बलिदान ने जगायी संवेदना

November 1997

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तक्षशिला से कुछ मील दूर एक विशाल शिलाखंड पर कुछ दिगम्बर साधु साधना में तल्लीन थे । ज्येष्ठ मास की तीव्र उष्णता से सारा पृथ्वी मण्डल लावा बना हुआ था। सूर्य की प्रखरता में प्रत्येक पदार्थ झुलस तथा मुरझाया प्रतीत होता था । फिर भी तवे सी तपती उस शिला पर वे नग्न दिगम्बर साधु निर्विकार भाव से बैठे आत्मचिंतन में लीन थे । तभी तक्षशिला के शासक आँभी तथा अरस्तू के प्रमुख शिष्य ओनेसिक्राइट्स जो सिकन्दर के भारत आक्रमण के समय उसके साथ पधारे थे, इन मुनियों के साथ भारतीय दर्शन की गहराइयों की चर्चा करना चाहते थे । साधू जनों को नंगे बदन बैठा देखकर उसने साथ खड़े दुभाषिये से पुछवाया क्या इस प्रकार जंगल में बैठकर कष्ट क्यों सा उत्तम कोटि का वस्त्र इन्हें दे सकते हैं। दुभाषिये ने प्रश्न का उत्तर यूनानी में अनूदित करते हुये कहा इस देश में किसी भी वस्तु की कमी नहीं है त्याग से ही मुक्ति है भोग से तो संसार बँधता है।

यूनानी दार्शनिक को यह सिद्धान्त न रुचा । उसने पाश्चात्य दर्शन एवं अरस्तू के भौतिक सिद्धान्तों की जो खोलकर विवेचना की और उन्हें प्रलोभन दिया कि विश्वविजेता सिकन्दर तुम्हारे ऊपर विशेष कृपालु है इसका लाभ उठाये ।

तुम्हें यूनान ले चलेंगे। जहाँ तुम्हारे ज्ञान विज्ञान की वृद्धि होगी। पर वीतरागी दिगम्बर मुनि प्रलोभन से परे थे। इसी माया जाल से बचने के लिये ही तो उन्होंने यह वेष धारण किया था वे मौन हो गये। यूनानी दार्शनिक जैसे ही सदल बल वापस होने लगा। आनन्द नाम एक मुनि ने उच्च स्वर में कहा ठहरो में चलूँगा तुम्हारे साथ! ओनेसिक्राइट्स की अपनी विजय बाछें खिल उठी पर आनन्द मुनि का एक प्रधान साधु ने इतने दिनों की साधना एवं तपस्या नष्ट भ्रष्ट कर म्लेच्छों के साथ जाने का विरोध किया। किन्तु आनन्द मुनि में लोककल्याण की प्रवृत्ति प्रबल थी । उन्होंने विनम्रतापूर्वक उन वृद्ध संन्यासी से निवेदन किया कि जब तक विभिन्न दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन न होगा, सच्चा ज्ञान प्राप्त करना दुर्लभ है अतः आज्ञा प्रदान करें । वृद्ध संन्यासी उत्तर में मौन हो गये।

आनन्द मुनि जिसे कैलानोस नाम से यूनान में जाना जाने लगा था। कैलानोस के यूनान जाने से यूनानी दर्शन पर भारतीय चिन्तन का प्रभाव स्पष्ट झलकने लगा।भारतीय चिन्तन की दार्शनिक प्रवृत्तियाँ यूनानी जन जीवन पर सर करने लगी। आनन्द मुनि के शिक्षण का तरीका बहुत मोहक था । वे अत्यन्त सरल तरीके से गूढ़तम रहस्यों का बोध करा देते। एक दिन वह भारी भीड़ के सामने प्रवचन कर रहे थे। तभी भीड़ के सामने प्रवचन कर रहे थे। तभी उन्होंने सुना कि सिकन्दर ने पाँच बेगुनाह लोगों को राजद्रोह के अपराध में प्राणदण्ड की आज्ञा दी है तो वह बिलबिला उठे। उनकी आत्मा उन पाँचों प्राणियों को बचाने के लिये छटपटाने लगे जीव दया से उनका हृदय हो उठा।

