सच्चा मित्र

January 1997

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केवल एक प्रार्थना आप स्वीकार कर लें।” युवक ने कप्तान से लगभग गिड़गिड़ाकर कहा-”मैं जहाज पर रहूंगा। हरिशरण को आप नौका पर ले लें।”

“कप्तान?” हरिशरण ने बड़े दृढ़ स्वर ने कहा- “चिट्ठियों ने जो निर्णय किया है, उसे बदलने का अधिकार आप को भी नहीं है। शीघ्रता कीजिए। देर करने से नौका भी जहाज के साथ जाएगी।”

जहाज का पेंदा फट चुका था। बड़ा भयंकर तूफान आया था समुद्र में। जहाज को नियन्त्रण में रख पाना असम्भव हो गया और निश्चित मार्ग से भटकने का जो फल हो सकता था हुआ। किसी समुद्र में डूबे पर्वत से (मूँगे का पर्वत भी हो सकता है) जहाज टकरा गया। पेंदे के मार्ग से समुद्र का पानी शीघ्रता से भरता जा रहा था। बचने का कोई आशा नहीं थी।

बेतार के यन्त्र से समाचार चारों ओर भेजे जा चुके थे। लेकिन इतनी शीघ्र सहायता पहुँच सके, इसकी कोई आशा नहीं दिख रही थी। कोई भी अच्छा बन्दरगाह पास नहीं। रक्षा नौकाएँ उतारी गयी। वृद्ध, बालक एवं महिलाएँ उन पर बैठा दी गयी। अन्त में केवल एक नौका रही। उस पर केवल पन्द्रह व्यक्ति बैठ सकते थे। “कौन बैठे? किसे मरने की छोड़ दिया जाए?” कप्तान ने चिट्ठियां डलवायी और जो पन्द्रह नाम पहले निकले, उन्हीं पर बिठाना निश्चित हो गया।

बड़ी विचित्र है इन दोनों की मित्रता। एक ओर प्राणों के लाले पड़े है और प्राणों के लाले पड़े है और यह मनमोहन है कि अड़े है- मैं नौका पर नहीं जाऊँगा। मेरे स्थान पर हरिशरण जाएँगे।

“मनमोहन बचपना मत करो। चिट्ठी तुम्हारे नाम की निकली है। हरिशरण कोई बात सुनना नहीं चाहते। जाकर नौका पर बैठो।”

“कोई चलो, पर चलो!” कप्तान को इससे मतलब

नहीं कि कौन चलेगा उसे शीघ्रता है-”मैं और प्रतीक्षा नहीं कर सकता है।”

“आप नौका खोल दें?” मनमोहन ने दृढ़ स्वर से कहा-”हम दोनों साथ मरेंगे।”

“हरिशरण जी। आप भी पधारें।” कप्तान इस मित्रता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने नौका में एक व्यक्ति का अधिक भार होने पर कोई भय हो सकता है, इस बात की उपेक्षा कर दी। “हम सोलह व्यक्ति लोग नौका में।”

लेकिन नौका में बैठ जाने से ही प्राण रक्षा हो जाय, ऐसी आशा किसी की नहीं थी। तूफान-वह तूफान जिसमें जहाज पथ-भ्रष्ट होकर फट गया था, शान्त नहीं हुआ था। उस तूफान में रक्षा नौकाओं की रक्षा का ही कितना भरोसा?

