मिला एक धर्मात्मा

January 1997

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“यहाँ कोई धर्मात्मा है?” इस युग में बड़ा अटपटा प्रश्न है यह। मन्दिर बनाने वाले, गिरजाघर की इमारतें और मस्जिद की मीनारें ऊँची करने वाले तो बहुत हैं लेकिन जिसकी आत्मा धर्म में लीन हो, ऐसे व्यक्ति की खोज बड़ी विचित्र थी। भला यह भी काई बात हुई कि कोई भरी भीड़ से पूछने लगे कि उसमें कोई भला आदमी है? पर सच्चे साधुओं को सच बोलने, सच जाने और सच्चा जीवन जीने में कब संकोच होता हैं?

अकाल पड़ा है। पिछले वर्ष इन्द्रदेव ने इतनी अधिक कृपा की कि भूमि में पड़ा बीज उगकर भी सड़ गया अतिवृष्टि किसी प्रकार झेल ली गई, किन्तु इस वर्ष तो मेघों के देवता भूल ही गए हैं कि इस ओर भी उनकी सेना आनी चाहिए। इस प्रदेश में भी प्राणी रहते हैं और उन्हें भी जल ही जीवन देता है आषाढ़ निकल गया तब तक आशा थी किन्तु अब तो श्रावण भी सूखा ही समाप्त होने जा रहा है।

घरों में अन्न नहीं है। खेत और चरागाहों में घास के सूखे तिनके भी नहीं बचे। तालाब सूख चुके हैं। कूंओ में कीचड़ मिला पानी प्यास बुझाने के लिए रह गया है। कितने दिन वह भी काम चला सकेगा? ऐसी अवस्था में पशु कितने मरे, कौर गिने? जिसे जहाँ सूझा, वह उधर निकल गया परिवार लेकर। पूरा प्रदेश उजड़ने लगा है। वृक्षों के सूखते पत्ते और छाल जब आदमी का आहार बनने लगें, तब विपत्ति कितनी बड़ी है, कोई भी समझ सकता है। सरकारी सहायता आयी है। कुछ संस्थाएं भी सेवा के क्षेत्र में उतरी हैं, किन्तु जलते तवे पर कुछ पानी की बूँदों के पड़ने से गर्मी ही भड़कती है।

यज्ञ-अनुष्ठान तो हुए ही, अनेक लोक प्रचलित टोटके भी हुए किन्तु गगन के नेत्रों से अश्रु उतरे नहीं। देवता रुष्ट हुए तो तुष्ट होने का नाम ही नहीं लेते। ऐसे समय में सबसे भारी विपत्ति आती है साधुओं और फकीरों। इनमें से कुछ कच्चे होते हैं, कुछ सच्चे। जो कच्चे थे, भिक्षा व्यवसाय ही जिनका जीवन था, वे तो सबके सब भग गए। बचे सिर्फ हनुमंत टीले के बाबा बजरंगदास। प्रचण्ड तपस्वी और औषढ़ स्वभाव के बाबा बजरंगदास की लोकोत्तर सिद्धियों और अलौकिक चमत्कारों की चर्चा चारों ओर थी। इन दिनों तो उनकी कुटिया क्षुधातों के लिए कल्पवृक्ष बन गयी है। मध्याह्न में पवन पुत्र को नैवेद्य अर्पित करके सदा की भाँति अब भी बाबाजी उच्च स्वर से “ भण्डार में भगवत्प्रसा की सीताराम!” घोषित करते हैं और उस समय जो भोजन के लिए आ जाय, उसे अपने आप पंगत में बैठने का अधिकार है। इन दिनों प्रतिदिन दो-ढाई सौ व्यक्ति भोजन करते हैं।

पता नहीं कहाँ से आता है इतना अत्र उनके पास। पूछने से आता है इतना अन्न उनके पास। पूछने पर एक दिन कहने लगे-”ये संकट मोचन हनुमान यहाँ किसलिए खड़े हैं। भूमि में अन्न नहीं होगा तो देश का प्रशासक भूखा मरेगा, किन्तु अष्टसिद्धि नवनिधि के दाता हनुमानजी के भक्तों के लिए तो आकाश को भी अन्न की वर्षा करनी होगी।”

ऐसे अडिग विश्वासी,अक्खड़ अवधूत ने जब आस-पास सबको सूचना भेजकर कुटिया में बुलवाया, बड़ी आशा हो गयी थी गाँव के श्रद्धा-प्राण लोगों को। अवश्य बाबाजी इस दैवी विपत्ति का कोई उपाय पा चुके है। किन्तु जब सायंकाल श्री हनुमानजी के सम्मुख आठ गाँवों के लोग एकत्र हो गए, तो बाबाजी पूछते है-”यहाँ कोई धर्मात्मा है?”

