कुल नहीं, कर्म का गौरव

January 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाई, महकें बरसाई। जन-जन को अपनी हर श्वास में परिमल का आभास होने लगा। किले के महल में महारानी ने चैत्र की नवरात्रि पूरे समारोह के साथ मनाने का आयोजन किया था। यह भव्यता और दिव्यता का अपूर्व सम्मिलन था। महल में गौरी की प्रतिमा स्थापित की गई। पूजन होने लगा। माँ गौरी की प्रतिमा आभूषणों और फूलों के शृंगार से लद गई। धूप-दीप तथा नैवेद्य ने उल्लास को शतगुणित कर दिया। हल्दी-कुमकुम के इस उत्सव में सारे झाँसी नगर की नारियाँ व्यग्र-व्यस्त हो गई। परन्तु उनमें से बहुत थोड़ी-सी गले में पुष्पहार डाले थी। न जाने कैसे उनमें से अनेक को यह भ्रम हो गया था कि युद्ध प्रिय महारानी हम लोगों का शृंगार नहीं पसन्द करती। इसलिए जब वे सभी पूजन के लिए रनिवास में आयी तो उनके पास चढ़ाने के लिए पुष्प अवश्य थे, लेकिन गले में, माला कुछ के ही पड़ी थी।

किले में जाने के लिए सभी जातियों को आजादी थी। किले के उस भाग में जहाँ भगवान भोलेनाथ और गणेश का मन्दिर है और उसको शंकर किला कहते थे, सब कोई जा सकते थे। यहाँ तक कि महारानी ने अपने कक्ष में जहाँ गौरी की स्थापना की थी, सभी को आने की इजाजत दे दी थी। भले ही यह कुछ उच्चपदस्थ सवर्णों के मन में अखरा हो, परन्तु किसी ने भी प्रकट में एतराज नहीं किया था। उन्हें मालूम था कि ‘मानव मात्र एक समान, जाति-वंश सब एक समान’ के सूत्र के प्रति पूर्ण श्रद्धावती रानी सरकार के सामने कुछ कहने पर झिड़की ही सुनने को मिलेगी।

सुन्दर ललनाओं को आभूषणों से सजा हुआ देखकर रानी को हर्ष हुआ, परन्तु अधिकाँश के गले में पुष्पमालाओं का अभाव उनको खटका। उन्होंने सभी की ओर देखते हुए कहा, “तुम लोग हार पहनकर क्यों नहीं आई? गौरी माता को क्या अधूरे शृंगार से प्रसन्न करोगी?”

स्त्रियों के मन में एक लहर उद्वेलित हुई। लालाभाऊ बख्शी की पत्नी उन सभी की अगुआ बनकर आगे आयी। वह यौवन की अगुआ बनकर आगे आयी। वह यौवन की पूर्णता को पहुँच चुकी थी सौंदर्य मुखमण्डल पर छिटका हुआ था। बख्शिन जू कहलाती थी। हाथ जोड़कर बोली, “जब सरकार के गली में माला नहीं है तब हम लोग कैसे पहने?”

रानी उसका इंगित समझ गयी। बख्शिन जू के बहाने पर उनको हँसी आ गयी। पास आकर उसके कन्धे पर हाथ रखा और सबको सुनाकर कहने लगी। “बाहर मालिने तरह-तरह के हार गूँथे बैठी हुई है। एक मेरे लिए ले आओ। मैं भी पहनूँगी। तुम सब पहनो और कीर्तन-भजन गाकर माता को प्रसन्न करो।”

महिलाएँ होड़ ही-सी में मालिनों के पास दौड़ी। परन्तु मुन्दर पहले माला ले आयी। बख्शिन जू जरा पीछे आयी। मुन्दर माला पहनाने वाली थी कि रानी ने उसको मुस्कुरा कर रोक दिया। वे कहने लगी-”देख तू अभी कुमारी है, दूसरे तेरे हाटथ से फूल तो रोज लेती ही रहती हूं। आज बख्शिन जू के फूलों का आशीर्वाद लेना चाहती हूँ।”

रानी का कथन सुनकर मुन्दर संकोच से एक ओर हट गयी। बख्शिन जू हर्षोत्फुल्ल हो गयी। उनके हार पहनाने के बाद अन्य स्त्रियों ने भी रानी को हार पहनाए गए पहनाए गए कि वे ढक गयी और उनको साँस लेना दूभर हो गया। सहेलियां उनके हार उतार-उतार कर रख देती थी और वह पुनः-पुनः ढक दी जाती थी।

