जब कोई न भूख से मरेगा, न बीमारी से

January 1997

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विश्व के सामने आज अनेक समस्याएँ ऐसी है जो अपना तत्काल समाधान चाहती है। उन्हीं में से एक सर्वप्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समस्या है-निरन्तर बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्य सामग्री जुटाना। पृथ्वी पर इन दिनों प्रायः 6 अरब मनुष्य है। अभी जब इतनों के लिए तन ढकने के लिए वस्त्र, पेट भरने के लिए अन्न एवं सिर छिपाने के लिए आच्छादन की व्यवस्था नहीं हो पा रही है तो अगले ही कुछ वर्षों में जब यह संख्या 10-11 अरब हो जाएगी तो फिर इतने जनों का पेट कैसे भरेगा? खाद्य समस्या कैसे सुलझेगी? तब क्या लोग भूखों मरेंगे या फिर छीना-छपटी पर उतारू होकर मत्स्य न्याय की कहावत चरितार्थ करेंगे? मानव-अस्तित्व से सीधा जुड़ा हुआ यह एक ऐसा ज्वलन्त प्रश्न है जिसके सम्बन्ध में विश्व-मनीषा का चिन्तित होना स्वाभाविक है।

इस संदर्भ में अर्थशास्त्रियों, समाज विज्ञानियों एवं विचारशील मनीषियों ने गहन विचार-मंथन किया है और जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये है, वे उज्ज्वल भविष्य की आशा बँधाते हैं। ‘द प्लेन टुथ’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक हरबर्ट डैब्ल्यू आर्म्स स्टोंग ने अपनी पुस्तक ‘दि वन्डरफुल वर्ल्ड टूमारो’ में विश्व की खाद्य समस्या के निराकरण की संभावनाओं को प्रकट करते हुए बताया है कि इन दिनों यह समस्या जितनी भयावह दिखाई पड़ रही है वस्तुतः वह उतनी है नहीं। आज विश्व की कुल भूमि का 10 प्रतिशत भाग ही कृषि योग्य बन पाया है, लेकिन मानवी पुरुषार्थ एवं प्रयत्नशीलता को देखकर यही कहा जा सकता है। कि अगले दिनों इक्कीसवीं शताब्दी में कालाहारी, सहारा और गोबी जैसी विशाल मरुभूमि को भी हरा-भरा बनाया जा सकेगा, जिससे विश्व के खाद्य उत्पादन में वृद्धि होगी। इतिहास साक्षी है कि बड़ी-से-बड़ी एवं कठिन-से-कठिन परिस्थितियों पर भी मानवी पुरुषार्थ विजयी होता रहा है। पुरुषार्थी को ही ईश्वरीय सहायता भी मिलती है। अतः कोई कारण नहीं कि मरुस्थल की हरा-भरा बनाने में कोई कठिनाई आयेगी। मरुभूमि का ही नहीं-समुद्री सम्पदा का दोहन भी इक्कीसवीं सदी में पूरी तरह कर सकना संभव हो सकेगा और इस तरह बढ़ी आबादी का पेट भरा जा सकेगा।

न्यूयार्क में ‘हडसन इन्स्टीट्यूट’ के संचालक तथा ख्यातिलब्ध भविष्यवक्ता हरमन काहन का कहना है कि इक्कीसवीं सदी में विश्व की खाद्य समस्या जनसंख्या वृद्धि के बावजूद भी सुलझा ली जाएगी। उनने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘द नेक्स्ट टू हन्ड्रेड ईयर्स’ में उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करते हुए कहा है कि सन् 2176 तक संसार में गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी और बेकारी की समस्या समाप्त हो जाएगी विश्व की आर्थिक व्यवस्था अधिक सुदृढ़ बनेगी।

लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठेगा। सुख और समृद्धि का वातावरण बनेगा। विज्ञान एवं तकनीकी का और अधिक विकास होगा। सुविधा-साधनों की कोई कमी न रहेगी। आवश्यकता के अनुरूप विद्युत आपूर्ति भी हो सकेगी। धरती की समस्त खनिज सम्पदा का भरपूर सदुपयोग बन पड़ेगा, जिससे प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ेगी।

‘वर्ल्ड रिसोसेंज इंस्टीट्यूट, वाशिंगटन, डी. सी’ के प्रवक्ता रौबर्ट रेपेटो ने अपनी पुस्तक ‘द ग्लोबल पौसीबल-रिसोसेंज, डवलपमेंट एण्ड द न्यू सेंचुरी’ में बताया है कि सन् 1960 से लेकर 1992 तक की अवधि में विश्व की प्रतिव्यक्ति आय में 3.5 प्रतिशत की अभिवृद्धि हुई है। अविकसित माने जाने वाले कोरिया जैसे राष्ट्रों ने अपनी प्रतिव्यक्ति आय को 1910 डालर तक पहुँचाया है। पिछले लगभग दो दशकों में उसने 6.6 प्रतिशत तक की अभिवृद्धि की है। सघन आबादी वाले राष्ट्रों की इस विकासोन्मुख प्रवृत्ति को देखकर इतना ही कहा जा सकता है कि सन् 2000 तक संसार का हर अविकसित राष्ट्र अपने प्रयत्न-पुरुषार्थ का परिचय देकर विकसित देशों की पंक्ति में जा खड़ा होगा और इक्कीसवीं शताब्दी में कोई भी देश गरीब नहीं रहेगा। खाद्यान्न की समस्या का समाधान भी होकर रहेगा। कारण स्पष्ट है कि पिछले दिनों न्यूनतम आय वाले राष्ट्रों के खाद्यान्न उत्पादन में भी 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इन देशों ने नारी-शिक्षा के महत्त्व को भी समझा है, जिससे यह संभावना सुनिश्चितता का रूप धारण करने जा रही है कि इक्कीसवीं सदी नारियों के लिए उज्ज्वल संभावनाएँ लेकर आयेगी और अशिक्षा तथा अज्ञान का अंधकार मिटेगा। सारे संसार की महिलाएँ स्वतंत्र रूप से सुख-शाँति का जीवन जी सकेगी।