कोई और धर्मात्मा हो या न हो, बाबाजी तो है। अब देवता के सम्मुख झूठ भी कोई कैसे बोले? धोती के भीतर सभी नंगे। किससे कुछ ऊँचा-नीचा नहीं होता है? किन्तु बाबाजी तो एक-एक की ओर देखने लगे। ऐसे में चुपचाप आंखें नीची कर लेने के अतिरिक्त किसी के पास और क्या उपाय है?

“श्री मारुति प्रभु का आदेश है कि यहाँ इस इलाके में जो एकाकी धर्मात्मा है, उसका आश्रय लिया जाय।” बाबाजी कह रहे थे- “केवल वही इस अकाल को टाल सकता है। उसके असम्मान के कारण हय विपत्ति आयी है। देवता भी धर्म का आश्रय लेने वालों का अपमान करके कुशलपूर्वक नहीं रह सकते हैं।”

कौन हैं वे? सब अपने हृदय में सोचने लगे। कोई साधु आस-पास अब इन महाराज को छोड़कर रहे नहीं। जो दो-तीन कुटिया बनाकर रहते भी थे अकाल पड़ने पर तीर्थयात्रा करने निकल गए हैं। कोई ब्राह्मण, कोई विद्वान, कोई भगत लेकिन इनमें से किसी का अपमान होने की बात तो सुनी नहीं गयी। ऐसे व्यक्तियों पर तो गाँव के लोगों की सहज श्रद्धा है। अब इस अकाल के समय में किसी को कुछ देने से किसी ने मना कर दिया हो तो हो सकता है, किन्तु क्या विवश मनुष्य का यह ऐसा अपराध है कि उस पर इतना भयंकर दैवी-कोप पूरे इलाके को भोगना पड़े।

श्री हनुमानजी ने कहा है कि उसका पता लगाना होगा। बाबाजी को स्वप्न में आदेश हुआ है, यह वे बता गए। उन्होंने यह भी कह दिया कि इससे अधिक स्पष्टीकरण की आशा अब करनी नहीं चाहिए। देवताओं को परोक्ष कथन ही प्रिय है। आप सब प्रयत्न करें। मैं भी कल प्रातः-काल से पता लगाने लगूँगा।

ग्रामीण जन अपने-अपने ढंग से इस खोज में जुटे। लेकिन बीतते दिनों के साथ उन्हें निराशा ही हाथ लगी। बाबाजी के प्रयत्न का अपना ढंग था। वह ध्यान की गहराइयों में डूबकर अपनी खोजबीन करते और वह अपने इसी प्रयत्न के फलस्वरूप आज इस हरिजन बस्ती के एक कोने पर बनी झोंपड़ी के द्वारा पर आ गए। श्री पवन कुमार ने जिनका संकेत दिया, वे धर्मात्मा कौन है, यह पता लगाने की धुन उन्हें। जो आस्तिक नहीं है, भगवान में जिनकी आस्था नहीं है, वह तो धर्मात्मा हो नहीं सकता। गाँव में बसे लोग एक दूसरे से अच्छी प्रकार परिचित होते हैं। बाबा बजरंगदास प्रायः आस-पास के ग्रामीणों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। उनमें जहाँ भी कुछ आशा की जा सकती थी, उन सभी को अपनी ध्यान दृष्टि से देख लिया। आज अचानक उनके ध्यान में हरिजन बस्ती की यह झोपड़ी उभरी और वे इस ओर चल पड़े।