अन्त में कोने में खड़ी हुई एक नववधू माला लिए बढ़ी। उसके कपड़े बहुत रंग-बिरंगे थे। चाँदी की जेवर पहने थी। सोने का एकाध ही था। सब ठाठ सोलह आना बुँदेलखण्डी। पैर के पैंजनों से लेकर सिर की दाँवनी तक सब आभूषण झाँसी की अपनी अनोखी कला की पहचान करा रहे थे। रंग जरा साँवला वाकी चेहरा रानी की आकृति, आँख-नाक से बहुत मिलता-जुलता। महिलाओं की भीड़ में हल्का-सा घूँघट काढ़े इस अनोखी स्त्री को रानी पहचाने बिना न रह सकी। उन्होंने मुस्कराकर कहा-”आओ झलकारी पहना दो अपनी माला।” झलकारी, यह नाम रानी के लिए नया नहीं था। उन्हें यह अभी याद नहीं कि अपने सिपहसालार खुदाबख्श से सुनी थी। जिसे उन दिनों उन्होंने डाकुओं का आतंक समाप्त करने के लिए तैनात किया था।

उसने उनको सुनाते हुए कहा था-जब झलकारी अपनी किशोरवय सहेलियों के साथ जंगल के बीच से गुजर रही थी। तभी एक कड़कती आवाज ने उन सबको चौका दिया। “अपने-अपने गहने उतार दो और मेरे हवाले करो।” डाकू को देखकर किशोरियाँ काँपने और रोने लगी। उन्होंने अपने-अपने गले से हँसती और कड़े उतार कर डाकू के सामने रखने शुरू कर दिए। “अब तू क्या देख रही है?” डाकू ने उसे घुड़की दी। “उतार अपने गहने।”

“उतार तो रही हूँ। पाँव के कड़े तो उतार कर रख दिए है। हँसली डोरे में फँस गयी है।” उसने कहा।

“अरे तो डोरे तोड़ डाल न।” डाकू कड़का।

वह बोली, “अब रोना तो यही है। डोरा मजबूत है टूटता ही नहीं। तुम ही कटार से डोरा काट दो। नहीं, तुम क्यों तकलीफ करो। मैं ही डोरे को काट देती हैँ। जरा कटार देना तो।”

“ठीक है।” डाकू ने कहा और उसे कटार दे दी। कटार हाथ में आते ही वह एकदम शेरनी की तरह उछली और देखते ही देखते कटार डाकू के कलेजे में घोंप दी। डाकू वही ढेर हो गया।

खुदाबख्श से इस घटना की चर्चा सुनने के बाद ही रानी उससे मिली थी। उन्होंने ही उसकी शादी झाँसी के एक बुनकर जाति के पूरन से करवाई थी लेकिन उसकी वीरता किसी बहादुर सैनिक से कम न थी।

शायद यही सोचकर, रानी ने जब महिलाओं की फौज बनाने का निश्चय किया, तब उसकी बागडोर झलकारी के हाथ सौंप दी। उनके इस निर्णय का सबसे मुखर विरोध दीवान दूल्हा जू ने किया था। उसने अपना एतराज प्रकट करते हुए कहा था। उसने अपना एतराज प्रकट करते हुए कहा था-”जाति को इस कोरिन को सिपहसालार बनाना ठीक नहीं है, रानी सरकार।”

प्रत्युत्तर में रानी ने उसे डपट दिया, “चुप करो दूल्हा जू। कुल का गर्व नहीं, कर्म का गौरव महान होता है। किसी की जाति नहीं, उसके गुण ही उसे बड़प्पन प्रदान करते हैं।”

आज वही झलकारी उनके सामने नववधू के रूप में सजी-धजी खड़ी थी। उसके इस रूप को देखकर कोई नहीं कह सकता था, नयी-नवेली दुल्हन के रूप में पर्व मनाने आयी वह स्त्री लड़ाई के मैदान में अकेले सैकड़ों-हजारों बहादुर सिपाहियों पर भारी पड़ती है। अपनी जुड़वा बहिन-सी लगने वाली झलकारी को रानी ने हाथ पकड कर अपने पास बिठाते हुए पूछा-”तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?”

