अपनों से अपनी बात - - महाकाल ही मंगलाचरण थिरकन को तीव्र से तीव्रतर बना रहा है

November 1997

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रामकृष्ण परमहंस के महाप्रयाण के पश्चात् की बात है। सभी शिष्य आत्मबोध हेतु बिखर गए थे। कुछ ही थे, जो कलकत्ता में रह रहे थे। नरेन्द्रनाथ जिनने स्वामी विवेकानन्द बनने के पूर्व कई नाम बदले थे, ऐसी ही भ्रमण यात्रा पर हिमालय क्षेत्र में थे। गुरु के स्थल सान्निध्य का अभाव उन्हें भी कसमसाता था। अन्दर से गहन प्यास थी कि परमचेतना का वह सान्निध्य क्या पुनः नहीं मिल सकता। तड़पन बढ़ती जाती थी, व्याकुलता चरमसीमा पर थी। ऐसी ही मनःस्थिति में उन्हें लगा, काश कोई ऐसा गुरु मिल जाता, जो मुझे स्थूल रूप में मार्गदर्शन देता व वैसा ही वात्सल्य भी, जो कोई ठाकुर से मिला था। एक बाबाजी के दर्शन के बाद उनमें उन्हें कुछ ऐसा दिखाई पड़ा कि सम्भवतः उनसे भावी जीवन सम्बन्धी, आत्मिक - प्रगति सम्बन्धी मार्गदर्शन मिले। परमहंस तत्काल उनके मन में यह भाव प्रकट होने के कुछ क्षणों बाद सूक्ष्म रूप में सामने आए और बोले कि “नरेन ! क्या तू भी औरों की तरह नादान है। क्या तू भी यही समझता है कि मैं शरीर के अग्निभूत होने के साथ समाप्त हो गया ? क्या अशरीरधारी सूक्ष्म - कारणजगत में सक्रिय मेरी सत्ता तेरी आध्यात्मिक प्यास नहीं बुझा सकती, जो तू दूसरे गुरु को खोजता है ?” इस अनुभूति ने नरेन्द्रनाथ को अन्दर से बाहर तक मथ डाला एवं एक नये संन्यासी का जन्म हुआ, जिसने जीवन के अंतकाल तक मात्र ठाकुर का ही नाम लिया, सारा श्रेय उन्हीं को दिया, कभी भी गुरु के इतर कुछ और सोचने की बात मन में नहीं आयी।

हम सभी के लिए परमपूज्य गुरुदेव की स्थूलसत्ता के महाप्रयाण के मान वर्ष एवं परमवंदनीया माताजी के शरीर को पंचतत्वों में विलीन हुए प्रायः साव तीन वर्ष बाद, यह परीक्षा की घड़ी है। यदि हमें गुरुसत्ता की सूक्ष्म चेतना पर अटूट विश्वास है। तो निश्चित ही वह हमें किसी न किसी रूप में मार्गदर्शन देती रहेगी, यह संकल्प हमारा प्रतिपल दृढ़ होता चले जाना चाहिए। गुरु से वास्तविक प्रेम करने वालो के लिए समय व चेतना की दूरी कोई मायने नहीं रखनी चाहिए। यदि मायने रखती है। तो इसका मतलब कहीं कोई अहंभाव पल रहा है, पोषण पा रहा है एवं हर क्षण हमें गुरुतत्त्व से दूर ले जा रहा है। एक ओर गुरु की गरिमा का गान करना, किन्तु उसके बताए मार्ग पर न चलना कहीं और ताक-झाँक कर अपनी महत्त्वाकाँक्षा को प्रधानता देते हुए उस मार्ग से भटक जाना, जो गुरु ने बताया था, एक ऐसी विडम्बना है जो किसी भी शिष्य के साथ जुड़े, उसके पतन का ही कारण बनती है। एक और बात देखने में आती है कई व्यक्ति अपनी चिन्तन-क्षेत्र से उपजी मान्यता को गुरुसत्ता की प्रेरणा का नाम देकर अनुभूति-अन्तः स्फूर्त प्रेरणा बताते हुए स्वयं को भी भरमाते हैं, अपने पीछे चलने वाले समुदाय को भी दिग्भ्रमित करते हैं। यह प्रश्न मात्र आत्मावलोकन-आत्मविवेचन की दृष्टि से अपने आप से किया जात रहा है एवं सभी अपनों से करने का निवेदन किया जा रहा है कि कहीं आत्मप्रवंचना की इस मृगतृष्णा में हममें से कोई उलझ तो नहीं गया। यदि उत्तर ‘नहीं’ में है तो यह सकारात्मक चिन्ह है एवं हमें प्रेरक बल प्रदान करते हुए शक्ति देता है, भविष्य के उज्ज्वल होने का संकेत भी देता है।

फरवरी 1973 की ‘अपनों से अपनी बात’ इस संदर्भ में पढ़ने योग्य है। किस शिष्य को सद्गुरु के अनुदान मिलते हैं - उसके लिए पात्रता किस स्तर की होनी चाहिए, इस सम्बन्ध में परम प्राण-प्रत्यावर्तन की भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने लिख है कि “गुरुदेव इन दिनों यही देख रहे हैं कि वे कौन हैं, जो आत्मबल का अनुदान उसी प्रयोजन के लिए चाहते हैं, जिसके लिए कि वह अनादिकाल से मिलता रहा है ........ स्वर्ग में गंगा का अवतरण शिवाजी की जटाओं में हुआ था, हमारी अन्तः-स्थिति शिवजी की जटाओं जैसी पवित्र और निर्मल होनी चाहिए।” उदाहरण देते हुए वंदनीया माताजी लिखती हैं - “गुरुदेव ने भौतिक कामनाएँ छोड़ी और महानता पर अपने को उत्सर्ग किया। यही वह प्रथम चरण था, जिससे मुग्ध होकर उनके मार्गदर्शक दौड़ते हुए चले आए और अपना आन्तरिक रस-तत्व उन्हें भी वत्स की तरह निचोड़ कर पिला दिया। यही राजमार्ग उन लोगों के लिए भी खुला पड़ा है, जो कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ चाहते हैं। “ ............... “परमार्थ परायण, श्रेयानुगामी अपनी तप-साधना त्याग एवं बलिदान से आरम्भ करते हैं किन्तु पाते इतना अधिक हैं कि स्वयं धन्य बनते हैं और अपने युग के इतिहास को चिरस्मरणीय - अभिनन्दनीय बनाते हैं।”


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