चिर यौवन लाने को आतुर हैं ययाति की संतानें

November 1997

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यौवन को चिरकाल तक अक्षुण्ण बनाये रख सकना संभव है क्या ? वैज्ञानिक इन दिनों इसी संभावना पर विचार कर रहे हैं और यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि शरीर की वृद्धता का कारण क्या है ? इस दिशा में यदि उन्हें सफलता मिली, तो फिर दीर्घजीवन की संभाव्यता को साकार करने की उनकी चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी हो सकेगी, ऐसा उनका विश्वास है ।

ज्ञातव्य है कि यौवन और दीर्घजीवन का परस्पर गहरा संबंध है । वार्द्धक्य के लक्षण प्रकट होते ही यह मान लिया जाता है कि जीवन का अन्तिम अध्याय अब आरम्भ हो गया । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि बुढ़ापा आखिर है क्या ? क्या बालों का श्वेत हो जाना अथवा झुर्रियाँ पड़ना ही चौथेपन की निशानी है ? विशेषज्ञ बताते हैं कि नहीं, वास्तविक बुढ़ापा शारीरिक न होकर मानसिक होता है । मन यदि वृद्ध हो गया, तो फिर उसके काया में प्रकट होने में भी देर नहीं लगती । वैसे भी इन दिनों अधिकाँश बीमारियों का मूल कारण मनोकायिक माना जाता और कहा जाता है कि आजकल की बीमारियाँ सर्वप्रथम मन में अपना डेरा डालती हैं। कालान्तर में यही काया में अभिव्यक्त होती हैं । इसे दूसरे प्रकार से कहें, तो यह कहा जा सकता है कि हमारे चिन्तन का शरीर पर गहन असर पड़ता है । बुढ़ापे का मूलभूत कारण यहीं निहित है, अतः इसे दूर भी यहीं से करना पड़ेगा । जानने योग्य तथ्य यह है कि सम्पूर्ण अध्यात्म विज्ञान में मन को, चिन्तन को एक अति सामर्थ्यवान तत्व के रूप में स्वीकार किया गया और कहा गया है कि जिस दिशा में जैसी उसकी गति होगी, वैसा ही वह शरीर को, उसके अधु-अणु को, परिस्थितियों को एवं मनुष्य को बनाता-ढालता चलता है । इस आधार पर भी इस उपर्युक्त सत्य की ही पुष्टि होती है कि शरीर का आधार मन है । मन यदि स्वस्थ, उत्फुल्ल और उदात्त स्तर का बना रहा, तो शरीर में भी उसकी परिणति स्वस्थता, प्रसन्नता, स्फूर्ति और ऊर्जस्विता के रूप में दृष्टिगोचर होगी । यौवन की यही पहचान है । चेहरे में चमक, आँखों में तेज और रोम-रोम से अभिव्यक्त होता उत्साह-यह स्थिति जवानी को और अधिक सुदीर्घ बनाती है ।

विज्ञान काया की वृद्धता को आधार मानकर चल रहा है और उसी को घटाने-मिटाने का प्रयास कर रहा है । उसके अनुसार कोशिका के शीघ्र हास को यदि रोका जा सके, तो चिरयौवन और दीर्घजीवन प्राप्त कर सकना संभव है । वैज्ञानिक विधियों द्वारा ऐसा यदि कर पाना शक्य हो भी गया, तो वह अस्थायी ही होगा एवं उसे सर्वसुलभ और सर्वजनीन बना सकना सरल नहीं होगा । ऐसे में उसकी क्या और कितनी महत्ता और उपयोगिता रह जाएगी-इसे समझा जा सकता है । अतएव इन सभी प्रकार के प्रयत्नों को प्रयोगशाला में चलने वाले शोध-अनुसंधानों तक ही सीमित मानकर चलना पड़ेगा ।

इस प्रकार के प्रयोग विश्व की कई प्रयोगशालाओं में चल रहे हैं । मैकगिल यूनिवर्सिटी माँण्ट्रियल के वैज्ञानिक भी सम्प्रति ऐसे ही प्रयोगों में निरत हैं । उन्होंने गोलकृमि नामक अत्यन्त छोटे जीव पर प्रयोग किये और उनकी जीवन अवधि को पाँच गुना बढ़ाने में सफलता पायी है । आमतौर पर ये प्राणी बाह्य वातावरण में दस दिन तक जीवित रहते हैं, जबकि प्रयोगशाला में विज्ञानवेत्ता इनकी आयु को पचास दिनों तक बढ़ाने में सफल हुए हैं । इतना ही नहीं, ये कृमि सामान्य गोलकृमि की तुलना में अधिक समर्थ और सशक्त भी हैं ।

