चलता है । विश्राम एवं दीर्घसूत्रता तो इसके जीवनकाल में कभी देखी ही नहीं जा सकती । इसके लिए आराम हराम है । गतिशीलता ही जीवन है एवं यही संदेश हर जीवकोष अपने धारणकर्ता को सतत् देता रहता है । एक और विलक्षण बात है । जो धड़कने अथवा ‘पल्सेशन्स’ हम जीवकोषों में देखते हैं- वे समष्टिगत इस पृथ्वी के अंतरंग हिस्सों में, सर्वव्यापी चेतना समुच्चय में हो रहे कम्पनों का ही एक अंग होती हैं । इसी कारण हर जीवकोष बड़ा संवेदनशील होता है एवं बड़ी शीघ्रता से उन स्पन्दनों से प्रभावित होता रहता है । विकृति ही इस पारम्परिक सम्बन्ध को तोड़ती है, नहीं तो यह सम्बन्ध जीवन भर स्थापित रहता है ।

जीवकोषों को अपने घेरे में आबद्ध किये हुए विद्यमान त्वचा को देखें, तो और भी विलक्षण तथ्य हमारी जानकारी में आते हैं । एक औसत व्यक्ति में प्रायः 4 किलो वजन वाली यह त्वचा लगभग 18 वर्ग फुट का स्थान घेरती है । तुलनात्मक दृष्टि से मस्तिष्क से यह तीन गुना आकार है । वाटरप्रूफ यह सतह अंदर के अंगों की रक्षा को संकल्पित रहती है । त्वचा तापमान में परिवर्तन, दर्द पैदा करने वाले स्नायु-संवेदन एवं स्पर्श जैसी अनुकृति का तुरन्त कुछ ही मिली सेकेण्ड नहीं, नैनों सेकेण्डों में प्रत्युत्तर देती है । इतनी कोमल एवं सूक्ष्मतम स्तर पर इसकी कार्यविधि चलती है । उँगलियों के पोरों में जितनी तीव्र संवेदनशीलता पायी जाती है, उतनी और कहीं नहीं । मालूम नहीं उस परमसत्ता ने पोरों को ही इतना कोमल क्यों बनाया ? सम्भवतः यहीं से प्राणशक्ति को ग्रहण करने, सम्प्रेषित करने की प्रक्रिया सम्पन्न होती है, एक अनुमान है, सही भी हो सकता है, गलत भी । सारे शरीर का तापमान एक जैसा बनाए रखना भी इसी त्वचा की सतह (डर्मिस) का ही काम है, जिसे वह बखूबी निभाती है । यह सब होता है पूरी त्वचा की ‘ डर्मिस’ सतह में विद्यमान 30 लाख स्वेद ग्रन्थियों (स्वेट ग्लैण्ड्स) के कारण, जो तापमान में परिवर्तन की प्रतिक्रिया स्वरूप सतत् सक्रिय बने रहते हैं।

मानवी काया की त्वचा अपना रंग बड़ी तेजी से बदलती है । भय से सफेद पड़ जाना, भावुक होते ही चेहरा लाल हो जाना, गलती पकड़े जाते ही स्याह हो जाना कोई अतिशयोक्तियाँ नहीं हैं वरन् वास्तविकताएँ हैं। इस मामले में मनुष्य को गिरगिट की उपमा तो नहीं दी जा सकती किंतु ‘इमोशनल स्ट्रेस" (भावनात्मक उद्वेग), सहने पर या अचानक बीमार पड़ने पर त्वचा का रंग अपने रंग दिखाने लगता है । मनोशारीरिक रोगों को पकड़ने के लिए त्वचा सबसे महत्वपूर्ण घटक है, जिससे प्रारंभिक स्थिति जानी जा सकती है ।