जिसकी आशंका थी, वही हुआ। रक्षा नौका लहरों के प्रवाह में बह चली-बहती गयी और लहर के थपेड़ों से, शार्क या अन्य किसी जल-जन्तु के आघात से पता नहीं कैसे सहसा टुकड़े -टुकड़े हो गयी। अभागे यात्री-सागर की उत्ताल तरंगें और ऊपर खुला आकाश-कोई उनका क्रन्दन सुनने वाली भी नहीं था।

समाचार पत्रों में दूसरे दिन उस जहाज के डूबने का समाचार छपा। एक भारतीय जहाज उस समय समुद्र में कही पास ही था। उसने बेतार के यन्त्र पर सहायता की पुकार सुनकर दौड़ लगायी। समाचार पत्र तथा देश के शासकों एवं संस्थाओं ने भारतीय जहाज के कर्मचारियों के साहस को धन्यवाद दिया था। भयंकर तूफान के चलते उस भारतीय जहाज ने डूबते जहाज तथा रक्षा नौकाओं पर बैठे प्रायः सभी यात्रियों को बचा लिया था। केवल एक रक्षा नौका नहीं मिल सकी। उसके कुछ यात्री, जिनमें डूबने वाले जहाज का कप्तान भी था। समुद्र में टूटे तख्तों के सहारे तैरते हुए उठाए गए थे। एक जहाज दुर्घटना में डूब जाय और पाँच-सात प्राणियों की हानि हो-किसी को गिनने जैसी बात नहीं लगी।

इस ढूँढ़-खोज से बेखबर उसने हम कहाँ है? कहते हुए आंखें खोली। खुरदरी काली चट्टान पर कोई उसका सिर गोद में लिए बैठा था। प्रचण्ड धूप ने पत्थर को गरम कर दिया था। कितनी देर मूर्छित रहा वह, पता नहीं। नेत्र खोलने पर एक बार इधर-उधर देखना चाहा। समुद्र के किनारे ही पड़ा था वह और उसका मस्तक अपने मित्र की गोद में था।

“तुम उठ सकते हो?” हरिशरण ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-”तनिक प्रयत्न करो। थोड़ी दूर खिसकने से हम छाया में पहुँच जाएँगे। उठने की उसने चेष्टा की और वह ओ-ओ करके वमन करने लगा। समुद्र का जो पानी पेट में चला गया था, उसका निकल लाना अच्छा ही हुआ। नौका डूबने पर दोनों भाग्य से एक ही तख्ते को पकड़ सके। उसके बाद क्या हुआ यह किसी को पता नहीं। लहरों के थपेड़ों ने श्वास लेना असम्भव प्रायः कर दिया। मूर्छा आ गयी उन्हें।

हरिशरण कुछ पहले जागे। मूर्छा से ही नहीं महामृत्यु से जगने जैसा लगा उन्हें। लहरों ने किनारे की चट्टान पर पटक दिया था। अंग-अंग जैसे टूट गया था। शरीर के कितने स्थान फटकर घाव बन गए है, यह जानने-समझने की शक्ति नहीं थी। मस्तक दर्द से फटा जा रहा था और पेट में जैसे ज्वालामुखी जाग गया हो। मिचली आयी और सबसे पहले मुख में अंगुली डालकर डालकर वमन की क्रिया को उन्होंने सहायता दी।”

“मनमोहन कहाँ है?” पेट में गया समुद्र का जल निकलते ही पीड़ा इतनी कम हुई थी कि मस्तिष्क हिलाकर इधर-उधर देखा जा सके। उनका मित्र उनसे तीन-चार हाथ पर चित्र पड़ा था। उसके शरीर के घावों से निकल कर रक्त उस काली शिला जहाँ-तहाँ जम गया था।

समुद्र का ज्वार उतर गया है। तूफान प्रायः शान्त हो चुका था। हरिशरण को अपनी पीड़ा भूल गयी। वे पेट के बल धीरे-धीरे खिसकने लगे। वह चार हाथ की दूरी चार योजन जैसी बन गयी थी। शरीर तवे की भाँति ज्वर से जल रहा था और ऊपर धूप में असह्य तेजी थी। किसी प्रकार खिसकते हुए वे मित्र के पास पहुँचे। शरीर छूते ही यह आश्वासन मिल गया-जीवन है।

“हम कहाँ हैं?” मनमोहन ने उठने का प्रयत्न किया और फिर लुढ़क गया। दोनों की दशा लगभग एक जैसी थी।