ऐसा ही एक प्रयोग जर्मनी के बर्लिन यूनिवर्सिटी के प्राणिशास्त्रियों ने किया है । उन्होंने ‘फ्रुट फ्लाई’ नामक मक्खी पर जीन संबंधी कुछ ऐसी फेर-बदल की है कि साधारणतया 60 दिन तक जीवित रहने वाली मक्खियों का जीवनकाल बढ़कर लगभग दुगुना हो गया है । अब वे 110 दिन तक जिन्दा रहती हैं ।

विज्ञान के यह प्रयोग निश्चय ही सराहनीय हैं पर सवाल यह है कि मानवेत्तर प्राणियों में मिली यह सफलता मनुष्य के संदर्भ में कितनी संगत और उपादेय होगी ? यह विचारणीय है । यह ठीक है कि छोटे जीवधारियों से लेकर आदमी तक में वार्द्धक्य संबंधी प्रक्रिया लगभग एक जैसी है और एक को समझकर दूसरे के बारे में काफी कुछ अनुमान लगाया जा सकना सम्भव है, इतने पर भी सम्पूर्ण सफलता के लिए कितने लोग होंगे, जो

प्रयोगशाला में ‘गिनी पिग‘ बनने को तैयार होंगे ? अपने को कठिनाई में डालकर विज्ञानवेत्ताओं के परीक्षण की वस्तु बनने के लिए कोई क्योंकर राजी होगा ? कुछ क्षण के लिए यदि यह मान भी लिया जाए कि इन बाधाओं को पार कर सफलता हस्तगत कर ली गई, तो भी यह कठिनाई अपने स्थान पर यथावत बनी ही रहेगी कि हर कोई प्रयोगशाला में जाकर अपने बुढ़ापे का उपचार कैसे कराये ? इसे व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता, न ही मनुष्य के जीवन में ऐसे प्रयोगों से कोई फर्क पड़ने वाला है । विज्ञान के उत्कर्ष का यशगान करने के अलावा इन्हें और क्या कहा जाए ?

मानवी शरीर की कोशिकाओं के अध्ययन के आधार पर अनुसंधानकर्त्ताओं ने बढ़ती आयु के साथ घटते यौवन के जो कारण बताये हैं, उनमें तीन प्रकार के मत सर्वप्रमुख हैं । प्रथम मान्यता के अनुसार, कोशिकाओं द्वारा उत्पन्न अवशिष्ट पदार्थ ही उनके समय से पूर्व क्षय का कारण है । इस धारणा का समर्थन करने वालों का कहना है कि यदि किसी प्रकार कोशिका-अवशिष्ट की समस्या का कोई उपर्युक्त समाधान निकाला जा सके, तो लम्बे काल तक बुढ़ापे से छुटकारा पाकर दीर्घजीवन का रसास्वादन किया जा सकता है । दूसरे दल के शोधकर्ताओं के अनुसार क्रोमोज़ोम के ऊपरी भाग में आने वाला परिवर्तन ही इसका निमित्त कारण है । उल्लेखनीय है कि समय के साथ वह वह हिस्सा संकीर्ण नलिकावत हो जाता है । उनका अनुमान है कि संभवतः इस परिवर्तन के रुकने से वृद्धता पर भी शायद अंकुश लग जाए । शरीर शास्त्रियों का तीसरा वर्ग ऐसा है, जो इस क्षेत्र में जीन को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है । उनका विश्वास है कि निश्चित रूप से काया में एक या एक से अधिक जीन ऐसे हो सकते हैं, जो वृद्धावस्था के लिए जिम्मेदार हों । अब इस के प्रमाण भी मिलने लगे हैं ।

