साँस्कृतिक चेतना का जागरण इससे कम में नहीं होगा

January 1997

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आज के भौतिकता प्रधान युग में, जहाँ चारों ओर से संस्कृति पर कुठाराघात ही रहा हो, मूल्यों का सतत् हास होता जा रहा हो, धर्मतन्त्र की ओर से विशेषतः प्रगतिशील धर्मतन्त्र के पुरोधाओं की ओर से ऐसे कदम उठाया जाना अनिवार्य है, जिनसे उसकी गरिमा की अक्षुण्ण रखा जा सके। यों तो देव संस्कृति हमारे अपने ऋषियों द्वारा विनिर्मित एक ऐसी विधा है जो हमारी जीवन-शैली के रूप में रम गयी है एवं किसी भी स्थिति में किसी तर्क, तथ्य या प्रमाण की मोहताज नहीं है। किन्तु आज के प्रत्यक्षवादी युग में ऐसे माध्यमों का आश्रय लेना अनिवार्य जान पड़ता है, जिनसे कि सीता की अग्नि परिक्षा की तरह देव संस्कृति को भी उनसे गुजर कर सही प्रमाणित किया जा सके।

संस्कृति को आज लौकिक अर्थों में लोकमानस मात्र कला, रंगमंच, खानपान, रहन-सहन तक सीमित मानता है, किन्तु यह उससे कही व्यापक अर्थों में संस्कारों को जीवन में समाहित कर व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाली विधा कही गयी है, नरपशु को देवमानव बनाने वाला एक पारस कही है। जहाँ इतने व्यापक परिप्रेक्ष्य में हम संस्कृति की विवेचना करते हैं तो फिर उसका प्रस्तुतीकरण भी वैसा होना चाहिए। मात्र संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों की चर्चा से तो यह सम्भावना नहीं। यही कारण है कि 1997 के जनवरी माह से आरम्भ होने वाले विराट संस्कार महोत्सवों को अब संस्कृति के विज्ञानसम्मत प्रस्तुतीकरण के रूप में जन सामान्य के शिक्षण , जानकारी बढ़ाने के निमित्त आयोजित किया जा रहा है।

देव संस्कृति धर्म, अध्यात्म-विद्वान, पर्यावरण से लेकर ऋषि परम्परा, साधना विज्ञान एवं व्यावहारिक अध्यात्म की परिधि में आने वाले सभी विषयों को अपनी परिधि में आने वाले सभी विषयों को अपनी परिधि में हुए एक व्यापक परिभाषा वाली विधा है। इन सभी की विज्ञान की कसौटी पर कसते हुए कैसे प्रस्तुत किया जाय, जबकि संस्कृति स्वयं में एक विज्ञान है? दृश्य-श्रव्य साधनों द्वारा यदि संस्कृति के विभिन्न घटकों का विज्ञानसम्मत विवेचन प्रत्यक्ष कर दिखा दिया जाये तो इस दुनिया का हल निकल आता है। यही तथ्य ध्यान में रख युग ऋषि परमपूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य जो कि आज के युग के सर्वोत्कृष्ट वैज्ञानिक भी माने जा सकते है-के शाश्वत चिन्तन की संस्कार महोत्सवों में ज्ञानयज्ञ के माध्यम से विराट प्रदर्शनी के रूप में एक अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया गया है।

