स्वप्न से आत्मबोध

November 1997

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जीवन क्या है ? इसी उधेड़-बुन में आँखें झपक गयीं । स्वप्न में एक सन्त दिखे । उस स्वप्निल सन्त ने सिर छिपाने के लिए ऐसी अद्भुत कुटिया में रहने का निश्चय किया, जो जोहड़ की मिट्टी से बनी थी । छत उसकी इतनी कमजोर थी कि न जाने कब वह गिर जाए । जगह-जगह दीवालों में छिद्र हो गए थे । बरखा ऋतु में उसका टप-टप कर चूरा होता था । पानी एवं दुर्गन्धमय मिट्टी के संयोग से उसमें छोटे-छोटे कीड़ों ने जन्म ले लिया था । गली-सड़ी तरु शाखाओं से उसे बाँधा गया था, अतएव मजबूती न थी । उस कुटिया के बीचों-बीच एक बड़ा नाला बहता था, जिसमें से स्वच्छ जल आता था, किन्तु कुटिया के दूषित माहौल से वह भी दुर्गन्धमय हो जाता था । कुटिया के बाहर मच्छर, बर्र और ततैये थे । सन्त जब भी बाहर निकलते, सबके सब चारों ओर से चिपटकर उन्हें काट लेते और सन्त का शरीर लहूलुहान हो जाता । इस प्रकार उन सन्त का जीवन बहुत कष्ट में गुजर रहा था ।

इस असह्य कष्ट से छुटकारा पाने लिए वे शान्ति की खोज में चल पड़े । उन सन्त की मुलाकात एक देवर्षि से हो गयी । देवर्षि के समक्ष उन्होंने अपनी व्यथा-कथा कह डाली । देवर्षि ने मुसकराते हुए उनको आश्वस्त किया । सन्त को लेकर वह स्वयं चल दिए । काफी दूर निकल आए । अब की बार वे दोनों गहन अरण्य में जा पहुँचे । पहुँचते- पहुँचते अन्धकार हो गया, मार्ग भी आगे दिखाई न दिया, तभी ऐसे में देवर्षि भी अन्तर्ध्यान हो गए सन्त विचारने लगे कि अब क्या करूं ? खाने को कुछ भी नहीं, कैसे होगा, अब आगे शून्य ही शून्य दिखाई देता है । आज तो बुरे फँसे । रात गहरा रही थी, अँधेरा घना हो चुका था कि लुटेरे आ गए । उन्होंने सन्त को खूब मारा-पीटा । वे विकल हो रोने लगे । जैसे-तैसे भाग कर अपने प्राण बचाए । शरीर थककर चूर हो गया था । इतने में उन्होंने एक तपस्वी साधक को देखा । वह कुछ आश्वस्त हुए । उस महातपस्वी ने सन्त को सन्मार्ग सुझाया । थोड़ी देर सुस्ताकर सन्त तपस्वी के साथ चल दिए । अबकी बार वे उत्तर दिशा की ओर बढ़े ।

कुछ ही दूर यात्रा हुई थी कि सन्त को एक महल दिखाई दिया । वह उत्सुकतावश महल के निकट पहुँचे । उन्होंने देखा महल अति सुन्दर और भव्य है । यहाँ के निवासी घनिष्ठ मित्र से लगते हैं, भोजन के लिए नाना पकवान हैं । यहाँ रहकर सुख मिलेगा । यह सोचकर उन्होंने महल में ही रहने का निश्चय किया । महल में उनके रहने की व्यवस्था एक ऐसे कमरे में हुई, जिसमें दरवाजे ही दरवाजे थे । उस कमरे में एक सुन्दर आसन भी था, उस पर वह विराज गए । ठंडी- ठंडी बयार बह रही थी । तभी उनको भूख लग आयी । पलक झपकते ही भोजन-व्यवस्था हो गयी । भोजन के उपरान्त उनको निद्रा देवी ने आ घेरा । यह देखकर महातपस्वी उनसे बोले-बन्धु ! सोओ मत, जागो । सन्त ने आलस्यवश उनकी अनसुनी कर दी और वे सो गए । इतने में वहाँ वंचक आ गए और उनसे कहने लगे-चल उठ कहाँ सो रहा है, जाग ? बड़ा आया-यहाँ सोया है आराम से, तेरे बाप की नगरी है । मालूम है यह वंचकपुरी है । ऐसा कहकर उन्हें शिला पर पटक कर दे मारा और उनका सब कुछ छीन लिया । सन्त बहुत दुखी हुए और मन ही मन पश्चात्ताप करने लगे कि यदि मैं तपस्वी साधक की बात मान लेता तो यह दुर्दशा न होती ।