वेटेरन्स अफेयर्स मेडिकल सेण्टर, सीटल के प्राणिशास्त्री जी. शेलेनबर्ग ने शोध के दौरान एक ऐसे मानवजीन की खोज की है, जो बीस वर्ष के होते-होते व्यक्ति को वयोवृद्ध बनाने लगता है । यों तो बुढ़ापे के लिए उत्तरदायी यह सामान्य प्रकार का जीन नहीं है वरन ‘वार्नर सिण्ड्रोम’ नामक एक ऐसे रोग से सम्बद्ध है, जो यौवन में ही शरीर कोशिकाओं को अशक्त और निष्क्रिय बना देता है, फिर भी इसकी खोज से वैज्ञानिकों का यह दावा तो सच साबित हो ही जाता है कि जीन भी इस कार्य के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं । उक्त जीन के कारण व्यक्ति में वृद्धता संबंधी अनेकानेक लक्षण प्रकट होने लगते हैं, यथा-दिल से सम्बन्धित बीमारियाँ, साँस, अस्थि, पेट, नेत्र एवं अस्थि-संधि से जुड़े विकार । इन समस्त व्याधियों के फलस्वरूप 35-40 वर्ष के भीतर ही व्यक्ति की जीवनलीला समाप्त हो जाती है ।

अपने इस अन्वेषण से शैलेनबर्ग अत्यन्त उत्साहित हैं और अब चूहों पर अनुसंधान कर रहे हैं । वे यह जानने का प्रयत्न कर रहे हैं कि चूहों में यदि वार्नर जीन को प्रवेश कराया जाय, तो उसकी प्रतिक्रिया किस रूप में सामने आएगी ? क्या चूहे यौवन में ही आदमी की तरह बूढ़े होने लगेंगे ? चूहों पर प्रयोग करने का मुख्य उद्देश्य इस बात की जानकारी प्राप्त करना है कि उस जीन को हटाये बिना मनुष्य को उसके अवांछनीय असर से कैसे बचाया जा सकता है ।

वार्द्धक्य से सम्बन्धित एक अन्य व्याधि ‘प्रोजोरिया’ भी है । यह भी जीन विकृत के कारण ही होती है, पर वार्नर रोग की तुलना में यह अधिक गंभीर है । इसमें वृद्ध होने की गति ज्यादा तीव्र होती है । ‘न्यूयार्क स्टेट इंस्टीट्यूट फॉर बेसिक रिसर्च’ के जेनेटिक प्रभाग के अध्यक्ष डब्ल्यू. टेड ब्राउन एवं उनके सहयोगियों ने उक्त रोग पर शोध के दौरान पाया है कि उपरोक्त बीमारी के मूल में किसी एक ही जीन का हाथ है, किन्तु वह इतना समर्थ-सशक्त होता है कि अपनी उपस्थिति मात्र से ही अन्य अनेकों को प्रभावित, विकृत एवं उत्तेजित करने की क्षमता रखता है, जिसका संयुक्त परिणाम बुढ़ापे के रूप में सामने आता है । वे भी अनेक प्रकार के परीक्षणों के माध्यम से इस बात की जानकारी प्राप्त करने में संलग्न हैं कि जीन की कटाई-छँटाई के बिना ही क्या किसी रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा उसकी क्रियाशीलता घटाई जा सकती है या नहीं ? अभी तक के परिणाम इसी बात के संकेत दे रहे हैं कि ऐसा संभव है । आगे क्या होगा ? यह तो समय ही बतायेगा ।

‘अल्जीमर डिसीज’ भी बुढ़ापे के लिए जिम्मेदार बीमारी है । आम बोलचाल की भाषा में इसे ‘सठियाना कहते हैं । शोध से ज्ञात हुआ है कि इसमें मस्तिष्क के कुछ हिस्सों में संकुचन आ जाता है, जिससे स्मृति से लेकर सामान्य बुद्धि तक प्रभावित होती है । शोधकर्ता इस संदर्भ में अब यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि यह भी किसी जीन विकृति की फलश्रुति तो नहीं ? अनुसंधान जारी है ।

जीन जवानी को प्रभावित करते और असमय बुढ़ापा लाते हैं-इतना स्पष्ट होने के उपरान्त विज्ञानी अब उनके द्वारा वृद्ध बनने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं, पर इस दिशा में सबसे बड़ी बाधा उनके समक्ष यह है कि इतनी बड़ी संख्या में मौजूद जीनों को सुधारा कैसे जाए ? वाशिंगटन विश्वविद्यालय के जीन विज्ञानी जार्ज मार्टिन कहते हैं कि यदि यह मानकर भी चला जाए कि वृद्धावस्था के लिए जिम्मेदार ये बीज कोश सीमित संख्या में हैं, तो भी इस कार्य में कम-से-कम सात हजार जीन सम्मिलित होंगे । एक बीज कोश की मरम्मत भी एक दुरूह कार्य है, तो इतनी बड़ी संख्या में जीनों का सुधार-संशोधन तो एकदम असंभव ही माना जाना चाहिए ।