काले एवं सफेद रंग वाले (विभिन्न नस्लों के) व्यक्तियों में रंग पैदा करने वाली कोशिकाओं की संख्या एक समान होती है । इसमें कोई भेदभाव नहीं है । यह तो ‘जीन्स’ का कमाल है, जो यह निर्धारित करते हैं कि किसे काला या गेहुँआ रंग बनाना है, किसे नहीं । जीन्स यानी गुणसूत्रों के घटक-जो जन्म-जन्मान्तरों की यात्रा माता-पिता से प्राप्त अमीनों अम्लयुक्त अति सूक्ष्म तत्वों के माध्यम से करते रहते हैं । अब यदि कोई अश्वेत है या कोई श्वेत है, तो इसके लिए उसके पिगमेण्ट सेल्स-उन्हें बनाने वाले जीन्स जिम्मेदार हैं, न कि वह मनुष्य । ऐसे में रंगों के आधार पर पारस्परिक विद्वेष व लड़ाई क्यों होती है, इस पर परमसत्ता को भी आश्चर्य होता होगा व दुख भी । त्वचा वैसे कभी झूठ बोलती नहीं है । ‘लाई डिटेक्टर’ इसी सिद्धान्त पर काम करते हुए आदमी से सब कुछ उगलवा लेते हैं-पाँलीग्राफ-गैल्वेनिक स्किन रेजीस्टेन्स (जी . एस . आर .) के माध्यम से यह पता चल जाता है कि कब आदमी झूठ बोल रहा है, कब बिलकुल सत्य वचन कह रहा है । है न सब कुछ विलक्षण ।

त्वचा जिस हाड़-माँस के पुतले को ढके हुए है, उसे जरा देखें तो पाते हैं कि बच्चों में तो प्रायः छोटी-बड़ी तीन सौ पचास हड्डियाँ होती हैं, किंतु बड़ी में इनकी संख्या घटकर दो सौ छह रह जाती है । यह कभी टूट जाने या उनके अन्तर्ध्यान हो जाने के कारण नहीं, अपितु पारस्परिक जुड़ाव के कारण होती है, जो कि परिपक्व होने की स्थिति में होती है । भारतीय दर्शन में जीवन की प्रथम पच्चीस वर्ष की आयु बड़ी महत्वपूर्ण मानी जाती है । ब्रह्मचर्याश्रम वाली इस अवस्था में कोई चाहे तो अपना शरीर वज्र-सा बना सकता है-अपना स्वास्थ्य अक्षुण्ण बनाए रख परिपक्व हड्डियों का ढाँचा बनाए रख सकता है । किंतु इसके बाद यह संभव नहीं, क्योंकि 25 वर्ष की आयु तक वैज्ञानिक दृष्टि से ढाँचा पूर्ण मजबूती प्राप्त कर लेता है । इससे पूर्व वह परिपक्व प्राप्त कर रहा होता है । एक स्वस्थ पूर्णावस्था को प्राप्त व्यक्ति की एक हड्डी में कितने बल होता है, उसका नमूना जंघा की हड्डी ‘फीयर’ से लिया जा सकता है, जो 1200 पौंड प्रति वर्ग इंच दबाव ग्रहण करते हुए चलने की प्रक्रिया को संभव बनाती है ।

अस्थियों के इस कवच के साथ-साथ माँसपेशियों का एक कवच भी होता है, जिसमें 600 माँसपेशियों की भागीदारी होती है । लाखों सूक्ष्म तन्तुओं से बने ये मसल्स कुल 80 प्रतिशत जल तत्व एवं बीस प्रतिशत प्रोटीन के बने होते हैं । इस पूरे संस्थान को शरीर के सूक्ष्म अंगों को ढँकने के अतिरिक्त एक भूमिका निभानी होती है, वह है 75' से अधिक क्षमता तक काम करके ऊर्जा का उत्पादन करना, तब जब शरीर की पूरी सामर्थ्य किसी बलपूर्वक किये जाने वाले कार्य में लग जाती है । यह ऊर्जा गर्मी के रूप में इसी संस्थान द्वारा ही पैदा की जाती है ।