उन्होंने अपने मित्र ओनेसिक्राइट्स से अपनी हार्दिक वेदना कह सुनायी । ओनेसिक्राइट्स सिकन्दर की बर्बरता एवं कठोरता को अच्छी तरह समझता था। वह जानता था कि सिकन्दर की आज्ञा के विरुद्ध कुछ कर पाना सूर्य को पूर्व से पश्चिम में उगवाना है । फिर भी वह करना चाहता था। अतः उसने सिकन्दर से निवेदन की सलाह दी। तभी सहसा बिगुल बज उठा और लोग राजदरबार में इकट्ठे होने लगे। दोनों दार्शनिक भी वहाँ पहुँच। वहाँ खम्भों से बंधे उन पाँचों आदमियों को देखकर आनन्द मुनि का अंतःकरण छटपटा उठा।

महामंत्री सेल्यूकस अपराधों के विशय में सिकन्दर से कुछ कह रहे थे। क ही पड़ा तुम अनूठे दिमाग वाले ही और शरीर में दिमाग की तरह ही मेरी दृष्टि में तुम्हारा मूल्य है। दया द्रवित कैलानोस ने पूछा क्या इन पाँचों आदमियों सम्मिलित मूल्य से मेरा मूल्य अधिक है? सम्राट सिकन्दर इस प्रश्न को सुनकर एकबारगी छटपटा गया पर शीघ्र ही सावधान हो उत्तेजनापूर्ण बोला इनका मूल्य ता समाप्त हो चुका है पर आप तो अत्यधिक स्मरणीय एवं मूल्यवान है।

आप इन पाँचों के बदले मेरे प्राण लें ले और इन गरीबों छोड़ दें खम्भों से बंधे निरीह और सहमे हुये पाँचों व्यक्तियों की ओर संकेत करते हुये कैलानोस बोले।

सिकन्दर बड़े असमंजस में फँस गया। वह अरस्तू का शिष्य था। उसने अपने ज्ञान विज्ञान के तर्क वितर्क एवं प्रबल युक्तियों द्वारा कैलानोस को परास्त कर उनको प्रण से डिगाना चाहा पर कैलानोस उसकी सभी युक्तियों का तर्क सम्मत उत्तर देते हुये अपनी बात पर दृढ़तापूर्वक डटे रहे। जब सम्राट को कोई और उपाय न सूझा तो सैनिकों को आँख का संकेत किया । सम्राट का संकेत पाते ही यूनानी सिपाहियों ने उन्हें वहाँ से हटा दिया। बेचारे दार्शनिक कैलानोस आँसू बहाते हुये चले गये। बिगुल बजाकर वे पाँचों प्राण विहीन कर दिये गये। कैलानोस इस घटना से बड़े चिन्तित हुए । सिकन्दर की बर्बरता और दुष्टता से उनका मन काँप उठा। उनका चित्त अस्थिर हो गया। बार बार उन्हें वृद्ध संन्यासी का मुखर मौन याद आ रहा था। कहाँ तो संतों का संग और कहाँ यहाँ का बर्बरता का स्वरूप ।

वे फिर से वापस अपनी संन्यासी मण्डली में जान की सोचने लगे। पर अब घनिष्ठ मित्र बन चुके ओनेसिक्राइट्स की विनय और बार बारी किये जा रहे आग्रह अनुरोध उन्हें उसके साथ चलने के लिये विवश करने लगे और जब सिकन्दर सदल बल भारत से लौटा तो कैलानोस भी ओनेसिक्राइट्स के साथ विवश एवं बेचैन मन से यूनान की सीमा से राजमहल की और चल पड़े।

लौटते हुये मार्ग में युद्ध की विभीषिका से संत्रस्त एवं छटपटाती हुई मानवता दरिद्रता दीनता एवं भुखमरी आदि मर्मस्पर्शी दशाओं को देखकर कैलानोस बेचैन हो उठे और अपने मित्र से ही पूछ बैठे क्या तुम्हारी संस्कृति एवं दर्शन तुम्हें यही सिखाते हैं ? क्या तुम्हारे यहाँ मानवता का कोई मूल्य नहीं है ? ओनेसिक्राइट्स एक क्षण मौन रहा, किन्तु तत्क्षण ही अट्टहास कर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की युक्तियों से उस महामानव को बहलाने के लिए सत्प्रयत्न करने लगा, पर उससे उनके भावनाओं से भरे अन्तःकरण को सन्तोष न हुआ। तभी वे राजप्रसाद की ओर मुड़ पड़े कि सहसा उन्हें नारी कण्ठ का करुणापूर्ण आर्त क्रन्दन सुनायी पड़ा।

