ज्ञान की रटो मत, आचरण में उतारो

November 1997

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भेड़ें चर कर वापस अपने आप पानी पीने बावड़ी पर लौट आतीं। वह तो जंगल में भेड़ों की रेवड़ को चरने के लिए छोड़ देता था और खुद एक बावड़ी के पास बने चबूतरे पर बैठ जाता। वहाँ बैठे हुए रेवड़ के चर कर लौटने का इंतजार करता। भेड़ों को इस तरह अपने आप लौटता देखकर वह अपने आपसे कह उठता “किसको सूझी है, मूर्ख की तुलना भेड़ से करने की, भेड़े तो बड़ी अक्लमंद होती हैं। रेवड़ में उनकी संख्या चार-पाँच सौ होती है, पर बावड़ी के पास रखी खेली में से केवल बीस या तीस भेड़े ही एक साथ पानी पी सकती हैं, इससे ज्यादा नहीं। पर अगली भेड़ों के पानी पीने तक पीछे की भेड़ें खड़ी इंतजार करती रहती हैं। फिर पानी पी चुकने वाली भेड़ें एक ओर हटकर इंतजार करती रहती हैं। वे साथ पानी पीने आती हैं और सबके साथ ही आराम करने जाती हैं।”

अपनी इस बात को सोचते हुए बड़े दार्शनिक अंदाज में सिर हिलाया। उसके होठों पर थिरक आयी मुसकान को देखकर कुछ ऐसा लगता था, जैसे उसने कोई गूढ़ रहस्य खोज निकाला हो अथवा कोई महत्वपूर्ण अनोखे सूत्र का आविष्कार कर लिया हो। वह था तो सामान्य चरवाहा, पर उसके सोचने का अंदाज बड़ा विचित्र था। उसका काम तो सिर्फ अपनी भेड़े चराना था, पर वह इसी बीच में वह कुछ चित्र-विचित्र सोचा करता। आज का चिंतन भी उसकी इसी सोच की एक नयी कड़ी थी। उसकी पत्नी कभी-कभी अपने पति की अजीबो-गरीब सोच से हैरान हो जाती। वे दोनों अपने गाँव के छोटे से कच्चे घर में रहते थे।

उस दिन भी वह मुसकराते हुए अनोखे अंदाज में बैठा, अपनी भेड़ों के रेवड़ के लौट आने का इंतजार कर रहा था। न जाने क्यों भेड़े देर कर रही थीं। जब-जब उसका रेवड़ यों देर से आता वो समझ जाता कि भेड़ों के साथ जरूर कोई दुर्घटना घटी है। आखिर काफी देर बाद दूर से आता भेड़ों का झुण्ड नजर आया। पास आने पर उसने अपनी भेड़े गिनी । एक-दो तीन-चार एक सौ इकतालीस। उसकी आशंका एकदम सही हो गयी। अरे! शेष भेड़ें कहाँ गयीं? ये तो एक सौ बावन थी। उसने निश्चय किया कि वह पता लगायेगा कि कभी-कभी उनकी भेड़ों की संख्या यों अचानक कम क्यों हो जाती हैं?

अपने इसी निश्चय को पूरा करने के लिए वह खोज-बीन में जुट गया। एक दिन वो दूर एक पेड़ पर चढ़कर छुपा बैठा था। उसने देखा जंगल में से एक भेड़िया आता है और उसकी भेड़ों के किसी झुण्ड के साथ मिलकर उन्हें एक अलग ऊँचे रास्ते पर ले जाता है। मगर भेड़ें हैं कि गर्दन झुकाए चरती-चरती आगे बढ़ जाती हैं और चट्टान की उस ऊँचाई की दूसरी ओर स्थित खाई में गिरकर या तो मर जाती हैं या फिर भेड़ियों के साथी जंगली हिंसक जानवरों का शिकार हो जाती है। चालाक भेड़िया पंजों के बल पर उछलता साफ बच जाता है। भेड़िये की इस चालाकी की वजह की वजह से बेचारे चरवाहे को निरंतर घाटा उठाना पड़ता।