“ठीक चल रहा है रानी सरकार। झाँसी की नारियाँ बिना किसी जाति भेद अथवा वर्ग के सैन्य कला में निपुण हो रही हैं। घुड़सवारी, तीरंदाज़ी तलवारबाजी में प्रवीण महिलाओं की संख्या अब सैकड़ों को पार करती हुई हजारों में पहुँच रही है।”

झलकारी का यह कथन सुनकर रानी के गौर मुख पर ऊषा की अरुण स्वर्ण रेखाएँ सी सिंख गयीं। वह मुस्कराई जैसे एक क्षण के लिए ज्योत्सना छिटक गयी हो। जरा सिर हिलाया मानो मुक्त पवन ने फूलों से लदी फुलवारियों को लहरा दिया।

रानी उन सभी में नव प्राणों का संचार करती हुई कहने लगीं-”नारियाँ राष्ट्र धर्म एवं संस्कृति का जीवन है। उनकी जाग्रति का मतलब है राष्ट्रीय जीवन की जाग्रति, धर्म में नवचेतना का संचार एवं संस्कृति का पुनर्जीवन। तम सबके उत्साह और उमंग को देखकर अब मैं कह सकती हूँ, कि अपने देश के उज्ज्वल भविष्य का अरुणोदय शीघ्र होगा।”

“सरकार हमारी महारानी हैं। आपके एक इशारे पर हम सबका सर्वस्व न्यौछावर है।” अबकी बार वख्शिन जू के चेहरे पर पर्याप्त दृढ़ता थी।

तो फिर सुनो, चहल-पहल को बन्द करके रानी ने स्त्रियों से कहा-”दो-चार दिन के भीतर ही अपनी झाँसी के ऊपर गोरों का आक्रमण होने वाला है। अबकी बार का आक्रमण पिछले हमलों से ज्यादा खतरनाक है। जनरल रोज अपनी भारी कुमक लेकर तेजी से बढ़ा चला आ रहा है। तुम में से अनेक युद्ध विद्या सीख गयी हैं। जो जिस कार्य को कर सके वह उस कार्य को हाथ में ले लड़ने वालों के पास गोला-बारूद, खाना-पानी इत्यादि ठीक समय पर पहुंचता हथियार भी चलाना पड़ेगा। तुममें से कोई मेरी बहिन के बराबर हो, कोई माता के समान। अपने देश-धर्म संस्कृति की लाज तुम्हारे हाथ में है। ऐसे काम करना, जिनसे हमारे पूर्वजों को कीर्ति मिले और भावी पीढ़ियाँ प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त करें। प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त करें।”

अपने इस कथन के साथ उन्होंने कहा, अब एक बार सब भगवान का नाम लो-हर-हर महादेव।

सबिस्त्रयों के कण्ठ से ध्वनित हुआ-”हर-हर-महादेव।”

उन कोमल किन्तु दृढ़ कण्ठों से निकला हुआ हर-हर महादेव अनन्त दिशाओं में, अनन्त काल में, अनन्त अमर नाद बनकर समा गया।

झाँसी की अनेक स्त्रियों ने उसी दिन रानी के पास सैनिक वेश में अपना निवास बनाया। ये ही स्त्रियाँ जो घर पर बात-बात में तुनक उठती थीं, जरा-सा कारण पाने पर परस्पर लड़ बैठती थीं, संध्या के समय वस्त्राभूषणों और फूलों से सुसज्जित होकर थालों में दिए रख-रखकर मंदिरों में पूजन के लिए जाती थी, वे ही स्त्रियां सैनिक वेश में तलवार बाँधे और कन्धे पर बन्दूक साधे, चुपचाप अपना-अपना कर्त्तव्य पालन करने में निरत हो गयीं। उनका शृंगार और वाक् युद्ध तलवार की म्यान में समा गया। यह सब झलकारी द्वारा दिए गए सैनिक प्रशिक्षण का कमाल था। लोगों की कल्पना थी कि अंग्रेज रात को झाँसी पर हमला करेंगे। झाँसी सचेत थी, परन्तु रात को हमला नहीं हुआ।

हमला 23 मार्च को हुआ। जनरल रोज ने “नाऊ और नेव्हर” के आदेश प्रसारित किए। लेकिन झाँसी के बहादुर सिपाहियों की चतुरता और वीरता के सामने अंग्रेज कुछ कर नहीं पा रहे थे। एक बार नहीं कई बार अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा गौस खाँ के तोपखाने, खुदाबख्श की तलवार की धार के सामने उनको मुँह की खानी पड़ रही थी, लेकिन जातीय अभिमान में फूले-फले दूल्हा जू की घृणित गद्दारी से ये बहादुर शहीद होते गए और आखिर रानी को लड़ाई नए सिरे से जारी रखने के लिए कालपी जाने का निर्णय लेना पड़ा थोड़े से लोगों के साथ वह भाड़ेरी फाटक से बाहर हो गयी। उनके निकलने के बाद झलकारी ओर उनके साथियों ने फाटक फिर बन्द कर लिया।