“कहाँ है, यह कौन जाने, किन्तु यहाँ से कुछ गज वर वृक्ष है। तुम साहस करा!” हरिशरण समझते थे कि चाहे जो हो, वृक्षों तक खिसक ही चलना चाहिए। यहाँ पड़े रहने तो तो मृत्यु निश्चित है। पीने योग्य पानी कहीं आस-पास है या नहीं, पता नहीं और यहाँ धूप तथा ज्वर के कारण कण्ठ सूख रहा है।

“पानी?” मनमोहन ने माँग नहीं की। उसने केवल जानना चाहा कि आस-पास कहीं जल है या नहीं?

“तुम छाया तक खिसक चलो तो मैं जल की खोज करने का प्रयत्न करूं।” हरिशरण ने उठने में सहायता दी। वैसे स्वयं उनके लिए उठना और खिसकना अत्यन्त कष्टकारक हो रहा था किन्तु वे नहीं चाहते थे कि मनमोहन को यह अनुभव हो कि उन्हें भी कुछ पीड़ा है।

“तुम्हें कहाँ चोट लगी? बड़ा तीव्र ज्वर है तुम्हें।” मनमोहन ने अब हरिशरण का हाथ पकड़ा ओर उनकी ओर देखना प्रारम्भ किया। उठने का प्रयत्न करने के बदले वह उनके मुख की ओर एकटक देखने लगा। उसके नेत्रों से धारा चलने लगी।

“मुझ कुछ नहीं हुआ।” हरिशरण ने उसके नेत्र पोंछ दिए। तुम रोओ मत! जो आपत्ति आ पड़ी है, उसे साहस तथा धैर्य से ही टाला जा सकता है। उठो तो सही।

दोनों ही इस योग्य नहीं थे कि उठ कर खड़े हो जाते। बैठकर एक दूसरे के सहारे खिसते, रुकते किसी प्रकार वृक्ष की छाया में पहुँचकर दोनों प्रायः लुढ़क गए। नेत्र खुलते नहीं थे। हरिशरण नेत्र बन्द किए-किए ही मित्र को आश्वासन दे रहे थे।

हे बजरंगबली! मनमोहन श्री हनुमान जी के उपासक हैं। वे अपने आराध्य का इस संकट में स्मरण न करें, तो कब स्मरण करेंगे।

सहसा एक धमाका हुआ। दोनों चौककर बैठ गए। दोनों के मध्य वृक्ष के ऊपर से एक बन्दर गिर पड़ा था और थर-थर काँप रहा था। अपने सब अंग उसने समेट लिए थे ओर सिर दोनों घुटनों में दबा रखा था।

“शेर आ रहा है।” सोचने-समझने का समय नहीं था। पचास गज से भी कम दूरी रह गयी थी। वृक्षों के बीच से निकल कर वनराज चडकड करता बड़ी धीर गति से बढ़ा आ रहा था। बन्दर शेर के भय से ही काँ रहा था और शेर के भय से ही वृक्ष से लुढ़क भी पड़ा था वह।

“शरणागत है यह!” मनमोहन को निश्चय करने में दो क्षण भी नहीं लगे। वह बन्दर को अपने पेट के नीचे दबाकर उसके ऊपर झुक गया। मरना ही है तो हम तीनों साथ मरेंगे। “हरिशरण अपने मित्र को नीचे करके उसके ऊपर झुक रहे।”

“क्या करते हैं आप?” लेकिन मनमोहन को न हिलने का समय मिला न बोलने का। एक हाथ से हरिशरण ने उसका मुख बन्द कर दिया। शेर पास आ गया था।

शेर सचमुच वन का राजा है। काली धारियों से सजा उसका पीला वर्ण, उसकी गम्भीर चाल और सबसे बढ़कर उसका गौरवपूर्ण स्वभाव। वह न गीदड़ जैसा ओछा है, न चीते जैसा धूर्त। उस वनराज के सम्बन्ध में कोई नहीं कर सकता कि कब वह क्रोध करेगा, कब कृपा करेगा और कब क्षमा कर देगा?