इस वस्तुस्थिति को देख समझ कर वह किसी गहरे सोच-विचार में डूब गया। अपनी इस उधेड़ बुन में अचानक उसे कुछ सूझ गया। इस नये अनोखे विचार की छुअन से उसकी आँखों में प्रसन्नता छलक उठी। घर पहुँचकर उसने अपनी पत्नी को बुलाया और कहने लगा-अपनी ये भेड़े खुद की अज्ञानता की वजह से अपनी जान गँवाती है। क्यों न हम अपनी भेड़ों को पढ़ाना शुरू करें। उन्हें सिखा दें कि ऐसे दुर्गम एवं जानलेवा रास्ते पर हरगिज नहीं जाना है और उस दुष्ट भेड़िये का कहना तो किसी भी कीमत में नहीं मानना है।”

चरवाहे को अपनी इस सोच पर भारी प्रसन्नता हो रही थी। उसे लगने लगा कि अब समस्या का समाधान होने में देर नहीं। उसकी पत्नी उसके पति के सोचने के ढंग से परिचित थी। उसे भेड़ों की पढ़ाई का विचार कुछ विचित्र तो लगा, पर उसने स्वीकृत दे दी। अब चरवाहा जब अपनी रेवड़ चराने जाता, तो स्वयं दिन भर बावड़ी के पास वाले चबूतरे पर नहीं बैठा रहता, बल्कि अपनी भेड़ों को पढ़ाता। उनसे बातें करता। उन्हें सबक रटाता। वह बड़े प्यार से भेड़ों को बुलाता। पहले-पहल तो किसी भेड़ ने नहीं सुना। वे बड़े आनंद से घास और दूब चरती रहीं। पर चरवाहा भी कब मानने वाला था। उसने जोर-जोर से कहा-भेड़ों भेड़ों!!

भेड़ तो सिवाय-में-में की मिमियाहट के सिवाय कुछ भी न जानती थीं। क्योंकि अपनी रेवड़ में वे केवल वहीं आवाज में-में सुना करती थीं। इसलिए वे चरवाहे की आवाज सुन तो लेतीं, पर वापस बोल नहीं पाती थीं। लेकिन चरवाहे को भी अपने काम से कम लगाव न था। वह जुटा तो जुटा ही रहा। एक दिन, दो दिन करते-करते महीनों गुजर गये। अंत में एक दिन उसकी मेहनत रंग लायी। एक दिन भेड़ बोल उठी-भेड़ों भेड़ों!!

जब एक भेड़ ने कहा-भेड़ों भेड़ों!! तो बाकी भेड़ें उसका मुँह देखने लगीं और कुछ तो देखा-देखी और कुछ प्रयत्न करते-करते वह हो गया जो आज तक नहीं हुआ था। एक-एक करके सारी भेड़ें बोलने लगीं-भेड़ों ! भेड़ों!! उस जंगल में भेड़ों! भेड़ों!! की आवाज गूँजने लगी। चरवाहे की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। घर जाकर उसने अपनी आज की सफलता की खुशी में लगभग झूमते हुए उसने पत्नी को कहा-तुम हमेशा मेरी सोच को अजीबो-गरीब विचित्र जैसे नाम देती रहती हो। हमेशा यही कहती रहती हो, भला जो कभी नहीं हुआ, वह अब कैसे होगा? लेकिन आज हो गया, हमारी भेड़ों ने पढ़ने की शुरुआत कर दी। मेरा तो हमेशा से विश्वास रहा है, आदमी को सदा कुछ नया करना और नया सोचना चाहिए। अब देखना एक दिन हमारी भेड़ें अपनी समस्या का समाधान स्वयं करने लगेंगी। उत्तर में पत्नी मुस्करा दी। उसे समझ में नहीं आया कि इस मुसकान में क्या छिपा है प्रशंसा अथवा प्रोत्साहन अथवा फिर निराशा। पर इस सबके बारे में उसे सोचने की फुरसत कहाँ थी। उसे तो अपनी भेड़ों को एक नया सबक सिखाना था।