रानी और उसके साथियों को कोट के बाहर की भूमि का राई-रत्ती पता था। अंधेरे में वह सहज बढ़ती चली गयी। बातचीत बिलकुल धीरे-धीरे होती थी। अंजनी की टौरिया के पास ओरछे की सेना का कड़ा पहरा था और एक अँग्रेज छावनी का। यहाँ रोक-टोक हुई और लड़ाई भी। यहाँ से रानी के साथ केवल दस-बाहर सवार गए और मुन्दर।

टागे निमग र्मा। अगाध अँधेरा। झींगुर झंकार रहे थे उनके ऊपर घोड़ों की टापों की आवाज हो रही थी। सब ओर सन्नाटा छाया हुआ था। पीछे झाँसी में आग जल रही थी और आवाजें आ रही थीं। आगे अन्धकार में जंगल और गढमऊ के पहाड़ लिपटे हुए, दवे हुए से दिखाई पड़ रहे थे। चिड़ियां पेड़ों पर से भड़भड़ा कर उड़ती और घोड़ों को चौका देती। आगे का मार्ग अंधकारपूर्ण और भविष्य तिमिराच्छन्न ज्यों-त्यों करके आरी नाम के ग्राम के पास से यह टोली बढ़ गयी। पहुज नहीं मिली। लोगों ने चुल्लुओं से पानी पिया और फिर आगे बढ़ने लगे। कभी धीमी गति से कभी तेजी के साथ। अब तक ये काई दस-बारह मील ही आगे बढ़े होंगे।

इधर रोज के खेमे में सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी। अभी वह कुछ कर पाता इसके पहले झलकारी ने एक योजना सोची और उसको क्रियान्वित करने का निश्चय किया। अपने इस निश्चय के साथ वह सीधी तनकर खड़ी हो गयी।

उसने अपना शृंगार किया। बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहने, ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मीबाई करती थीं। कपड़े तो उसे समय-समय उसकी अपनी रानी सरकार से मिलते रहते थे परंतु गले के लिए हार न था। सो उसने काँच की गुरियों के कण्ठे को गले में डाल लिया और प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगी।

पौ फटते ही वह घोड़े पर बैठी और बड़ी ऐंठ के साथ अंग्रेज छावनी की ओर चल दी। हाथ में कोई हथियार न लिया। चोली में केवल एक पिस्तौल रख ली।

थोड़ी दूर पर गोरों का पहरा मिला। टोकी गई।

झलकारी को अपने भीतर भाषा और शब्दों की कमी पहले-पहल जान पड़ी। लेकिन उसे मालूम था कि गोरों के साथ चाहे जैसे बोलने में कोई हानि न होगी।

झलकारी ने टोकने के उत्तर में कहा, “हम तुम्हारे जंडेल के पास जाउत है।”

यदि कोई हिन्दुस्तानी उसकी इस ठेठ बुन्देलखण्डी को सुनता और उसके वेष एवं योजना के बारे में सुनता तो से हँसी आए बिना न रहती।

“रानी-झाँसी की रानी, लक्ष्मीबाई।” झलकारी ने बड़ी हेकडी से जवाब दिया।

उसके इन शब्दों में न जाने क्या जादू था, कि

पूरी अंग्रेज छावनी में हड़कम्प मच गया। एक अफरा-तफरी की लहर छा गयी। आस-पास खड़े गोरे सिपाहियों और अफसरों के चेहरे दहशत में पीले पड़ गए।

झलकारी उन सबसे चेहरों पर चढ़ते-उतरते रंगों को देख रही थी। उसे अपनी बाई सरकार के नाम के जादू का असर समझ में आ रहा था मन ही मन उसे अपने पर गर्व अनुभव हो रहा था कि वह कितनी भाग्यशालिनी है, जो उसे देवी जैसी अपनी रानी सरकार के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन उसने आन्तरिक भावों को अपने चेहरे पर प्रकट नहीं होने दिया।

गोरे उसे अभी तक घेरे खड़े थे। उन्हें एकाएक सूझ नहीं रहा था। गोरे सिपाही खुशी में पागल हो गए। उनसे बढ़कर खुशी झलकारी थी।

उसको विश्वास था कि मेरी जाँच-पड़ताल और हत्या में जब तक अँग्रेज उलझेंगे तब तक रानी को इतना समय मिल जाएगा कि वे कालपी पहुँच सकें।