शेर पास आया। दो क्षण रुका रहा। कौतुक से देखता रहा टीले के समान एक-दूसरे पर पड़े तीनों प्राणियों को। उसने कदाचित सोचा होगा-यह कौर-सा पशु है, अपने वन में ऐसा गोलमटोल पशु तो मैंने देखा नहीं। कैसी गन्ध आती है इससे? बन्दर की और बन्दर से विचित्र भी। मैं माँरुगा इस? वन का राजा मैं इस बिना पैर के कछुए के समान पड़े रहने वाले पशु को माँरू। क्या हुआ जो यह खूब बड़ा कछुआ है। कोई प्राणी अपरिचित आहार सहसा मुख में नहीं डालता। शेर किसी विवशता से मनुष्य भक्षी न बन जाय, तब तक मनुष्य पर चोट नहीं करता ओर उस वन में मनुष्य आया होगा-सन्देह है।

शेर जैसे आया था, वैसे ही दूसरी ओर चला गया। जब वह ओझल हो गया, हरिशरण उठकर बैठ गए। मनमोहन ने भी बन्दर के ऊपर से अपने को अलग किया। बन्दर कई क्षण वैसे ही सिकुड़ा बैठा रहा। इसके बाद जब उसने नेत्र खोलें-पहले दो पैरों पर खड़े होकर इधर-उधर देखना प्रारम्भ किया और फिर उन दोनों मनुष्यों को देखता और कई प्रकार के संकेत करता रहा। सम्भवतः कृतज्ञता प्रकट कर रहा था। सहसा वहाँ से वह एक ओर भागने लगा और वृक्षों की डालियों पर कूदता बन में चला गया।

“पास ही कहीं जल होना चाहिए।” हरिशरण ठीक कह रहे थे। शेर पानी पीने गया हो सकता है या फिर पानी पीकर लोटा होगा।

समुद्र के किनारे कहीं मीठा पानी होगा, यह तो कठिन ही है। मनमोहन ने इधर-उधर देखना प्रारम्भ किया। छाया की शीतलता ने बहुत कुछ कष्ट कम कर दिया था अकस्मात जो भय आया था, उसकी शरीर पर अनुकूल प्रतिक्रिया हुई थी। बहुत पसीना आया और ज्वर उतर गया।

“लगता है महावीरजी ही हमारी रक्षा करने आए थे?” मनमोहन ने फिर गदगद कण्ठ से कहा।

“मालूम पड़ता है, हमारे लिए उन्होंने एक नवीन मित्र भेज दिया है। हरिशरण ने देख लिया था कि वह बन्दर लौट रहा है। वृक्षों पर से चढ़ना-उतरना बड़ा कठिन हो रहा है, उसके लिए किसी प्रकार दो बड़े-बड़े कच्चे नारियल मुख और एक हाथ के सहारे पकड़े चला आ रहा है उन्हीं की ओर।

इस अनोखी मित्रता के सहारे दिन-रातों में और दिवस में बदलने लगीं। इस बीच ये दोनों पास के वनवासियों से भी घुल-मिल गए। इन दिनों हरिशरण को अपने मित्र के आचरण-व्यवहार में कुछ बदलाव महसूस हुआ। उन्होंने अपने मित्र को समझाने का निश्चय किया। आज वे उसे एकान्त में इसीलिए ले आज थे। वे उसे तेज स्वर में कुछ समझा रहे थे।”

“मैं मनुष्य हूँ हरिशरण! मनुष्य के संयम की एक सीमा है।” मनमोहन ने मस्तक झुका रखा था।

“तुम भारत लोटने को उत्सुक नहीं हो या तुम उसे भारत ले जाने के लिए प्रस्तुत हो?” हरशिरण ने सीधा सवाल किया।

“मेरी पत्नी, मेरे बच्चे और मेरा हृदय भारत में ही है।” जन्मभूमि के स्मरण से ही मनमोहन ने नेत्र भर आए।” हम वहाँ इस जीवन में पहुंच सकेंगे या नहीं, कौन जानता हैं?”