विश्व के अनेक देशों विशेषकर गरीब, पिछड़े एवं अविकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों के सामने इन दिनों न केवल शिक्षा एवं आवास की समस्या गंभीर रूप धारण किये हुए है, वरन् उन्हें भूखों भी मरना पड़ रहा है। पर अगले दिनों यह स्थिति बदलने वाली है और सभी को जीवनयापन करने योग्य साधन-सुविधाएं उपलब्ध होने वाली है। इस सम्बन्ध में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध खगोलज्ञ ऐरिक जेू चेसन ने अपनी कृति ‘कौस्मिक डौन’ में कहा है कि आज विश्व की तीन-चौथाई आबादी अविकसित देशों में निवास करती है, जहाँ समय-समय पर बाढ़, दुर्भिक्ष एवं सूखा जैसी अनेक प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप होता रहता है। लेकिन विकसित राष्ट्रों के पास आवश्यकता से अधिक खाद्यान्नों का भण्डारण संग्रहित होता जा रहा है। अगले दिनों यह प्रवृत्ति बदलेगी और वे अपनी उदार वृत्ति का परिचय देकर खाद्य समस्या सुलझाने में प्रयत्नशील होगे। संश्लेषित खाद्य सामग्री के निर्माण से विश्व की बढ़ी हुई आबादी की भूख मिटाने की की समस्या का समाधान ढूँढ़ लिया जाएगा। कृत्रिम तरीकों से विनिर्मित ये खाद्य पदार्थ पोषक तत्वों से भरपूर होंगे, जिससे कुपोषण जैसी समस्या तब लोगों के सामने नहीं रहेगी इतना ही नहीं, अभी विश्व में सैन्य शक्तियों को प्रोत्साहित करने और अणु आयुध जुटाने व विकसित करने में जो धन व्यय किया जा रहा है, बुद्धिमत्ता विकसित होने पर उस राशि को रचनात्मक कार्यों को पूरा करने, शिक्षा, आवास एवं आहार जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को जुटाने पर खर्च किया जाएगा। चैसन ने इसे विश्व नियन्ता की परिवर्तन प्रक्रिया की सुनियोजित संभाव्य योजना की संज्ञा दी है, जिसकी प्रेरणा से युद्धोन्माद की प्रवृत्ति शाँति का स्वरूप धारण कर लेगी। अशक्त एवं अभावग्रस्तों के प्रति स्नेह सद्भाव का वातावरण बनेगा और तब न लोगों की भूखे पेट सोना पड़ेगा और न अज्ञान व अभावग्रस्त रहना पड़ेगा।

अमेरिका के लैस्टर आर. ब्राउन ने भी अपनी पुस्तक ‘वर्ल्ड विदाउट बाँर्डर्स’ में बताया है कि इक्कीसवीं शताब्दी में विज्ञान और तकनीकी अपने सुविकसित स्तर तक जा पहुँचेगी। वह मानव जाति के लिए अभिशाप न बनकर वरदान साबित होगी। विनाश के स्थान पर विकास को ही प्रोत्साहन मिलेगा। इसका अनुमान विश्व के अनुसंधान एवं विकास कार्यक्रमों की सक्रियता को देखकर लगाया जा सकता है कि इक्कीसवीं शताब्दी आरम्भिक चरणों तक हर किसी को जीवनोपयोगी साधनों की उपलब्धि भरपूर मात्रा में हो सकेगी, जिससे जीवन स्तर भी सुधरा हुआ होगा।