जंगल जाकर उसने आगे सिखाया, भेड़िया आएगा। अबकी बार जल्दी ही भेड़ें उसकी नकल में बोल उठी-भेड़िया आयेगा।” रोज-रोज एक पंक्ति करते-करते चरवाहे ने भेड़ों को पूरा सबक सिखा दिया। भेड़ें इधर-उधर चरती और एक स्वर में रटती रहतीं-भेड़ों भेड़ों!! भेड़िया आयेगा। चट्टान पर ले जायेगा। उसके पीछे मत जाना। सावधान रहना। अपनी जान बचाना। भेड़ों के मुख से अपनी पढ़ाई गयी बातों को सुनकर चरवाहा बहुत प्रसन्न हुआ। वह सोचने लगा कि मैंने ऐसा काम कर दिया है कि अब एक भी भेड़, भेड़िये के चंगुल में नहीं फँसेंगी और न उसे बिना बात का घाटा होगा। उसे लगा उसकी सोच कामयाब हो गयी। क्योंकि इतने दिनों एक भी भेड़ कम नहीं हो रही थी। वह सोच रहा था कि यह सब मेरी पढ़ाई का कमाल है, जबकि बात कुछ और ही थी। असल में भेड़िया भेड़ों की फिराक में रोज ही इधर आता था, परंतु हर बार चरवाहे की रेवड़ के साथ तैनात देखकर उसकी दाल नहीं गलती थी। वह दूसरे शिकार की तलाश में निकल जाता था।

इधर कुछ दिन सजग रहने के बाद चरवाहे ने अपनी इस नयी कामयाबी की खबर पत्नी को उल्लास के साथ कह सुनायी। देखो! तुमको भेड़ों की पढ़ाई पर कतई विश्वास न था। पर मैंने कर दिया न एक नया काम। एक ऐसा काम जो अब तक कोई भी न कर सका। अब हमारी सारी भेड़ों ने हमारी पढ़ाई सारी बातों को रट लिया है। तुम भी चाहों तो सुन सकती हो। अब भेड़िये की क्या मजाल जो उन्हें गुमराह कर सके। पत्नी उसकी बातों को रट लिया है। तुम भी चाहों तो सुन सकती हो। अब भेड़िये की क्या मजाल जो उन्हें गुमराह कर सके। पत्नी उसकी बातों पर फिर एक बार मुस्करा दी। वह फिर से नहीं समझ पाया कि उसकी इस मुसकराहट का रहस्य और अर्थ क्या है? अथवा यों कहो कि वह अपनी सफलता की खुशी में इस कदर मग्न था कि कुछ और समझना ही नहीं चाहता था। अब तो उसने अपनी पहले वाली दिनचर्या अपनाने की भी ठान ली थी। वह पहले की ही भाँति भेड़ों के रेवड़ को जंगल में छोड़ देता और स्वयं बावड़ी के पास वाले चबूतरे पर बैठकर मीठे-मीठे सपने देखता।

भेड़िये को फिर से मौका मिल गया। वह अभ्यस्त शिकारी की भाँति फिर रेवड़ में घुसा। रेवड़ की सारी भेड़े सिर झुकाए घास चरती जाती और वहीं पाठ दुहराती जाती थीं जो उन्हें चरवाहे ने सिखाया था। भेड़ों के मुँह से ये अटपटी बातें सुनकर भेड़िया तो चकरा गया। उसने सोचा-अरे ये तो सारी की सारी भेड़ें अक्लमंद हो गयी हैं। भला अब मेरे पीछे-पीछे क्यों आएँगी?

फिर भी उसने एक प्रयत्न करते हुए अपने आप से कहा-एक बार आजमाकर देख लेने में क्या हर्ज है? उसने देखा भेड़ों का एक छोटा झुण्ड एक ओर घास चर रहा था, वह उसी ओर बढ़ा। उन्हीं की भाँति गर्दन नीची किए एक-एक कदम उस ऊँची ढलान, गहरी की खाई की ओर बढ़ने लगा। उसकी देखा-देखी भेड़ों का वह झुण्ड भी उधर ही बढ़ने लगा। मगर वे सभी वही पाठ दुहराती जाती थीं, जो चरवाहे ने उन्हें सिखाया था। बस फिर क्या था! भेड़िये ने चट्टान का शिखर पर पहुँचकर खाई की ओर छलाँग लगा दी। देखा-देखी भेड़ें भी एक-एक करके खाई में गिरने लगीं। इस बार अंतर बस इतना ही था कि पहले जहाँ भेड़ें में-में करती हुई गिरती थीं, जबकि इस बार वे सब की सब एक साथ सिखाया गया पाठ दुहराते हुए गिरती थीं।