“तुम उसे साथ ले चलने का साहस करोगे, यदि चलने का अवसर आवे?” हरिशरण ने फिर पूछा।

“उसे ले चलना छिः।” मनमोहन ने मुख बनाया। “यह कैसी बात सोचते हो तुम? यह कैसे सम्भव है? आवश्यकता भी क्या है इसकी?”

कोई आवश्यकता नहीं है ? बड़ा तीक्ष्ण व्यंग्य था। वह एक वन्य कन्या है। कुरुपा है। असभ्य जाति की है। तुम्हें इसी से अधिकार है कि उसको जैसे चाहो ठगो।

इसमें ठगने की क्या बात है? मनमोहन ने सिर उठाया-उसकी जाति में कुछ पतिव्रत नहीं चलता। उसे कोई असुविधा नहीं होती है।

तुमने बता दिया है? स्वर कठोर हो गया-न बताया हो तो मैं उसके पिता को बता दूँ कि तुम विवाहित हो और भारत लौटने के उत्सुक भी।

“ यह सुनते ही पागल हो जाएगा।” मनमोहन चौंक पड़ा। उसके मित्र ने मन में यह बात आयी कैसे? वही मित्र जिसने उसे बचाने के लिए अनेकों यत्न किए। यह अचानक बदलाव उसने कुछ सोचते हुए कहा-”तुम चाहते हो कि वह क्रूर जंगली मेरी बोटियाँ कुत्तों को खिला दे?

“यह कुछ बुरा नहीं होगा।” हरिशरण पर कोई प्रभाव न पड़ा।”मेरे मित्र पर इतना पतन हो जाए कि वह भोले वनवासियों को धोखा देकर उनकी कन्याओं से अपनी कुत्सित वासना पूरी करना चाहे, इससे अच्छा है कि वह मार डाला जाय।”

दोनों ही भाग्य से जहाँ पहुँच गए थे, वह कोई वन्य भूमि थी। ऊँचे वृक्ष, घनी लताएँ और सभी प्रकार के वन पशु। यह तो उन्हें बहुत पीछे पता चला कि वे अफ्रीका महाद्वीप पर हैं। भूलते-भटकते एक गाँव में पहुंच गए थे वे। चारों ओर ऊँची लकड़ियों का सुदृढ़ घेरा बनाकर बीच में जंगल काटकर स्वच्छ भूमि निकाल ली यहाँ के लोगों ने। कुछ झोपड़ियाँ है उस भूमि के मध्य। केले लगे है आस-पास और कुछ खेत भी है। सामान्य जंगली जातियाँ आखेट जीवी होती हैं और यह गांव इसमें अपवाद नहीं। केवल इतनी बात है कि अफ्रीका के घोर वनों में रहने वाली जातियों के समान यहाँ के लोग नरभक्षी या मानव शत्रु नहीं है।

समुद्र का यह तट दूर-दूर तक जहाजों के ठहरने योग्य नहीं है। कहने को यह गांव ब्रिटिश उपनिवेश का भाग है किन्तु इतनी दूर है, उपनिवेश की मुख्य बस्तियों से कि गांव के बड़े-बूढ़ों को स्मरण है कि गाँव में एक बार तीन शिकारी साहब कुट हब्शी मजदूरों के साथ आये थे। जब हरिशरण और मनमोहन ग्राम में पहुँचे-उनका स्वागत-सत्कार हुआ। गांव के लोगों ने समण-ये दोनों साहब ही हैं। कपड़े पहनने वाला उनके लिए साहब हो गया या साहब का कृपापात्र। वे तो कमर में छाल लँगोट लगाते हैं। स्त्रियां खजूर के पत्तों का घाघरा पहनती है।