दीर्घ निश्वास खींचकर करुणा विगलित स्वर में कैलानोस ने अपने मित्र से पूछा- “यह करुण क्रंदन किसका है? उसे क्या कष्ट? जो इस तरह बिलख-बिलखकर रो रही है।” यूनानी दार्शनिक ओनेसिक्राइट्स अपेक्षा भाव से बोला- “ मालूम होता है, यह स्वर हमारी दासी एथेना का है।” जैसे ही वे दोनों ड्योढ़ी लाँघकर एक विशाल प्रांगण में पहुँचने की ठिठक कर रह गये। ओनेसिक्राइट्स की पत्नी हेलना अपनी दासी एथेना पर कोड़े बरसा रही थी। पूछने पर पता चला कि दासी ने ईरानी गुलाम से विवाह किया है, इसलिए उसे सजा दी जा रही है।

हेलना की निष्ठुरता देख कैलानोस थर-थर काँप उठे, अपने मित्र से बोले “क्या तुम्हारे दर्शन में प्यार करना भी अपराध है? यह तो मानव प्रवृत्ति है? ओनेसिक्राइट्स हँस पड़ा और बोला- मित्र छोड़ो इन बातों को व्यर्थ में चिंतित न होओ। कैलानोस लगभग जड़वत् घिसटते हुए राज प्रसाद में पहुँचे। हेलना ने वहाँ उनका स्वागत किया और भोजन में कुछ यूनानी मेवे व फल तथा सुमधुर पेय प्रस्तुत किए। कैलानोस ने बड़ी अरुचि से थोड़े से रूखे मेवे खाकर कोरा जलपान किया।

तभी हेलना ने ताली बजाकर एथेना को बुलाने का आदेश दिया। परिचारिका ने सिर झुकाकर निवेदन किया, “एथेना राजमहल में नहीं है, शायद उसी गुलाम के साथ भाग गयी हो।” यूनानी दार्शनिक की पत्नी का स्वर क्रोध से तीव्र हो उठा, वह होंठ चबाते हुई बोली- “ इसी समय सैनिकों को उसे पकड़ने को भेजो और जरूरत हो, तो महा सेनापति परदीक्ष से भी सैनिक सहायता ली जा सकती है।” अपनी पत्नी की बात सुनकर ओनेसिक्राइट्स ने अपने भारतीय मित्र को संकेत किया और वे दोनों ही बाहर आ गए।

बाहर आकर उसने कैलानोस से कहा- “शीघ्रता करो, किसी तरह मामला आपस में निबटा लें, नहीं तो एथेना को सिकन्दर प्राणदण्ड देगा।” वे दोनों सैनिकों की दिशा में दौड़ गए। एक स्थान पर हजारों संत्रस्त सत्रप् खड़े थे और उनकी हेलना के सैनिकों से झड़प हो रही थीं। तभी सिकन्दर के दो हजार सैनिक भी आ पहुँचे। अब तो सामूहिक नर हत्या होने में कोई शंका नहीं रह गयी थी। कैलानोस विचलित हो उठे। उनका मन-पक्षी छटपटाने लगा। वे सत्रपों के झुण्ड में कूदें और जोर-जोर से चिल्लाकर उन्हें समझाने की व्यर्थ चेष्टा करने लगे। पर उनकी भाषा को वहाँ कौन समझता था और न वे सत्रपों की भाषा समझते थे। बड़ा संक्रान्ति काल था।

इतने में एक वृद्ध कैलानोस की बातें ध्यानपूर्वक सुनने लगा। वह टूटी-फूटी संस्कृत जानता था। हिंसा न करने की बात सुनकर घोषणा के स्वर में वह बोला- “हमारे धर्म गुरु के पौत्र ने इस यूनानी दासी को अपने धर्म में दीक्षित कर विवाह कर लिया है। अब हम उसे मरने को वापस नहीं कर सकते, कैलानोस को स्थिति की विषमता समझते देर नहीं लगी, पर दासी को लौटाए बिना इतना बड़ा नरसंहार रुकना मुमकिन न था। वे उस वृद्ध के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर विनीत स्वर में बोले- “आप दासी को लौटा दें, उसे कोई दण्ड न मिलेगा। यदि दासी को दण्ड मिलेगा, तो उससे पूर्व वही दण्ड मैं भोगूँगा।” उन दिनों भारतीय साधु प्रामाणिकता के चरम मानदण्ड थे। उनकी बात पर शंका-सन्देह की कोई गुँजाइश न थी। दासी एथेना सिकन्दर के सैनिकों को सौंप दी गयी।