ऐसे में चिकित्साशास्त्रियों में दीर्घ-जीवन और वार्द्धक्य-नियंत्रण के संदर्भ में जो दावे-प्रति दावे किये हैं, उन्हें अध्ययन-अध्यापन से सम्बन्धित बुद्धि-विलास के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता । यों कुछ विशेषज्ञ इसके लिए एक-एक बीजकोश को दुरुस्त करने की तुलना में उनके सामूहिक नियंत्रण की बात करते और कहते हैं कि रसायनों को काया में प्रवेश कराकर ऐसा संभव है । कैलीफोर्निया के जीरान फार्मास्युटिकल ने हाल ही में एक शोध पत्र प्रकाशित किया है, जिसमें कहा है कि टेलोमेरेस कोशिकाएँ कोशिका-विकृति को रोकने में समर्थ हो सकती हैं, पर यह भी सिर्फ एक अनुमान है । इसकी परिपुष्टि के लिए अभी इसे परीक्षणों के दौर से गुजरना है, दावे के साथ तभी कुछ कहा जा सकेगा । इस प्रकार जीन-विज्ञान की असमर्थता सुस्पष्ट है । शेष दो अनुमानों में से कोशिका अवशिष्ट सम्बन्धी समस्या और प्रत्येक गुणसूत्र के ऊपरी हिस्से को सुधार पाना-यह कोई इतने सरल कार्य नहीं, जिन्हें आसानी से सम्पन्न किया जा सके । ऐसे में समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहती है ।

पिछले लगभग सौ वर्षों के स्वास्थ्य-इतिहास का विहंगावलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि विज्ञान ने मनुष्य की औसत आयु बढ़ाने में कुछ सीमा तक सहायता तो की है, पर वैसे नहीं, जैसे बढ़-चढ़कर दावे इन दिनों किये जा रहे हैं । चिकित्साशास्त्र संबंधी आँकड़े बताते हैं कि सन् 1900 के आस-पास जन्मे अमेरिकियों की

औसत उम्र मात्र 47 वर्ष थी । पचास के दशक में इसमें कुछ सुधार हुआ और उत्तम स्वास्थ्य- सेवाओं एवं अनुसंधानों के फलस्वरूप यह सीमा बढ़कर 50 वर्ष हो गई । अगले एक शताब्दी में उसमें और सुधार हुआ एवं आयु-सीमा 55 वर्ष तक पहुँच गई । अगले 45 वर्षों तक यह क्रम इसी प्रकार चलता रहा । इसी का नतीजा है कि आज उनकी औसत आयु-सीमा 76 वर्ष है । अपने देश के लोगों की भी आयु-सीमा में वैज्ञानिक प्रगति और स्वास्थ्य सुविधाओं की उत्तम व्यवस्था के कारण वृद्धि हुई है । सन् 1985 में एक औसत भारतीय की आयु 52 वर्ष हुआ करती थी, आज की तिथि में यह 60 वर्ष है । जापान में यह सुधार दर सर्वाधिक है । 40 के दशक में वहाँ स्त्रियों की औसत आयु 42.6 वर्ष थी, जबकि पुरुषों की 36.5 वर्ष । वर्तमान में वहाँ महिलाओं की औसत वय 83 वर्ष है, जबकि पुरुषों की 75 वर्ष ।

औसत आयु में बढ़ोत्तरी संबंधी यह आँकड़े इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि पौष्टिक भोजन, उत्तम स्वास्थ्य सेवाएँ और चिकित्सीय खोजों के लाभ यदि हर एक को उपलब्ध हों, तो इनसे आयु-सीमा में व्यापक फेर-बदल संभव है । इन सबके बावजूद इन दिनों वृद्धता के लक्षणों में बढ़ोत्तरी ही हुई है । जिस गति से हृदय, फेफड़े, वृक्क, अस्थि सन्धि, प्लीहा जैसे अवयवों की जटिलता आज सामने आ रही है, उसे अभूतपूर्व ही कहना पड़ेगा । इसे देखते हुए आज के युवाओं को युवा कहने में संकोच होता है । विशेषज्ञों के मतानुसार इसका कारण वर्तमान जीवनशैली में निहित है । उसे परिवर्तित करके ही वे स्वस्थता, चिरयौवन और दीर्घायुष्य