उधर चरवाहे की पत्नी एक खास समाचार लेकर जंगल में पहुँची। उसने देखा कि उसका पति बावड़ी के पास वाले चबूतरे पर आराम से पैर फैलाए लेटा हुआ सो रहा है। उसने उसे झिंझोड़ कर उठाया और रेवड़ का हाल पूछा। चरवाहा अकड़ के साथ अपनी मेहनत का बखान करता पहुँचा। जब वे पति-पत्नी रेवड़ से थोड़ी दूर थे, पत्नी ने चरवाहे को ऊँची चट्टान की ओर उँगली उठाकर इशारा किया। चरवाहे ने देखा कि एक-एक करके उसके उस झुण्ड की बारह भेड़ें खाई में गिरने जा रही थी। वह अपनी भेड़ों को बचाने दौड़ा। वो वहाँ तक पहुँचता, तब तक उसका सिखाया पाठ दुहराती बारहवीं भेड़ खायी में गिर चुकी थी, आवाजों की गूँज अभी भी जंगल में तैर रही थी।

‘भेड़ों ! भेड़ों !! भेड़िया आयेगा। चट्टान पर ले जायेगा। उसके पीछे मत जाना। सावधान रहना। अपनी जान बचाना। इस गूँज को सुनकर चरवाहा सिर पीटकर रोने लगा। उसने अपनी पत्नी से कहा-मैंने इतनी मेहनत और लगन से इन भेड़ों को पढ़ाया, ये मेरी पढ़ाई बेकार कैसे गई। ? पत्नी ने उसे धीरज देते हुए कहा-” पत्नी ने उसे धीरज देते हुए कहा-पहले घर चलो गुरुजी आए है। सारी बातें उन्हीं पूछेंगे।” पत्नी के साथ चरवाहे को भी गुरुजी पर बहुत विश्वास था। वे उसके माता-पिता के भी गुरु थे। उनके ज्ञान की गरिमा एवं सिद्धियों की सामर्थ्य से अकेले उसका ही गाँव नहीं आस-पास का समूचा क्षेत्र परिचित एवं प्रभावित था। गुरुजी के आगमन की बात सुनकर लगा, अब तो समाधान मिल ही जायेगा।

घर पहुँचने पर उसने गुरुजी को सारी बात विस्तार से कह सुनायी। पूरी कहानी सुनकर वह रहस्यपूर्ण ढंग से मुसकराते हुए कहने लगे-तुमने भेड़ों को सिखाया, वह भेड़ों ने रट लिया, पर उन्हें समझ लेती। यदि ऐसा होता तो उन्हें ये दिन देखना न पड़ता। फिर थोड़ा रुककर वे उसे समझाते हुए बोले-बेटे ऊँची-ऊँची बातों को रट लेने भर से काम नहीं चलता। ज्ञान वही सार्थक है जो आचरण एवं अनुभूति का विषय बन जाय। जो लोग भारी-भरकम शास्त्र-वचन महापुरुषों के उद्धरण रट तो लेते हैं, पर आचरण में उतार नहीं पाते। उनकी भी दशा तुम्हारी भेड़ों की तरह होती है। दुष्प्रवृत्तियों का भेड़िया आता है और वे उसके पीछे-पीछे लम्बे-चौड़े सिद्धांत रटते हुए चल देते हैं, अन्ततः पतन के गर्त में समा जाते हैं।”

चरवाहे को गुरुजी की बात समझ में आ रही थी, जबकि गुरुजी उससे कह रहे थे, तुम्हें हमेशा कुछ नया करने का शौक है, तो इस बार नया यह करो कि कर्मठ बनो और ज्ञान को आचरण में उतारो।” उसने हामी भरते हुए अपनी बगल में देखा, पत्नी पास में खड़ी मुस्करा रही थी।


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