अंदर काम कर रहे हर संस्थान का अपना महत्व है, किंतु इस लेख में रक्तवाहिनी व हृदय- संस्थान तथा श्वास संस्थान दो का ही वर्णन कर रहे हैं । इसी क्रम में जारी लेखमाला में पाचन संस्थान, लीवर, हारमोन्स, गुर्दे एवं स्नायु संस्थान-मस्तिष्क के बारे में अगले अंकों में । हृदय वास्तव में पूरे काय संस्थान की धुरी है-केन्द्रीय नाभिक है, वह पम्प है जहाँ से पूरी काया को पोषण मिलता है, किंतु बड़ी हृदयहीनता से इसी के विषय में ज्यादा विचार नहीं किया जाता । समझदारी से लिया गया सात्विक मित आहार एवं नियमित व्यायाम इस हृदय को काफी ठीक रख सकता है । किंतु यहीं प्रमाद हो जाने से अधिकाँश रोगी हृदयावरोध-हाई ब्लडप्रेशर आदि के कारण आज मरते देखे जाते हैं । हृदय बिलकुल मध्य में ‘रिबकेज’ (वह पिंजड़ा जो पसलियों से बना है) से ढँका स्थित है । सबसे बड़ा कार्य जो हृदय करता है, वह है बिना तनिक भी विश्राम किए सतत् आक्सीजन युक्त रक्त सारे शरीर में प्रवाहित करते रहना । दो काम एक साथ करना-अशुद्ध रक्त को शुद्धिकरण हेतु फेफड़ों में भेजना, उन्हें आक्सीजन युक्त बनाना एवं पूरे शरीर में शुद्ध रक्त से अभिप्रेरित कर देना यह ऐसी विशेषताएँ हैं, जो कोई भी हृदय से सीख सकता है । हृदय एवं रक्त-परिवहन से जुड़े तंत्र सम्बन्धित कुछ तथ्य ऐसे हैं जो चौंका भी देते हैं एवं कुछ हमारी अनभिज्ञता को उजागर करते हैं कि इतनी विलक्षणता से भरे संस्थान को हम जानते तक नहीं ।

70 से 80 बार प्रति मिनट धड़कने वाले हृदय के कारण सारा रक्त मात्र इतनी अवधि में एक बार पूरे शरीर का एक चक्कर लगा लेता है । यह तो विश्रान्ति की स्थिति में, किंतु यदि सक्रिय रूप से उसे काम करना पड़ गया यथा व्यायाम, दौड़, अनिवार्य कार्यों हेतु तेजी से सम्पन्न करने हेतु आयी सक्रियता तो यह समस्त रक्त मात्र 10 सेकेण्ड में एक परिक्रमा पूरे शरीर की लगा लेता है ।

एक दिन में हृदय से जो रक्त गुजर जाता है उसकी माप 8 टन के बराबर है ।

बीस करोड़ प्रतिदिन की संख्या में विनिर्मित होने वाली लाल रक्त कोशिकाएँ, जो कि आक्सीजन ले जाने का कार्य करती है , एक सौ बीस दिन तक का वीसा लेकर आती है, फिर समाप्त हो जाती है । इन एक सौ बीस दिनों में ये कोशिकाएँ प्रति माह शरीर की 5 लाख बार परिक्रमा कर लेती है ।

हृदय रूपी पम्प कितना शक्तिशाली है, यह जानना चाहते हो, तो इस तथ्य पर गौर करें । यदि हृदय से जुड़ी मुख्य धमनी ‘एओर्टा’ काट दी जाए, तो इससे 5 फीट ऊँची रक्त धार का फव्वारा निकलने लगेगा ।

हृदय से जुड़ी रक्तवाहिनी नलिकाओं का जाल इतना बड़ा है कि यदि इसे मीलों में नापा जाए, तो यह प्रायः साठ हजार मील के लगभग बैठेगा । यह दूरी पृथ्वी की दो बार परिक्रमा करने के बराबर है ।

35 प्रतिशत रक्त यदि शरीर का निकल भी जाए, तो शरीर का काम किसी तरह चल जाता है व शीघ्र ही यह पूरा कर देता है, किंतु यदि 50 प्रतिशत रक्त आयतन यदि शरीर का कम हो जाए, तो यह अत्यधिक खतरनाक हो सकता है ।

हृदय की अपने आपको पोषण देने की भी रक्त परिवहन व्यवस्था है जिन्हें कोटोनरी आर्ट्रीज कहते हैं एवं इसके कुछ विशिष्ट ऊतक (टिश्यूज) विद्युत् ऊर्जा से अनुप्राणित हो-इसे एक सशक्त बिजलीघर के रूप में स्थापित भी करते हैं । इसी विद्युत को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम, मैग्नेटोकार्डियोग्राम, हाँर्ण्टस टेस्ट आदि से मापा जाता है ।

