प्रकृति के जीव-जन्तु एक दूसरे पर आश्रित है। विसर्ग का यह नियम है कि उनकी संख्या सदा संतुलित है कि उनकी संख्या सदा संतुलित रहे। असंतुलन अव्यवस्था उत्पन्न करता है। इस कारण वह जन्तुओं के जन्म-मरण का क्रम इस प्रकार नियंत्रित रखता है कि सब कुछ सहज-सामान्य ढंग से चलता रहे। जब इस विधान में कोई बाहरी हस्तक्षेप होता है, तो असंतुलनजन्य अव्यवस्था से पूरा पर्यावरण तंत्र ही लड़खड़ा उठता है और जो नहीं होना चाहिए, वह सब होने लगता है। यही है आज की स्थिति।
मनुष्य इस सृष्टि का सर्वोपरि प्राणी है। इस नाते उसका यह दायित्व बनता है कि वह प्रकृति के नियम में कोई व्यवधान पैदा न करे। यदि आदमी उसको स्वाभाविकता में कोई दखल न दे, तो उसका प्रवाह यथाक्रम चलता रहता है। किन् बौद्धिक समृद्धि हेतु अथवा स्वार्थपरतावश जब इस सहज प्रवाह से छेड़खानी होती है तो नैसर्गिकता बिगड़ती और संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न होती है। इन दिनों यही हो रहा है। वन्य प्राणी इस तादाद में पकड़े और मारे जा रहे है कि उससे वहाँ का पारस्परिक समीकरण गड़बड़ाता है, जिससे प्राकृतिक वातावरण को काफी हानि पहुँचाती है।
फ्रेड हायल ने अपनी पुस्तक ‘इनकाउण्टर विथ दि फ्यूचर’ में एक घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि आज से लगभग तीन दर्शक पूर्व अफ्रीका के जंगलों में शेर और हिरनों की काफी संख्या थी। उनके बीच आपसी संतुलन भी था। किन्तु इसके बाद वहाँ शेरों का शिकार इस परिणाम में बढ़ा कि मात्र तीन वर्षों के अन्तराल में ही उनकी संख्या घटकर एक-चौथाई रह गई। परिणाम यह हुआ कि जो हिरन पहले शेरों द्वारा नियंत्रित होते थे, अब वे निरंकुश हो गये और उन्मुक्त रूप से वृद्धि करने लगे, फलतः इस अल्पावधि में ही उनकी संख्या बढ़कर तिगुनी से भी अधिक हो गई। अधिक हिरनों के लिए भोजन भी अधिक चाहिए। जितना आहार था, उसे बढ़ी हुई संख्या ने कुछ ही महीनों में चट कर डाला। इससे भुखमरी की समस्या उत्पन्न हो गई। हिरन धीरे-धीरे मरने लगे। एक वर्ष के अन्दर-अन्दर उनका सम्पूर्ण सफाया हो गया। हिरनों के न रहने से बचे हुए शेरों के लिए आहार सम्बन्धी कठिनाई पैदा हो गई, जिससे शनैः-शनैः वे भी भूख के मारे दम तोड़ने लगे। जल्द ही, भोजन के अभाव में शेष की भी मृत्यु हो गई। इस प्रकार वन का प्राकृतिक वातावरण एकदम अप्राकृतिक हो गया।
यों तो शिकार प्राचीनकाल में होते थे। पर तब यह शौकिया था और इस ‘मृगया’ कहते थे। आज यह एकदम व्यावसायिक हो गया है। शिकार के तरीकों में भी बदलाव आया है। आरम्भ में इसके लिए तीर, धनुष, भाले, वल्लभ, बर्छे का प्रयोग होता था। शिकारों को घेरने-पकड़ने के लिए शिकारी कुत्ते और बाज पाले जाते थे। बन्दूक के आविष्कार के बाद शिकारियों का काम सरल हो गया। आज तो इसके लिए टेलिस्कोपिक गनों का सहारा लिया जाता है, ताकि अचूक ओर सही निशाने के आधार पर शिकार की एक बार में ही मार गिराया जा सके।