कोलतार जैसा काला शरीर मोटे-मोटे होंठ, पीले गन्दे दाँत उनकी भाषा का एक शब्द मनमोहन नहीं जानता था। हरिशरण विद्या व्यसनी हैं। यात्रा से पहले ही उन्होंने मूक संवाद (केवल होंठ हिलाकर बातचीत) बड़े परिश्रम से सीखी। प्रायः सभी जंगली जातियाँ बातचीत की यह पद्धति जानती हैं। अफ्रीका में यह नित्य की बात है कि दो ऐसी जाति के हब्शी परस्पर मिलें जो एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते। मूक संवाद की पद्धति को उसे महाद्वीप की सार्वभौम भाषा माननी चाहिए। इस भाषा के कारण ग्राम के निवासियों का परिचय कर लेने में हरिशरण को कोई खास कठिनाई नहीं पड़ी। मनमोहन ने भी अपने मित्र से यह भाषा कुछ गिने-चुने दिनों में सीख ली। अर्द्धनग्न लड़कियाँ और युवतियाँ भले ही वे अत्यन्त कुरूप सही, किन्तु मनुष्य के भीतर जब वासना जगती है.....। मनमोहन को उनके मध्य में ही रात-दिन रहना था। पता नहीं क्यों, उनमें से कई इस गोरे दिखने वाले युवक से बहुत आकर्षित हो गयी थी। मनमोहन ने भी एक से अधिक घनिष्ठता बढ़ा ली और बात इस सीमा तक पहुँच गयी कि उसके सावधान मित्र को उसे अकेले ले जाकर समझाना आवश्यक जान पड़ा।

“तुम मित्र हो?” दो क्षण तो मनमोहन स्तब्ध खड़ा रहा।

“हाँ, और मैं आपने मित्र को कुपथ पर नहीं चलने दे सकता।” हरिशरण ने बड़े दृढ़ स्वर में कहा।

“मैं क्या करूं? तुम मुझे क्षमा कर दो।” स्वर में बहुत थोड़ी ग्लानि थी। “देखो मनमोहन। मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ। तुम जानते हो कि मैं झूठ नहीं बोला करता। हरिशरण का स्वर बड़ा गम्भीर बन गया था- तुम यह भी जानते हो कि तुम पर थोड़ी भी विपत्ति हो तो मुझे उसे मिटाने के लिए मर-मिटने में भी प्रसन्नता होगी। लेकिन मेरा मित्र दुराचारी कुमार्गगामी हो जाए, धूर्त कपटी बने और मरने के बाद जन्म-जन्म तक नरकों में सड़े, इसकी अपेक्षा में पसन्द करूंगा कि वह मार डाला जाए। उसके देह का मोह मुझे नहीं रोक सकेगा।

हरिशरण के इस कथन को सुनकर उसे अपने पर ग्लानि होने लगी। वे दोनों मित्र नित्य ही जंगल में घूमने जाते हैं।

समुद्र और उसमें अग्नि लगा देना हरिशरण ने अपनों नित्य-नियम बना लिया था। एक दिन उनका परिश्रम सफला। उधर से निकलने वाले एक जहाज ने धुआँ देख लिया। कौतुकवश ही किनारे आया था वह जहाज, किन्तु उसके कप्तान को भी कम प्रसन्नता नहीं हुई, इन दो मित्रों का इस प्रकार उद्धार करने में।

अपने घर में पहुँचकर मनमोहन अपने मित्र की प्रशंसा करते नहीं अघाया। उसने कहा-हरिशरण जी मेरे सच्चे मित्र हैं। आखिर सच्चे मित्र की परिभाषा यही तो है-”कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।” यदि वे न होता मैं कब का डूब चुका होता। वे सभी से कहते-मित्रता ही करनी है, तो आप भी मेरी तरह कोई सच्चा मित्र तलाशिए।


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