हृदय का अपना एक स्वतंत्र विवेकशील चिन्तन तंत्र भी है , जो यह निर्धारित करता है कि अनिवार्य कारणों-वश रक्त की कहाँ सर्वाधिक आवश्यकता है ताकि इसे वहीं पम्प कर पहुँचाया जा सके । पाचन के समय पाचन संस्थान के तथा व्यायाम आदि के समय माँसपेशियों व हृदय स्वयं को सर्वाधिक रक्त संचार की आवश्यकता पड़ती है । यह सप्लाई कहाँ से काटकर कहाँ जोड़ी जाए, यह विवेक हृदय को रहता है । इसीलिए हृदय स्वयं की एवं मस्तिष्क की रक्त- संचार प्रक्रिया को कभी प्रभावित नहीं होने देता-इसमें कोई भी स्थिति आने पर रक्त प्रवाहित होता ही रहता है ।

आज सारे विश्व में जीवन-शैली गड़बड़ा जाने से हृदय रोगों का दौर है । सारी काया के केन्द्र में होने के कारण इसका सर्वाधिक ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए, यह उपरोक्त विवरण से भी स्पष्ट हो जाता है, जिसमें इस संस्थान से जुड़ी वैविध्यपूर्ण संरचना को वािण्त किया गया है । यदि व्यक्ति अपनी आदतों-आहार व चिन्तन की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बना ले, तो कोई कारण नहीं कि यह संस्थान उसका जीवन भर साथ न दे।

बिना श्वास जीवन नहीं है । प्रश्न आक्सीजन का नहीं है । यदि व्यक्ति श्वास न ले, जिसमें मात्र बीस प्रतिशत ही आक्सीजन होती है तो वह घुटकर मर जाएगा । इसी से श्वास संस्थान, फेफड़ों व उनसे जुड़ी ब्रोंकाई रूपी नलिकाओं का महत्व समझा जा सकता है । नाक से वायु कोशों तक जो झिल्लियाँ बनी हुई हैं, इतनी प्रभावशाली हैं कि जब तक जीरो डिग्री से भी नीचे की ठण्डी हवा नाक से प्रवेश कर फेफड़ों के द्वार तक पहुँचती है, शरीर के तापमान के समकक्ष गर्म हो जाती है । यह इस रक्तवाहिनी नलिकाओं के जाल के कारण है, जिनसे झिल्लियाँ विनिर्मित हैं । मस्तिष्क के संवेदनशील तन्तु व फेफड़े ऐसे सूक्ष्म स्तर पर परस्पर जुड़े हुए हैं कि वातावरण में 0.3 प्रतिशत की कार्बनडाइ आक्साइड की वृद्धि मात्र कुछ ही सेकेण्ड में श्वसन की दर बढ़ाकर आक्सीजन एक्सचेंज की गति को यथावत कर देती है । हम सभी प्रायः पाँच सौ घन फीट हवा प्रतिदिन अपने अंदर स्वतः स्फूर्त प्रक्रिया के अंतर्गत खींचते व छोड़ते रहते हैं । वायु कोष्ठक (एल्वीओलाई) जहाँ आक्सीजन-कार्बनडाइ आक्साइड परस्पर एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं, इतने सूक्ष्म तंतु जाल के रूप में विनिर्मित व फैले हुए हैं कि यदि इन्हें फैलाया जाए, तो यह क्षेत्र प्रायः एक एकड़ खेत के समकक्ष होगा । इसी एयर सैक या वायु कोष्ठक तंत्र के गड़बड़ाने से दमा, एम्फीजिया व हार्ट फैल्योर जैसी व्याधियाँ होती हैं एवं विभिन्न प्रकार के प्राणायामों से इनसे मुक्ति पायी जा सकती है ।

क्या यह एक आश्चर्य नहीं कि मनुष्य स्वयं अपने आप के बारे में बहुत कुछ नहीं जानता जबकि ज्ञानी होने का दर्प रखते हुए स्वयं भी हैरान होता रहता है, औरों को भी परेशान करता रहता है । मानवी काया एक देवालय है जिसमें तैंतीस कोटि देवताओं का निवास बताया गया है । मालूम नहीं यह कितना सत्य है, पर कबीर की बात तो समझ में आती है, जिसमें वे कहते हैं- “अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर, वाही में मनमल धोओ जी” । जब आज के यंत्र तब की दुनिया में नहीं थे, तो कोई कैसे जान पाया कि हमारे शरीर में फलानी जगह चक्र हैं, फलानी जगह उपत्यिकाएँ हैं एवं उन्हें जगाकर आत्मविद्या का धनी बना जा सकता है-समर्थ ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बना जा सकता है । (अगले अंक में जारी)


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118