मुगलकाल में इस क्षेत्र में एक अभिनव प्रयोग हुआ और जानवरों की पकड़ने के लिए प्रशिक्षित चीतों का इस्तेमाल होने लगा। यह नवीन युक्ति सर्वप्रथम मुगल सम्राट जहाँगीर के मस्तिष्क में उपजी। इसके लिए उनने कुछ प्रशिक्षकों की नियुक्तियाँ की और जंगलों से पकड़े गये चीतों का प्रशिक्षण कार्य प्रारम्भ किया। जल्द ही उन्हें इस प्रकार साथ लिया गया कि वे अपनी जिम्मेदारी भली-भाँति समझने और निभाने लगे। शिकार के समय जब उन्हें साथ लाकर जंगल में छोड़ा जाता, तो वे हिरनों पर टूट पड़ते और उनके ढेर लगा देते। ‘तुजुके जहाँगीर’ नामक अपने ग्रन्थ में जहाँगीर ने अनुमान लगाते हुए लिखा है कि बारह वर्ष की उम्र से लेकर पचास साल की अवस्था में उनने लगभग 19,600 छोटे-बड़े जन्तुओं का शिकार किया था।
बाद में तत्कालीन दूसरे राजाओं ने भी इस निमित्त चीते पालने आरम्भ किये सन् 1858 में प्रकाशित अपने ग्रन्थ ‘इण्डियन हण्ट्स’ में प्रिन्स एलेक्सी साँल्टिकफ ने इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, कि भरतपुर के महाराज के पास भी शिकारी चीते थे। वे सब एक सुन्दर हरे-भरे उपवन में रहते थे। आखेट के लिए जब जाना होता, तो उन्हें बैलगाड़ियों में बिठाकर ले जाया जाता। गाड़ी में सवार कराने के बाद उनकी आँखों की पट्टी खोल दी जाती और चीतों को बन्धन मुक्त कर दिया जाता। चीते चारों ओर का सूक्ष्म निरीक्षण करने के उपरान्त गाड़ी से उतरते। इसके बाद दबे पाँच हिरनों के झुण्ड से 60-65 गज दूर पहुँचकर घात लगाकर बैठ जाते फिर विद्युत-की-सी गति से सब अपने-अपने शिकार पर टूट पड़ते और थोड़े ही पल में उन्हें धराशायी कर देते। यदि उन्हें कभी ऐसा महसूस होता कि उनकी उपस्थिति का एहसास शिकार को हो गया है, तो वे अपने अगले दोनों पैर आगे की ओर फैलाकर जमीन से चिपक कर बैठ जाते। उनका यह संकेत समझकर साथ गये लोग दूसरी ओर से हिरन जब भागते हुए इस ओर आते, तो पहले ही से घात लगाये बैठे चीते उन पर छलाँग लगाकर उनका काम तमाम कर देते। शिकार हो जाने के पश्चात् फिर पहले की तरह उनकी आँखों पर पट्टी चढ़ाकर उन्हें वापस लाया जाता था। सभी शासक इस दृश्य का आनन्द लिया करते थे।
अंग्रेज इतिहासकार जेम्स फाँरविन ने भी अपनी रचना ‘द इण्डियन एम्परर्स’ में इस बात की चर्चा की है कि 19 वीं शताब्दी में भारतीय सम्राटों द्वारा आखेट के लिए चीतों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता था। वे लिखते हैं कि गुजरात के चीते इस काम के लिए सबसे उपयुक्त माने जाते थे। इसमें हिन्दू और मुसलमान बादशाह दोनों ही समान रूप से रुचि रखते थे। मुर्शिदाबाद के नवाब मुबारकउल्ला का उल्लेख करते हुए उनने लिखा है कि उनकी पशुशाला ऐसे अनेक शिकारी चीतों से भरी हुई थी। बंगाल के नवाब के पास भी ऐसी कई पशु शालाएँ थी। इसके अतिरिक्त अनेक बाग भी थे, जिनमें पालतू चीते स्वच्छन्द रूप से विचरण करते थे।