ब्राउन ने अपनी उक्त पुस्तक में मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य का जो खाका खींचा है, उसका प्रमुख आधार विश्व व्यवस्था को माना गया है। उनके अनुसार निकट भविष्य में अर्थ प्रधान समाज व्यवस्था का अंत होकर समता का स्वरूप विकसित होगा, जिससे किसी को भी गरीबी, बेकारी और भुखमरी का शिकार नहीं बनना पड़ेगा। इन दिनों बेकारी की समस्या इसलिए भी है कि लोग गाँवों को छोड़कर शहरों की ओर भागते हैं, लेकिन अगले ही कुछ वर्षों में यह प्रवृत्ति बदलेगी और ग्रामीण क्षेत्रों को अधिक विकसित करने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाएगा, जिससे लोगों की अभिरुचि प्रदूषण रहित ग्रामीण अंचल में रहने की बनेगी। इक्कीसवीं शताब्दी में नगर की घिचपिच से ऊबकर लोग देहातों में रहने और अपना रोजगार चलाने को प्राथमिकता देंगे। कितने ही देशों में यह प्रक्रिया चल भी पड़ी है और उसके उत्साहवर्द्धक सत्परिणाम भी सामने आये है। इसी तरह कृषि क्षेत्र में नौर्मन बौरलौग जैसे विख्यात वैज्ञानिकों ने खाद्यान्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ऐसी नयी विधियों की खोज निकाला है जिनके फलस्वरूप हरितक्राँति का ग्रामीण अंचल में व्यापक विस्तार होता जा रहा है। कृषि उपज की वृद्धि हेतु इस प्रकार के अनुसंधान एवं प्रयोग बड़े पैमाने पर चल पड़े है, जिसके फलस्वरूप निकट भविष्य में कुपोषण जैसी समस्या पर शीघ्र ही काबू पाया जा सकेगा।

पिछले दिनों संयुक्त संघ के तत्वावधान में विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की एक संगोष्ठी आयोजित की गयी, जिसमें ‘वर्ल्ड साँयल चार्टर’ नामक एक योजना प्रस्तुत की गयी। इसका प्रमुख प्रयोजन सन् 2000 तक भूमि की उर्वरता

एक राजा के चार मन्त्री थे। उनमें से तीन तो थे चापलूस। चौथा था दूरदर्शी और स्पष्ट वक्ता।

राजा मरा तो पहले मन्त्री ने बहुमूल्य पत्थरों का स्मारक बनवाया। दूसरे ने उसमें मणि-मुक्त जड़वाये। तीसरे ने सोने के दीपक जलवाये। सभी ने उनकी स्वामिभक्ति को सहारा। चौथे मन्त्री ने उस स्मारक के आस-पास धना बगीचा लगवा दिया।

तीनों की राशि बेकार चली गई। चोर चुरा ले गये, पर चौथे का बगीचा फल देता रहा, मालियों के कुटुम्ब चलते रहे और राहगीरों को विश्राम करने तथा बनाने वाले का इतिहास पूछने का अवसर मिलता रहा।

में सुधार करके खाद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने तथा कुपोषण की समस्या को समाप्त करने का था। इस योजना में खाद्यान्न की उपयुक्त वितरण प्रणाली पर जोर दिया गया है और कहा गया हक इक्कीसवीं शताब्दी में इसे प्रत्येक देश अपनाने लगेगा, जिससे हर व्यक्ति को आहार में पोषक तत्वों की अधिक से अधिक मात्रा उपलब्ध हो सके। भारत के सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न एवं विकासशील देशों में कुपोषण से पीड़ित व्यक्तियों की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा भारत में निवास करता है, जहाँ प्रतिदिन पाँच हजार बच्चे इस कड़ी में जुड़ते जाते हैं और कितने ही अकाल मृत्यु के गाल में समा जाते हैं। इस तरह विश्वभर में 24 लोग प्रति मिनट क्षुधा से संत्रस्त होकर दम तोड़ देते हैं, जिनमें पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चे भी सम्मिलित है। हर वर्ष समूचे संसार में 1 करोड़ 80 लाख से भी अधिक संख्या में लोग भूख और कुपोषण के कारण मरते हैं। पिछले 150 वर्षों में संसार भर में हत्याओं, युद्धों और विभिन्न प्रकार की क्रान्तियों में जितने लोग मारे जा चुके है, उससे कही अधिक पिछले कुछ वर्षों की अवधि में भूख से पीड़ित होकर लोगों को अपनी जीवन-लीला समाप्त करनी पड़ी है। इनमें भारत देश भी सम्मिलित है।

मूर्धन्य अर्थशास्त्रियों एवं कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में जनसंख्या के बढ़ते दबाव को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि अनाज की प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन की उपलब्धता 462 लेकर 510 ग्राम से भी अधिक बढ़ाने की द्रुतगामी योजनाओं की क्रियान्वित किया जाय। अपने देश को विकसित देशों की शृंखला में जोड़ने के लिए इक्कीसवीं शताब्दी के स्वरूप को ध्यान में रखकर चलना होगा। अनुपजाऊ परती एवं ऊसर बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने, समुचित जल प्रबंधन की व्यवस्था का प्रयोग करके खाद्यान्न की उपलब्धता बढ़ाने के प्रयत्नों की प्रमुखता देनी होगी। सामाजिक एवं आर्थिक योजनाओं के क्रियान्वयन पर ध्यान देना होगा। वर्तमान के स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए भविष्य के लिए प्रगतिशील एवं प्रयत्नशील बनाना तथा जन-सामान्य को जागरुक बनाना ही वह एकमात्र उपाय है, जो बढ़ती जनसंख्या पर अंकुश लगाकर सभी के लिए समुचित आहार एवं समग्र स्वास्थ्य वाले सुखद भविष्य का निर्माण कर सकता है।


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