पूरी चमारटाली की झोंपड़ियाँ सटकर बनी हैं, किन्तु यह झोंपड़ी सबसे थोड़ी दूर हैं। केवल नाम ही इस झोंपड़ी के स्वामी का अलगू नहीं हैं, वह दूसरों से सब बातों में कुछ भिन्न है। गाँवों की हरिजन बस्तियों में आजकल दो भगत हैं वे भूमि पर सोते हैं। अपने हाथ से बना भोजन और अपने हाथ से खींचा जल काम में लेते हैं। किन्तु बाबा बजरंगदास उन्हें जानते हैं। वैसे भी वे लोग प्रायः प्रतिदिन हनुमंत टीले पर पहुँचते हैं। लेकिन अलगू सबसे भिन्न है। उसे लँगड़े बछड़े, बीमार कुत्ते, अधमरे गणे और आस-पड़ौस की सेवा से अवकाश ही नहीं कि कहीं आज-जाए। उसका स्मरण आते बाबाजी चौंके थे।

सुनते हैं कि बेटे का ब्याह करके अलगू का बाप मरा था, किन्तु स्त्री टिकी नहीं। वह कहीं और चली गयी। अलगू तब से अकेला है। जूते बनाकर पेट पाल रहा है।

एक गाय थी अलगू की, किन्तु अतिवृष्टि में वह ठण्ड से अकड़ कर चल बसी। गाय के बछड़े का एक पैर बचपन में ही टूट गया था किसी काम आ सके, ऐसा चह रहा नहीं। यही हाल उसके कुत्ते और गधे का हैं, ये दोनों भी बीमार, अपाहिज ही हैं। लेकिन अलगू कहता है कि -”उपयोगी होना ही तो सब कुछ नहीं है। संवेदना तो उपयोगी, बेसहारा को अपनाने और सहारा देने में है। उपयोगिता के आधार पर सहारा देना प्यार नहीं व्यापार है।” लोग उसकी इस बात का परिहास करें तो करते रहें। उसे किसी की कोई परवाह नहीं।

यही बात गाँव के बूढ़े-बीमारों की सेवा के बारे में है। उनका भी एक सहारा अलगू ही है। किसी की दवा लाकर देगा, किसी की मालिश करने बैठ जाएगा। हरिजन बस्ती के सारे बच्चे अपने अलगू काका को ही समय घेरकर रहते हैं। उनमें से किसी को अपने घर की याद आती ही नहीं। अलगू अपने इस सब कामों में बहुत खुश है। उसे ने तो मन्दिर जाने की फुरसत है और ही तो मन्दिर जाने की फुरसत है और न ही मालाओं की संख्या का हिसाब रखने की। यूँ वह प्रायः हर वक्त अपना काम करते समय राम-राम रटता रहता है।

इस वर्ष कुओं का पानी घटने लगा, किन्तु अलगू की कुइयाँ का पानी आज भी नहीं घटा है। हरिजन बस्ती में सरकारी कुआँ दो वर्ष पहले बना है। उससे पहले हरिजन गाँव के बाहर के कुएँ से पानी लाते थे। पानी लेने गया था वह उस दिन कुएँ पर, तो गांव के ठाकुरों के खेत में पानी जा रहा था उस कुएँ से। अलगू ने मोट का पानी न लेकर कुएँ से खींचना चाहा तो ठाकुर ने कुछ कहा- सुना। लौटकर वह यह कच्ची कुइयाँ खोदने में लग गया था सात दिन में इस कुइयाँ में पानी आ गया था और हरिजनों के लिए पक्का कुआँ बनने तक यह कुइयाँ ही हरिजनों की पूरी बस्ती को जल पिलाती थी। अब थोड़ी-सी भूमि घेर रखी है अलगू ने। दूसरा कोई होता तो उसमें चार बेल लगाता-कुम्हडे, तोरई की । किन्तु अलगू उसमें कभी ज्वार बोता है, कभी अरहर, कभी सन और कुछ न हो तो घास। अपने बछड़े और गधे का पेट भरने को छोड़कर उसे दूसरी चिन्ता ही नहीं रहती। इस अकाल में भी उसका घेरा घास से हरा है। सबेरे-शाम वह पानी खींच-खींच कर थक जाता है उस घेरे को गीला रखने के लिए।