मनुष्य का यह विचित्र स्वभाव है कि वह अपने शौक और स्वार्थ के लिए पर्यावरण को बिगाड़ने में तनिक भी संकोच अनुभव नहीं करता, भले ही बाद में उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़े। पर तत्काल उसे इसकी चिन्ता कहाँ होती है? जिस दिन उसको यह सद्बुद्धि मिल गई और वह इतना सोच सका कि यहाँ स्वाभाविकता ही सर्वोपरि है। उसे नष्ट कर वह कभी सुख-चैन से नहीं रह सकता, शायद उस दिन प्रकृति स्वयं को धन्य अनुभव करे और मनुष्य को शत-शत धन्यवाद प्रेषित करे। पर कदाचित अभी वह समय आया नहीं, अन्यथा शौक के रूप में शुरू हुई परम्परा व्यवसाय न बन गयी होगी।
आज माँस, खाल और हड्डियों के लिए वन्य जन्तुओं का जिस परिमाण में सफाया हो रहा है, वैसा शायद ही पहले कभी हुआ हो। शरीर विज्ञानियों को अपने अध्ययन-अनुसंधान के लिए देह चाहिए। मनुष्य पर वे मनमाना प्रयोग कर नहीं सकते। ऐसे में सरल उपाय एक ही रह जाता है कि बन्दरों, खरगोशों जैसे वन्य प्राणियों तथा गिनी पिगों जैसे पालतू जीवों पर परीक्षण किये जाएँ। इस निमित्त प्रति वर्ग लाखों की संख्या में जीवधारी विश्व भर में पकड़े जाते हैं। सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में इनमें भी ज्यादा की तादाद में वे मारे जाते हैं। इससे शेर, बाघ जैसे माँसाहारी जन्तुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जब प्रकृति प्रदत्त उनके आहार को मनुष्य लूट जाय, तो भला से जिन्दा कैसे रहे? उनके लिए इस दशा में दी ही उपाय शेष बचते है-या तो तड़पकर भूखों मर जाएँ अथवा अपना स्वभाव बदलकर आदमखोर बनें।
इन दिनों यही हुआ है। जीवन सबको प्रिय है। मृत्यु कौन चाहता है? जब शेरों के स्वाभाविक आहार घटने लगे और मौत की नौबत आने लगी, तो उनने मनुष्यों की अपना भोजन बनाना शुरू किया। यही से दोनों के बीच दुश्मनी प्रारम्भ हुई। मनुष्य को इसका लाभ मिला। नरभक्षी होने के बहाने उसने बाघों को मारना शुरू किया। इससे खाल बेचकर पैसा बनाने का भी अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। बाघ मारे जाने लगे, तो बड़ी तेज से उनकी संख्या घटने लगी। ऐसी स्थिति में सरकार का चिन्तित होना स्वाभाविक था। अतः सन् 1973 में उनके संरक्षण के लिए बाघ परियोजना नाम से एक कानून घोषित किया गया, जिसके अंतर्गत बाघों का शिकार निषिद्ध घोषित किया गया। अभ्यारण्यों वृद्धि हुई। सन् 1973 में समूचे देश में इनकी कुल संख्या 1800 थी। आज बढ़कर 4000 से अधिक हो गई है। निस्सन्देह इसे परियोजना की सफलता कहा जा सकता