का आनन्द-लाभ ले सकते हैं ।

आज का मानवी मनोविज्ञान जितना भौंड़ा और विकृत हुआ है, उतना शायद ही पहले कभी देखा गया हो । चिन्तन का विकार सम्पूर्ण शरीर तंत्र को प्रभावित करता है । मन की कुढ़न एवं चिन्तन के प्रदूषण सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित होकर नहीं रहते वरन् अपना व्यापक विस्तार शरीर-परिधि तक करते हैं, फलस्वरूप ऐसी अगणित असमानताएँ और शारीरिक कठिनाइयाँ उद्भिजों की तरह प्रकट होने लगती हैं, जिनके बारे में पहले न कभी सुना गया था, न जाना । इसे चिन्तन और मन की अद्भुत सामर्थ्य ही कहनी चाहिए कि जब वे उलटा सोचते और उलटा करते हैं, तब उसका उलटा असर सर्वप्रथम उसी को प्रभावित करता है, जहाँ से इसका प्रादुर्भाव हुआ । आग जहाँ जलती है, सबसे पहले उसी को गर्म करती है । शारीरिक व्याधियों के संदर्भ में यह एक उल्लेखनीय तथ्य है । इन्हें मनोकायिक रोग कहते हैं । यह चिन्तन-क्षेत्र की गड़बड़ी के कारण पैदा होते हैं । इसके विपरीत जब हमारी भावनाएँ किसी श्रेष्ठतम की तरह उदात्त तथा उत्कृष्ट होती हैं, तो उसकी परिणति न सिर्फ सामाजिक क्षेत्र में सफलता के रूप में सामने आती है, अपितु शारीरिक, मानसिक क्षेत्र में प्रसन्नता, स्वस्थता, शान्ति, सौंदर्य और चिरयौवन के रूप में प्रकट प्रत्यक्ष होती है । इसकी शान्ति इतनी महान और क्षमतावान् है कि इससे हम स्वस्थता तथा सौंदर्य की उपलब्धि भी कर सकते हैं और शरीर की एनाटॉमी (आन्तरिक संरचना) और फिजियोलॉजी (शरीर की क्रिया प्रणाली) को परिवर्तित-प्रभावित भी ।

रामकृष्ण परमहंस के जीवन से इस बात की पुष्टि हो जाती है । कहते हैं कि जब वे अपने साधनात्मक जीवन में विभिन्न धर्मों और इष्टों से संबंधित साधना कर रहे थे, तो भावनाओं में परिवर्तन के साथ-साथ उनकी शरीर- संरचना और क्रिया प्रणाली में भी तद्नुरूप परिवर्तन स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते थे । एक बार जब वे रामभक्त श्री हनुमान् की साधना कर रहे थे, तो उनकी बाह्य प्रकृति और प्रवृत्ति न सिर्फ हनुमान् जैसी हो गई थी, अपितु उनकी पूँछ भी निकलने लगी थी । साधना की समाप्ति के साथ धीरे-धीरे वह तिरोहित हो गई । एक अन्य समय में वे राधा-भाव से रह रहे थे, तब न केवल उनके हाव-भाव और परिधान ही स्त्रियोचित हो गये थे, वरन् स्तन भी नारी सुलभ विकसित होने लगे थे ।

यह सब मन, चिन्तन और भावना की शक्ति को प्रकट करते हैं । आज की समस्या इन्हीं से जुड़ी हुई है । वे शारीरिक कम , मानसिक अधिक है । विज्ञान इनका स्थूल उपचार करने की कोशिश कर रहा है, जबकि होना चाहिए इनका सूक्ष्म इलाज । इन दिनों के मानवीय चिन्तन एवं भावना को यदि सही दिशा दी जा सके एवं उन्हें सही ढंग से सोचने व उच्चस्तरीय संवेदना पैदा करने का तरीका बताया तथा प्रशिक्षण दिया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि हम स्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन न जी सकें ।


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