झलकारी रोज के सामने पहुँचाई गयी। वह घोड़े से नहीं उतरी। रानियों की सी शान, वैसी ही अभिमान, वही हेकड़ी, रोज भी थोड़ी देर के लिए धोखे में आ गया।

शक्ल-सूरत वैसी ही सुन्दर। केवल रंग वही नहीं था।

श्रोज ने मेजर स्टुअर्ड से कहा, “हाड हैण्डसम, दो डार्क एण्ड टैरिबल।” (कितनी सुंदर है, यद्यपि श्यामल और भयानक)।

परन्तु छावनी में राव दूल्हा जू था। वह खबर पाकर तुरन्त एक आड़ में आ गया। उसने बारीकी के साथ देखा। उसे अच्छी तरह मालूम था कि महारानी मरते दम तक छावनी की ओर आने वाली नहीं। यह जरूर उनकी हमशक्ल झलकारी ही है, जो यहाँ धोखा देने आयी है।

और वह रोज के पास आकर बोला, “यह रानी नहीं है जनरल साहब, झलकारी कोरिन है। रानी इस प्रकार सामने नहीं आ सकती।”

झलकारी ने दूल्हा जू की पहचान लिया। सामने

देशद्रोही को देखा तो उसका खून उबल गया। वह अपना आपा खो बैठी। गरजी, “अरे पापी ठाकुर होकै तैने का करो?”

अपनी जाति के घमंड में चूर रहने वाला दूल्हा जू जमीन में गड़ गया। वह वहाँ से भाग पाता, इतने में झलकारी ने अपनी रिवाल्वर से गोली दी।

लेकिन दुर्भाग्य, झलकारी का निशान चूक गया। गोली पास खड़े अँग्रेज फौजी को लगी और वह वही ढेर हो गया। उसने फुर्ती से दूसरी गोली दागनी चाही पर इसी बीच रोज ने अपने पिस्तौल से उस पर गोलियाँ चला दी। वह खून से लथपथ होकर गिर पड़ी। परन्तु उसे सन्तोष था कि उसने अपनी रानी सरकार को सुरक्षित कालपी पहुँचा दिया। इसी सन्तोष के साथ उसने दम तोड़ दिया।

अब तक रोज और स्टुअर्ड को उसकी योजना का पता चल चुका था। पर कोई इतना साहसी भी हो सकता है, स्टुअर्ड को यकीन नहीं हो रहा था। वह बोला-”शी वाज मैड।” (वह पागल थी)।

रोज ने सिर हिलाकर कहा, “नो स्टुअर्ड, इफ वन परसेंट ऑफ इण्डियन वीमन बिकम सो मैड एज दिस गर्ल वाज, वी विल हैव टू लीव आल दैट वी हैव इन दिस कन्ट्री एण्ड सरटेनली इण्डिया विल लीड द वर्ल्ड।” (नहीं स्टुअर्ड यदि भारतीय स्त्रियों में एक प्रतिशत भी ऐसी पागल हो जाएँ, जैसी यह स्त्री थी तो हमको हिन्दुस्तान में अपना सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा और निश्चित ही भारत विश्व का नेतृत्व करने लगेगा) । रानी को जब कालपी में झलकारी के बलिदान की खबर मिली तो वह भरे कंठ से बोली-”उसने अपने जीवन में यह सिद्ध कर दिखाया कि महानता कुल के गर्व में नहीं, कर्म के गौरव में होती है।” इसी के साथ उनकी आँखों से कुछ भाव बिन्दु टपक पड़े। यही उस वीरांगना को सच्ची श्रद्धांजलि थी।

अपने समय की प्रख्यात लेखिका मेरी स्टोव किशोरावस्था में बहुत सुन्दर लगती थी। इसकी चर्चा और प्रशंसा भी बहुत होती थी। इस पर लड़की को गर्व रहने लगा और वह इतरा कर चलने लगी।

बात पिता को मालूम हुई। तो उन्होंने बेटी को बुलाकर प्यार से कहा-”बच्ची किशोरावस्था का सौंदर्य प्रकृति की देन है। इस अनुदान पर उसी की प्रशंसा होनी चाहिए। तुम्हें गर्व करना हो तो साठ वर्ष की उम्र में शीशा देखकर करना कि तुम उस प्रकृति की देन को लम्बे समय तक अक्षुण्य रखकर अपनी समझदारी का परिचय दे सकी या नहीं। “


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118