ऋषि कर्दम के तप से भगवान प्रसन्न हुए। उन्हें आशीर्वाद दिया। नारद जी के परामर्श पर स्वयंभू मनु अपनी दूसरी पुत्री देवहूति ऋषि को अर्पित करने के लिए पहुँचे। कर्दम बोले-”मेरी शर्त सुन ले। मुझे कामपत्नी नहीं, धर्मपत्नी चाहिए। दाम्पत्य काम-विकास के लिए नहीं, काम को मर्यादित करने के लिए होता है। मैं एक सत्पुत्र की प्राप्ति के बाद संन्यास धर्म का पालन करूंगा। आपकी पुत्री को यह स्वीकार हो तो ही सम्बन्ध होगा।”
मनुजी ने कहा-”बेटी यह तो विवाह के पूर्व ही संन्यास की बात करने लगे।” किन्तु देवहूति भी कम न थी। बोली-”कामाँध होकर संसार सागर में डूबने के लिए गृहस्थाश्रम नहीं है। मैं भी कोई संयमी जितेन्न्कामाँध होकर संसार सागर में डूबने के लिए गृहस्थाश्रम नहीं है। मैं भी कोई संयमी जितेंद्रिय पति ही चाहती हूँ।”
विवाह हो गया। दोनों के तपस्वी जीवन के प्रतिफल के रूप में कपिल जी उत्पन्न हुए, जो 24 अवतारों में से एक माने गये।
है। पर इसका एक दुःखद पहलू भी है। संरक्षण-कानून से इनकी संख्या तो बढ़ गई पर अवैध वनों की कटाई से इनके प्राकृतिक वासस्थल सिमटते-सिकुड़ते चले गये। इसका असर वहाँ निवास करने दूसरे वन्य प्राणियों पर पड़ा और उनकी संख्या अप्रत्याशित रूप से घटने लगे, तो भोजन के लिए और दूसरे जीव घटने लगे, तो भोजन के लिए उन पर निर्भर रहने वाले बड़े माँसाहारी जन्तुओं को या तो कई-कई दिनों तक निराहार रहना पड़ता अथवा स्वल्पाहार पर दिन गुजारने पड़ते। ऐसी अवस्था में जो भी उनके समाने पड़ जाएँ, उन्हीं पर वे टूट पड़ते। बाघों के बढ़ते आक्रमणों का यह भी एक कारण है।
एक अनुमान के अनुसार यदि वन्य प्राणियों के प्राकृतिक वासस्थल को 70 प्रतिशत कम कर दिया जाए तो वहाँ पर निवास करने वाले 50 प्रतिशत जीवधारी विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाएँगे। यदि वन-उन्मूलन की गति यही रही, तो आगामी 35 वर्षों में 15 प्रतिशत प्राणियों और प्रजातियों के लोप होने का खतरा है। रेड डाटा बुक में 600 ऐसे प्राणियों का उल्लेख है, जो धरती से विलुप्त होने की स्थिति में आ चुके है।
अभ्यारण्यों की स्थापना से बाघों की संख्या बढ़ाने पर तो वन विभाग के अधिकारियों ने खूब ध्यान दिया। पर उसी अनुपात में वे दूसरे वन्य जीवों के संरक्षण पर ध्यान न दे सके, जिससे कि उनके आहार की आपूर्ति होती रह सके और उन्हें अपनी प्रकृति बदलने पर मजबूर न होना पड़े। उदाहरण के लिए, बान्धवगढ़ अभ्यारण्य को लिया जा सकता है। लगभग दो दर्जन बाघों वाले इस आश्रयस्थल में उनकी वार्षिक आवश्यकता 1500 चीतलसें कर है। जबकि वहाँ चीतलों की वार्षिक उपलब्धता मात्र 1000 है। धीरे-धीरे अब इसमें भी कमी आती जा रही है। ऐसे में खुराक की खोज में वे अपने स्वाभाविक वासस्थल को त्याग कर समीपवर्ती गाँवों में आ धमकते हैं और वहाँ जो भी मिल जाता, उसी को अपना शिकार बना लेते हैं।