आज बाबा बजरंगदास को अचानक ध्यान में नजर आया कि अलगू धर्मात्मा है। वह कहाँ कोई नौकरी-व्यापार करता है कि उसे कुछ काला - सफेद करने को विवश होना पड़े। उल्टे वह तो दिन-रात सेवा और परोपकार में लगा रहता है। उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि अलगू ही वह धर्मात्मा है, हनुमानजी ने जिसके लिए संकेत किया है।

अलगू तो हक्का-बक्का रह गया कि उसकी झोंपड़ी के द्वारा पर ये बाबाजी आये हैं। उसके पास तो उन्हें आसन देने योग्य भी कुछ नहीं है। दूर पृथ्वी पर सिर रखकर वह काँपता हुआ खड़ा हो गया। पास ही चटाई पर गाँव का बूढ़ा-बीमार भंगी पड़ी खाँस रहा था। अभी वह उसी की मालिश करने में जुटा था। बाबाजी ने उससे पूछा-”यह तुमने किससे सीखा कि इस तरह सेवा किया करो।”

“मुझ चमार को भला कौन बताएगा-”अलगू उसी प्रकार दीन स्वर में बोला। “एक बार काशीजी गया था। दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर कथा हो रही थी। कथावाचक सन्त कह रहे थे सब प्राणियों में भगवान का वास है। उनकी सेवा भगवान की सेवा है और यही सच्चा धर्म है।

“ओह, तो तुम उनके शिष्य हो।” बाबा बजरंगदास ने श्रद्धापूर्वक पूछा।

“नहीं, मुझे भला कोई क्यों चेला बनाने लगा? मैं तो दूर से उनके सामने मत्था टेककर चला आया था। मेरी गौ माता मर गयी, तो मुझे उन महात्मा की बात याद आ गयी।” मैं बछड़े की सेवा करने लगा, यह बीमार कुत्ता और गधा एक दिन इधर आ गए, तो इनकी भी सेवा करनी शुरू कर दी।अब कोई मुझ नीच जाति से आप जैसे महात्मा या कोई ब्राह्मण तो सेवा कराएंगे नहीं, सो अपनी ही बस्ती के बीमारों की सेवा कर लिया करता हूँ। अपने शरीर से जिसके लिए जो बन पड़ता है-करने में जुटा रहता हूँ।”

“भाई अलगू मैं साधु हूँ और तुम्हारे दरवाजे पर आया हूँ।” बाबा बजरंगदास ने विनय के स्वर में कहा-”तुमसे भिक्षा माँगता हूँ। तुमको कभी ठाकुर ने गालियाँ दी थी, उनको क्षमा कर दो।”

“इसमें क्षमा की बात क्या है? बड़े लोग तो छोटों

को डाँटते-डपटते ही रहते हैं। मैं तो कभी का भूल गया था महाराज। आप कहाँ की इतनी पुरानी बात उठा लाए है।”

“तुम भूल गए, किन्तु तुम्हारे भगवान नहीं भूले। जिनकी तुम हर रूप में सेवा करते हो। यह अकाल इन्हीं की कोप से आया है।” बाबाजी ने हाथ जोड़ लिये। मैं तुमसे क्षमा माँगने-प्रार्थना करने आया हूँ कि कहाँ के लोगों पर, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियों पर दया करो। तुम अपने भगवान से प्रार्थना करोगे तो अवश्य वर्षा होगी।

“महाराज! मेरे प्रार्थना करने से वर्षा हो जाय, लोगों की विपत्ति मिटें तो मैं प्रार्थना क्यों नहीं करूंगा।”

बाबा बजरंगदास के विदा होते ही अलगू अपने झोंपड़े के कोने में बैठकर अन्तर्यामी को पुकारने लगा। उसका हृदय ही उसका मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर था। “वर्षा कराओ प्रभु! सबकी विपत्ति दूर करो भगवान।” यह आँख बन्द किए बोलता ही जाता था। उसे पता भी न था कि वायु वेग कब बढ़ा। कब आकाश भूरे घने मेघों से ढक गया। वह तो तब चौंक कर उठा, जब मेघ गर्जन के साथ बरसात की मोटी-मोटी बूँदों ने द्वार से आकर उसकी पीठ भिगो दी।


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