तपस्वी ने उनको इस दशा में देखा तो उनका हृदय करुणा से ओत-प्रोत हो गया । वे बोले-भाई मेरे ! मैंने पहले ही कहा था कि यहाँ सो मत जाग, लेकिन तुमने मेरा कहा माना ही नहीं । खैर घबराओ नहीं, अब फिर हिम्मत कर मेरे पीछे-पीछे आओ ।

तपस्वी की वाणी सुनकर उनमें फिर से साहस आ गया और उन्होंने अपने आप को सँभाला । चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए । सन्त ने बहुत ध्यान से देखा, परन्तु तपस्वी नजर नहीं आए । इतने में सुगन्धित पवन का झोंका आया । ऐसी गन्ध सन्त ने पहले कभी न सूँघी थी । उन्हें उसका स्पर्श भी बहुत मधुर लगा । निश्चय ही यहीं-कहीं रमणीय स्थल होगा, यह विचार कर वे कुछ आगे बढ़े, जिस ओर से गंध आ रही थी । न जाने किस प्रेरणा से उस ओर वे आगे बढ़ते रहे । आखिर में वे ब्रह्मपुरी आ पहुँचे । यहाँ पहुँचकर उनको भय नहीं लगा ।

इस ब्रह्मपुरी का राजा ब्रह्मदेव एक अलौकिक मंदिर में रहकर शासन करता था । सन्त की इच्छा इस अद्भुत मन्दिर को देखने की हुई । कुछ पग ही धरे थे कि मन्दिर भी उन्हें दिखाई दे गया । सन्त मन्दिर में प्रविष्ट हुए । सामने सिंहासन पर ब्रह्मदेव के शरीर से प्रकाश की अनोखी किरणें निःसृत हो रही थीं । इन दिव्य किरणों से सारा दरबार प्रकाशमान था । मन्दिर को इस निराली छटा से वह मुग्ध होकर बोले-मेरी यात्रा सफल हो गयी । मैं कृतकृत्य हो गया । मेरे समस्त दुःख पलायन कर गए । अब तो मैं यहीं रहूँगा । कितना वैभव है यहाँ के राज्य का । इनके एक ओर तो विवेक नामधारी मंत्री खड़े हैं, तो दूसरी ओर विश्वास नाम का सेवक । समता नामक अनुचर पंखा झल रहा है । एक-एक करके क्षमा-आर्जव आदि नौकर-चाकर सेवा हेतु तैनात हैं।

सन्त ने राजा के चरण-वन्दन की अभिलाषा व्यक्त की । सन्त की अभिलाषा को राजा ने जाना और उनको अपने कर-कमलों द्वारा उठाकर अपनी गोद में कुछ इस तरह बिठाया, जैसे पुत्र को पिता बिठाता है । ब्रह्मदेव की गोद में बैठते ही सन्त जगत को भूल गए ।

उधर सन्त परमानन्द सागर में अवगाहन में अवगाहन करने लगे, इधर आचार्य श्रीधर हड़बड़ाकर जाग गए। उनका स्वप्न टूट चुका था । नींद फिर आयी न थी । बस फिर क्या था ? इस विचित्र स्वप्न के अर्थ उनके मन में कुछ इस तरह स्पष्ट होने लगे-अरे यही स्वप्न तो जीवन-कथा है । दुर्गन्धयुक्त कुटिया देह रूप है । मुँह से मलद्वार तक नाला है, जिसमें स्वच्छ पदार्थ भी प्रवेश पाकर विष्ठा रूप में परिणत हो जाते हैं । मच्छर, बर्र और ततैये स्वार्थी-सम्बन्धी-जन हैं, जो दिन-रात काटते रहते हैं । सन्त रूपी प्राणी सुख-शान्ति के लिए अज्ञानतावश परिधि में भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके हाथ मात्र निराशा ही लगती है । देवर्षि और तपस्वी गुरु रूप हैं, जो पथ का पाथेय देते हैं, तब कहीं जाकर सन्तात्मा परमात्मा बन पाती है । स्वप्न में निहित सत्य के बोध ने उनके विवेक-चक्षु खोल दिए और श्रीधर ब्रह्मवेत्ता श्रीमत् श्रीधराचार्य के रूप में लोक-विख्यात हो गए ।


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