उत्तरप्रदेश के तराई वाले क्षेत्रों और बंगाल के सुन्दरवन अभ्यारण्य में ऐसी घटनाएँ तो अब आम बात हो गई है। एक रिर्पोट के अनुसार वर्तमान में सुन्दरवन में करीब 200 बाघ है। प्रतिवर्ष लगभग इतनी ही यहाँ बाघों द्वारा मनुष्यों के मारे जाने की घटनाएँ घटती है। इस प्रकार अब तक कुल 600 से ज्यादा ऐसी घटनाएँ यहाँ घट चुकी है। महाराष्ट्र स्थित संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान की भी लगभग यही कहानी है। वहाँ के बाघ समय-समय पर आबादी वाले क्षेत्र में पहुँचकर आतंक मचा जाते हैं। यही हाल देश के डेढ़ दर्जन के करीब अभ्यारण्यों के बाघों का है। सूचना है कि वे सब अब नरभक्षी बनते जा रहे है।
बाघों के इन उत्पातों से तंग आकर समीपवर्ती लोग अब उन्हें जहर देकर मारने लगे है। एक आँकड़े के अनुसार, सन् 1987-88 में दुधवा राष्ट्रीय पार्क में 13 बाघों की मौत विषाक्त आहार से हुई। जबकि 1987-88 में वहाँ इस प्रकार की 8 मौतों की सूचना है। कई बार इन्हें मारने का तरीका ऐसा होता है, जिसमें बमों का इस्तेमाल किया जाता है। मृत पशुओं में इन बमों को छिपा कार रख दिया जाता खाने। के लिए बाघ जैसे ही अपना मुँह खोलते और उसमें दाँत चुभोते, बम तत्काल फट पड़ता। इस प्रकार उनकी तत्क्षण मौतें हो जाती।
यों इस प्रकार की घटनाओं में केवल वन्य प्राणी दोषी है, यह कहना भी ठीक न होगा। जब उनके स्वतंत्र विचरण क्षेत्र में मनुष्य हस्तक्षेप करेगा, तो उनका नाराज होना स्वाभाविक ही है। ऐसे में वह यदि आक्रमण कार घुसपैठिये की हत्या कर दें, तो शायद इसमें उसका अपराध कम और मनुष्य का अधिक है-यह मानने में हर्ज नहीं। सुन्दरवन क्षेत्र में प्रायः इसी कारण आये दिन इंसानों पर बाघों के हमले होते हैं। उक्त अभ्यारण्य में कई जलागार है। इसमें मछलियों की प्रचुरता है। लोग उन्हें पकड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। बाघ जल के लिए इन्हीं पर अवलम्बित होते हैं। ऐसे में जब कभी दोनों का आमना-सामना होता है, तो इस भिड़न्त में इंसान ही हारता है। इसके अतिरिक्त वहाँ के जंगल में यदा-कदा इन हिंसा जन्तुओं के चंगुल में फँसकर जान से हाथ धो बैठते हैं। दुधवा अभ्यारण्य में गन्ने की खेती होती है। वहाँ पलने वाले एक-चौथाई बाघ इन्हीं खेतों में रहते हैं फसल की कटाई का जब समय आता है, तो वे काटने वालों पर अचानक हमला करते देते हैं, जिससे प्रतिवर्ष कइयों कीक जान चली जाती है।
प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना अच्छी बात है। पर केवल बाघों की संख्या बढ़ा देने मात्र से तो प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं। हमें अपनी दृष्टि की और अधिक विस्तृत और व्यापक बनाना चाहिए और देखना चाहिए कि वन्य क्षेत्रों से किन-किन जन्तुओं का लोप होता जा रहा है, उन सभी के संरक्षण और अभिवर्द्धन का उपाय किया जाना चाहिए, तभी वास्तविक अर्थों में जंगलों के मूल वातावरण को लौटाया जा सकेगा, अन्यथा इस प्रकार का प्रयास एकाँगी और अधूरा साबित होगा तथा जिस पर्यावरण को संतुलित बनाने के उद्देश्य से यह सब आरम्भ किया गया था। वह उपहास बनकर रह जाएगा।