यूनानी के सम्राट सिकन्दर ने जब एथेना के भागने की घटना सुनी, तो उसने एथेना को जीवित जला देने का प्राणदण्ड देने की आज्ञा सुना दी, तो एक बार फिर से वे एथेना के अपराध की क्षमा प्राप्ति के लिए सिकन्दर के पास पहुँचे और दृढ़ निश्चय से निवेदन किया। सिकन्दर अपने भौतिक बल के आगे मनोबल को कुछ समझता ही न था। उसने एक बार फिर उन भारतीय दार्शनिक की प्रार्थना अस्वीकार कर दी। वह भारतीय दार्शनिक भी अपने आत्मबल के चमत्कार पर पूर्णतया दृढ़ था।

सिकन्दर के आदेश से दो चिताएँ तैयारी की गयीं। एक कैलानोस और दूसरी एथेना के लिए। सिकन्दर ने भारतीय दार्शनिक को एक बार फिर समझाया, पर उन्होंने अस्वीकार करते हुए दृढ़ शब्दों में कहा- “भारतीय दर्शन पाश्चात्य दर्शन की भाँति मात्र तर्क एवं विचार नहीं, बल्कि आचरण एवं अनुभूति है।” जैसे ही कैलानोस चिता पर चढ़ने लगा कि सहसा सामने से ओनेसिक्राइट्स दौड़ता हुआ आया और अपने मित्र के गले से लिपटकर रुंधे स्वर में बोला-मित्र घर वापस चलो। पर कैलानोस अपने वचन पर दृढ़ था।

सिकन्दर अब भी कठोर ही बना रहा, उसने कैलानोस की चिता में एक साथ आग लगाने का आदेश दे दिया। वह महान भारतीय दार्शनिक पद्मासन लगाकर ध्यानमग्न हो गया। चिता धधक उठी और उस महा मानव की अखण्ड मूर्ति उन लाल-पीली ज्वालाओं में मोम की भाँति लगने लगी। उपस्थित जन समुदाय की कुछ आँखों में श्रद्धा थी तो कुछ आँखों में करुणा तथा कुछ में क्षोभ और विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। सिकन्दर भी कुछ विक्षिप्त हो उठा था।

आत्मबलिदान और उत्सर्ग के इस महान आदर्श से उस बर्बर शासक का हृदय भी दया द्रवित हो उठा। यह पहला अवसर था, जब उसकी आँखें बर्बरता और कठोरता को पिघलाकर करुणा के अश्रु कण बहा रही थीं। तभी एथेना को चिता की ओर लाया गया। उसमें भी वीराँगना की भाँति चिता की ओर कदम बढ़ाए, तभी सिकन्दर ने सिंह गर्जना करते हुए आदेश दिया- “हम एथेना को क्षमा करते हैं”। चारों ओर तालियाँ गड़गड़ा उठीं। भारतीय दार्शनिक के आत्मबलिदान और उत्सर्ग के कारण होने वाले सिकन्दर के इस हृदय परिवर्तन से जनसमुदाय में उल्लास एवं प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। उन सभी को सम्बोधित करते हुए यूनान सम्राट ने श्रद्धा विगलित स्वर में कहा- हमें अपने भारत अभिमान में अखण्डित, राजनीतिक, विजय भले ही मिली हो, पर भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के सम्मुख आज हम पूरी तरह पराजित हुए। भारत महादेश के सम्मुख हम नतमस्तक हैं और यह नतमस्तक होना हम सबके लिए सौभाग्य की बात है।” सम्राट की इस वक्तृता की समाप्ति के साथ संन्यासी कैलानोस एवं भारतीय दर्शन की जय-जयकार से सारा वातावरण गुँजायमान हो उठा।"


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