मुम्बई, जो कि महाराष्ट्र की राजधानी होने के साथ कला व फिल्म नगरी भी है की अनायास ही यह श्रेय प्राप्त होने जा रहा है कि पहली बार कम्प्यूटर साइंसेज की नवीनतम विधा ‘मल्टीमीडिया’ के माध्यम से देव संस्कृति के विराट-व्यापक रूप को प्रस्तुत किया जा रहा है। चर्चगेट, जो कि बृहत्तर मुम्बई के दक्षिणी भाग में उस क्षेत्र में स्थित है जहाँ कि बहुसंख्य अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय है, पूरे भारत ही नहीं, एशिया का भी एक का व्यापारिक केन्द्र है तथा जहाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ स्थित है, के सामने सुन्दर बाई हॉल में यह विराट प्रदर्शन 22, 23, 24, 25, 26 जनवरी की तारीखों में होने जा रहा है। इसके लिए बड़े व्यापक स्तर पर तैयारी विगत जुलाई-अगस्त माह में ही आरम्भ कर दी गयी थी। इस प्रदर्शनी को साधारण प्रदर्शनी न मानकर अध्यात्म-विज्ञान के समन्वय की, बोधगम्य अध्यात्म के विभिन्न पक्षों का प्रस्तुतीकरण करने वाली एक अद्वितीय स्तर की कार्यशाला माना जाना चाहिए। समापन की पूर्व वेला में गिरगाँव चौपाटी पर एक विराट सवालक्ष वेदी दीपयज्ञ भी आयोजित किया गया है, जिसमें 25 जनवरी की संध्या समुद्र किनारे दीपदान के साथ अभिनव संकल्प भी किये जाएँगे, प्रेरक उद्बोधन होंगे तथा एक शाकाहार मेले के माध्यम से अहिंसा प्रधान समाज व आहार क्रान्ति का प्रस्तुतीकरण होगा।

आज हमारे ग्रामीण क्षेत्र एवं कस्बों में जिस संस्कार प्रधान शिक्षण की आवश्यकता है, उससे कुछ भिन्न प्रकार की भूख बड़े नगरों की है, जिनमें हम मुम्बई, बेंगलोर, चेन्नई (मद्रास), कलकत्ता, दिल्ली जैसे पाँच नगरों सहित कानपुर, लखनऊ, नागपुर, अहमदाबाद, राजकोट, सूरत, जयपुर, बेंगलोर, कोचीन, पुणे, चण्डीगढ़, इलाहाबाद, इन्दौर, जबलपुर, हैदराबाद, विशाखापट्टनम, मेरठ, शिमला, जम्मू, गुवाहटी इत्यादि जैसे बड़े शहरों के नाम भी ले सकते हैं। इन सभी में साँस्कृतिक स्तर पर बड़ी तेजी से पाश्चात्यीकरण का उन्माद फैला है एवं नैतिक मूल्यों में गिरावट के साथ तेजी से फैलने जा रहे इन क्षेत्रों में अपराधों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। जो भी हो, इलाज तो पूरे समाज का करना है, विशेषकर उन क्षेत्रों का जहाँ में अपराधों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। जो भी हो, इलाज तो पूरे समाज का कहना है, विशेषकर उन क्षेत्रों का जहाँ सुविधा-साधनों के आकर्षणवश प्रतिभाएँ जा विराजी है या विद्यमान है। इन सभी में संस्कार चेतना फैलाने के लिए ऐसे ही मुंबई ज्ञानयज्ञ स्तर के कार्यक्रम अगले दो वर्षों में किए जाने की योजना है, ताकि बहुसंख्य बहुभावी क्षेत्रों तक गुरुसत्ता का संदेश फैल सके।

यह स्पष्ट तौर पर समझ लिया जाना चाहिए कि अब चाहे भारत हो या विश्व, उलटी नैया की पार लगाने का कार्य देव संस्कृति ही करेगी। देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के झण्डे तले यह कार्य गायत्री परिवार अब अपने चिन्तन एवं उद्देश्यों में साम्य रखने वाली संस्थाओं के साथ मिलकर सम्पन्न करेगा। आशा करनी चाहिए की 1991 तक सारे भारत ही नहीं, विश्वभर में साँस्कृतिक नवोन्मेष की यह प्रक्रिया किया रूप लेती देखी जा सकेगी एवं फिर युग परिवर्तन बहुत दूर नहीं, प्रत्यक्ष अपने सामने देखा जा सकेगा।

*समाप्त*


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