नई दिल्ली राष्ट्रीय प्राकृतिक संग्रहालय की एक रिर्पोट के अनुसार वन्य प्राणियों की 81 प्रजातियों का अस्तित्व इन दिनों संकटपूर्ण है। शेर जो कि इस सदी के प्रारम्भ में अपने यहाँ 1000 थे, अब उनकी संख्या घटकर मात्र 200 रह गई है। काले, सफेद तेंदुए भी घटते जा रहे है। हिमालय जैसे बर्फीले क्षेत्र में पाया जाने वाला हिमबाघ भी अब उतने नहीं रहे। सम्प्रति इनकी संख्या सिर्फ 200 के आस-पास रह गई है। कस्तूरी मृग कभी हिमालय और उनसे जुड़ी पर्वत श्रेणियों की शान थे। पर अब उनके दर्शन दुर्लभ हो गये है। इसी प्रकार हिरन की एक अन्य प्रजाति ‘डान्सिग डियर’ भी यदा-कदा ही देखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त चीता, जंगली भैंसा, लाल पण्डा, बारहसिंगा, बबून, चिम्पाँजी, ओरैंगटन, जंगली कछुआ, धनेश तथा गैण्डा यह सब उस तादाद में नहीं दिखाई पड़ते, जितने गर्व से तीन दशक पूर्व देखे जाते थे।
पारस्परिकता (इण्टरडिपेन्डेन्स) का सिद्धान्त सर्वविदित है। आदमी से लेकर पशु-पक्षी पर्यन्त सभी एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े है। जब तक यह तंत्र प्रकृति के अधीन होता है, तब तक सब कुछ सामान्य ढंग से चलता रहता है। किन्तु मनुष्य की स्वार्थपरता जब इस पर हावी होती है तो उसे अस्त-व्यस्त कर रख देती है। पर्यावरण असंतुलन की वर्तमान स्थित को देखते हुए मनुष्य ने अपने कर्तृत्वों की समीक्षा नहीं की, तो फिर उसके लिए पछतावा ही होता रहेगा।
एक जिज्ञासु कबीर के पास पहुँचा, बोला-”दो बाते समाने है। संन्यासी बनूं या गृहस्थ।” कबीर ने कहा-”जो भी बनो, आदर्श बनो।”
उदाहरण समझाने के लिए उन्होंने दो घटनाएँ प्रस्तुत की।
अपनी पत्नी को बुलाया। दोपहर को प्रकाश तो था, पर उन्होंने दीपक जला लाने के लिए कहा, ताकि वे कपड़ा अच्छी तरह बुन सकें। पत्नी
दीपक जला लायी और बिना कुछ बहस किये रखकर चली गई।
कबीर ने कहा-”गृहस्थ बनना हो तो परस्पर ऐसे विश्वासी बनना, कि दूसरे कीक इच्छा ही अपनी बने।”
दूसरा उदाहरण सन्त का देना था। जिज्ञासु को लेकर एक टीले पर गये, जहाँ वयोवृद्ध महात्मा रहते थे। वे कबीर को जानते न थे। नमाज के उपरान्त उनसे पूछा-”आपकी आयु कितनी है?”बोले-”अस्सी बरस।”
इधर-उधर की बातों के बाद कबीर ने कहा-”बाबाजी, आयु क्यों नहीं बताते?” सन्त ने कहा था-”बेटे अभी तो बताया था, अस्सी बरस! तुम भूल गये हो।” टीले से आधी चढ़ाई उतर लेने पर कबीर ने सन्त को पुनः पुकारा और नीचे आने के लिए कहा। वे हाँफते-हाँफते आये। कारण पूछा, तो फिर वही प्रश्न किया-”आपकी आयु कितनी है?” सन्त को तनिक भी क्रोध नहीं आया। वे उसे पूछने वाले की विस्मृति मात्र समझे और कहा-”अस्सी बरस है।” हँसते हुए वापस लौट गये।
कबीर ने कहा-”सन्त बनना हो तो ऐसा बनना, जिसे क्रोध ही न आये।”