ध्वनि से सम्बन्धित एक सर्व ज्ञात तथ्य है कि समपान कम्पन गति वाले एक अँग्रेजी के वाई के आकार के उपकरण (टयूनिंग फार्क) तथा एक तार को ले। तार पर एक छोटा सा टुकड़ा मोड़कर रख दे। अब टयूनिंग फार्क को किसी ठोस से टकराकर कम्पन उत्पन्न करे और तार के समीप लाये। स्पष्ट दिखाई देता है कि कागज का वह छोटा सा टुकड़ा नाचने लगा। जबकि तार और टयूनिंग फार्क के मध्य संपर्क का माध्यम केवल आकाश था। टयूनिंग फार्क के कम्पन समान अवस्था वाले तार में भी कम्पन उत्पन्न कर देते हैं। तार के इन वास्तविक कम्पनों के कारण ही कागज का टुकड़ा नाचने लगता है। एक और प्रयोग है। पंचम स्वर पर चढ़े हुए तबले को कसकर रख दे। बरसात के दिनों में यदि बादल पंचम स्वर में गरज उठे तो उसकी गड़गड़ाहट का पृथ्वी में रखे हुए तबले पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह देखें। तबले का चमड़ा अपने आप फट जाएगा। यह शब्द की शक्तिशाली तरंगों के द्वारा होता है।
इन दो प्रयोगों के समान ही समान तत्वों वाले मनुष्य और सूर्य में मानसिक सम्बन्ध स्थापित करने का काम वह 24 अक्षरों के कम्पन करते हैं, जिन्हें गायत्री मन्त्र कहा जाता है। ठीक उसी प्रकार सूर्य और मनुष्य में तात्त्विक एकता है। शास्त्रकार का कथन है-”सूर्यात्मा जगतस्थस्थुशष्च” सूर्य जगत की आत्मा है। जबकि हमारी चेतना हमारे शरीर जगत की आत्मा है। इन दो चेतनाओं को समान गति से कम्पित और सम्बन्ध स्थापित कर सकने की सामर्थ्य उन 24 अक्षरों में है, जिसे गायत्री मन्त्र कहते हैं।
विज्ञान का यह नियम है कि उच्चस्तर या अधिक शक्ति का प्रवाह निम्न स्तर अथवा कम शक्ति वाले केन्द्र की ओर तब तक बहता है, जब तक कि दोनों समान न हो जायें। गायत्री से प्राप्त सिद्धियाँ इसी तादात्म्य की परिपक्व अवस्था ही है, जब मनुष्य भौतिक शरीर में हो सूर्य की चेतना के समान सर्वव्यापी, सर्वदर्शी और सर्वसमर्थ हो जाता है, वह न केवल जलवायु, लोगों के स्वास्थ्य, मन की बातें जान लेने की सामर्थ्य पा लेता है वरन् इनसे भी सूक्ष्म-से-सूक्ष्म गतिविधियों और शक्तियों का स्वामी हो जाता है, यह सारे संसार को भी नष्ट कर सकता है, किन्तु सूर्य देवता से संपर्क स्थापित होने के बाद गायत्री उपासक में उन्हीं को सी करुणा, सद्बुद्धि और सद्गुण, सद्विचारों को अधिक से अधिक सत्कर्मों में लगाने लगता है तो उसकी साधना की सफलता और भी सत्त्वर हो उठती है।
कोई मनुष्य शाँत और प्रसन्न-मुद्रा में बैठा हो, उस समय अन्य कोई उसके पास जाकर भावनापूर्वक कुछ निवेदन कर तो उसमें आशातीत समर्थन प्राप्त किया जा सकता है। बजाय तब जबकि वह अस्त-व्यस्त और अशाँत स्थिति में हो। कोई तालाब स्वच्छ और शाँत हो तो उस पर एक छोटा-सा कंकड़ फेंककर ही रंगों का उत्पादन किया जा सकता है। यह भाव और विज्ञान दोनों का मिला-जुला स्वरूप है। भारतीय आचार्यों ने जो आचार संहिताएँ और वैज्ञानिक प्रयोग किये है, वे उक्त सिद्धान्त को दृष्टि में रखकर ही किये। पिछले दिनों उसी सूक्ष्म दर्शन का एक प्रयोग गया था। वह सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ के रूप में था। शास्त्रों में उल्लेख है कि कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट रीति से गायत्री उपासनाएँ एवं यज्ञादि प्रक्रियाएँ सम्पन्न की जाये तो उनसे सूर्य देव की आध्यात्मिक शक्तियों को विशेष रूप से प्रभावित एवं केवल अपने लिए वरन् सम्पूर्ण समाज, राष्ट्र और विश्व के लिये सुख-समृद्धि और शाँति का अनुदान उपलब्ध किया जा सकता है।
अक्टूबर 1958 का सहस्र कुण्डी यज्ञ जो मथुरा में गायत्री तपोभूमि में सम्पन्न हुआ, एक ऐसा ही प्रयोग था। पीछे मौसम वैज्ञानिकों ने भी इस मान्यता के एक भाग की पुष्टि कर दी। 1 जुलाई, 1957 से 35 दिसम्बर, 1958 तक खगोलशास्त्रियों से अन्तर्राष्ट्रीय शाँत सूर्य वर्ष (इंटरनेशनल इयर ऑफ दि क्वानेट सन) संक्षेप में ‘इक्विसी’ मनाया। यह नाम इसलिये रखा गया कि इन दो वर्षों में सूर्य बिलकुल शाँत रहा और अध्ययन करने का अवसर मिला। लगभग इसी अवधि से उस यज्ञ की तैयारी हुई थी। साधकों ने एक वर्ष पूर्व से ही गायत्री के विशेष पुरश्चरण प्रारम्भ किये थे और नवम्बर 1958 में 4 दिन तक यज्ञ कर कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति दी थी। गायत्री का देवता सविता है, इसलिए इस गायत्री अभियान का भी उद्देश्य उसका अध्ययन और प्रयोग भी था और उन उपलब्धियों से सारे विश्व समाज को लाभान्वित कराना भी जो ऐसे अवसरों पर देव शक्तियों को सुविधापूर्वक अर्जित को जा सकते हैं।
उस यज्ञ के बाद से विश्व की गतिविधियों का अध्ययन करने वाले यह देखकर आश्चर्यचकित है कि न केवल प्रकृति अपने विधान बदल रही है वरन् लोगों की भावनाएँ और विचार भी तेजी से बदल रहे है। अमेरिका एवं योरोप की विलासिताप्रिय और भौतिकवादी प्रज्ञा भी अध्यात्म का आश्रय पाने के लिए भागी चली आ रही है। भारतवर्ष को तो उसका सुनिश्चित लाभ मिलने वाला है, भले ही उसका प्रत्यक्ष दर्शन 1999 के बाद दिखाई दे। अपने दैनिक जीवन में सूर्य की शाँत स्थिति प्रातः और संध्या के समय होती है, भारतीय आचार्यों ने यह दोनों ही समय जप के लिए उपयुक्त बताये है, इसी प्रकार नवरात्रि पर विशेष साधनाएँ करने का जो विधान है, वह सूर्य की इस आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का खोज का ही फल है एवं पूर्णतया विज्ञानसम्मत है।