योगक्षेमं वहाम्यहम्

January 1997

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सृष्टि के स्वामी भगवान है। उनके प्रति अगाध श्रद्धा और अटल विश्वास के साथ सम्पूर्ण समर्पण किया गया मानापमान, सुख-दुख जैसी हर तरह की परिस्थितियों को उनका मंगल विधान समझते और उनमें एकरस रहते हुए समस्त भार उनको सौंप दिया गया, तो फिर भक्त की सारी जिम्मेदारी को वे अपने कंधों पर वहन कर लेते हैं। यही है भगवद् शरणागति। समर्पण योग इसी को कहते हैं।

आये दिन इस प्रकार की कितनी ही घटनाएँ घटती रहती है, जिनमें इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद होता है कि भक्त यदि निष्कपट भाव से ईश्वर पर पूर्णरूपेण अवलम्बित हो तो सहायता असंदिग्ध है। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख सुप्रसिद्ध विद्वान पण्डित गोपीनाथ कविराज ने अपनी पुस्तक ‘साधु दर्शन एवं सत्प्रसंग’ में किया है। प्रसंग शशिभूषण सान्याल नामक एक बंगाली भक्त का है। वे अत्यन्त सरल, संयमी और विनीत स्वभाव के थे। ईश्वर के प्रति उनका अनुराग अद्भुत था। अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वे अपनी कठिनाई किसी के समक्ष प्रकट नहीं करते कहते इसकी आवश्यकता नहीं है। अन्तर्यामी ईश्वर सब कुछ जानते हैं। उनकी इच्छा हुई तो क्षणमात्र में ही सब कुछ अनुकूल हो सकता है। वह गृहस्थ थे। उनकी छोटी गृहस्थी में कुल तीन सदस्य थे-वह स्वयं, उनकी पत्नी और एक पुत्र। नौकरी करना उन्हें रुचता नहीं था, अतः भक्तों द्वारा जो कुछ मिल जाता, उसी से किसी प्रकार उनकी गृहस्थी चलती।

यों चिकित्सा के वे मर्मज्ञ थे और एक साथ आयुर्वेद, एलोपैथी, होम्योपैथी, क्रोमोपैथी, बायोकेमिक जैसी कितनी ही प्रणालियों का उन्हें तात्विक एवं प्रायोगिक ज्ञान था। वे चाहते, तो इनके द्वारा पर्याप्त धनोपार्जन कर सकते थे और अपनी गृहस्थी को अभाव रहित बना सकते थे पर ऐसा उनका स्वभाव था नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि वे चिकित्सा करते ही नहीं थे। उनके घर पर बीमार और रोगी व्यक्तियों की बड़ी संख्या बनी रहती। वे दूर-दूर से चिकित्सा कराने हेतु उनके पास पहुँचते। इसके अतिरिक्त शास्त्र अध्ययन करने वाले शिक्षार्थी भी रहते थे। सबकी वे निःशुल्क सेवा करते थे। इतना ही नहीं, उनकी भोजन-व्यवस्था भी उन्हीं के ऊपर थी। इसे वे अपना कर्त्तव्य समझते।

जिन दिनों का यह प्रसंग है, उन दिनों वे वराह नगर (कलकत्ता) में रहते थे। एक बार उनके सामने भारी अर्थ संकट उपस्थित हुआ। वे उधेड़बुन में पड़ गये कि अर्थाभाव को दूर करने के लिए चिकित्सा-शुल्क ग्रहण करना चाहिए या नहीं? ऊहापोह बढ़ने लगी। समाधान का कोई उपाय न पाकर मन व्याकुल हो उठा। बेचैनी इतनी बढ़ी कि सर्वदा सौम्य-मूर्ति से प्रतीत होने वाले वे आज अचानक एकदम असामान्य हो गये। तभी अकस्मात वायु से उड़कर किसी छित्र पुस्तक का एक खण्ड पत्र उनके समीप आ गिरा। वह किसी वैदिक वाङ्मय का अंश था। उस पर लिखा था कि ब्राह्मण वृत्ति वालों के लिए भेषज का आश्रय ग्रहण करना उचित नहीं। वे समझ गये कि चिकित्सा-वृत्ति को जीविकोपार्जन का साधन नहीं बनाया जा सकेगा।

समाधान पाकर वे निश्चिंत हो गये। उस दिन कहीं से भी कुछ नहीं जुट पाया। माँगना उनके स्वभाव में था नहीं। अयाचित भाव तथा शुद्ध अन्तःकरण से जो कुछ उपलब्ध होता, उसी से सब का निर्वाह चलता पर आज तो निराहार रहने जैसी स्थिति आ उपस्थित हुई। शायद भगवान अपने भक्त की परीक्षा ले रहे हों। वह तो खुशी-खुशी अनाहार रह जाएं पर परिकर के अन्य सदस्यों का क्या हो? यह सोच-सोच कर उनका मन कचोटता पर उपाय क्या हो? कहीं कोई आशा दीख नहीं पड़ती! हार का तब सबने विल्व पत्र का रस ग्रहण कर वह दिन बिताया। दूसरा दिन भी इसी प्रकार कटा। तीसरा दिन आ गया। दोपहर तक कहीं से कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ पर सान्याल महाशय अविचलित भाव से अपने दैनिक कार्यों में लगे रहे। बीमारों की चिकित्सा की और विद्यार्थियों को शास्त्र ग्रन्थ पढ़ाया, उनकी जिज्ञासाओं का समाधान किया। इस समय भी वे एकदम अक्षुब्ध और शान्त थे, मानो कुछ भी असामान्य घटित हुआ हो। इन तीन दिनों में उनके कार्य और व्यवहार में तनिक भी परिवर्तन नहीं हुआ। सभी कुछ यथाविधि कथाक्रम चलता रहा, अतएव मिलने आने वाले भक्तों और श्रद्धालुओं को भी इसका किंचित आभास नहीं मिल सका कि विगत दो दिनों में क्या कुछ असाधारण घटित हो गया।

तीसरे दिन का अपराह्मोत्तर काल आया। यह ब्रह्मसूत्र ग्रन्थ पर चर्चा का नियत समय था। इस निमित्त प्रदिनद बड़ी संख्या में आस-पास के विद्वत्गण उपस्थिति होते। कहते हैं कि उस रोज रामकृष्ण परमहंस के अन्तरंग शिष्य स्वामी अभेदानन्द भी वहाँ मौजूद थे पर तब काली महाराज के नाम से जाने जाते थे मीमाँसा प्रारम्भ हुई। सान्याल महाशय एक-एक सूत्र की व्याख्या साधन द्वारा उपलब्ध ज्ञान के आधार पर करने लगे। सब मंत्रमुग्ध हो उसे सुन रहे थे। ऐसी सुन्दर और वीन विवेचना कदाचित ही उनने पहले कभी सुनी हो। धीरे-धीरे कर दार्शनिक व्याख्या गहन-से गहनतर भूमिका में प्रवेश करने लगी। उसी समय डाक विभाग का पत्रवाहक एक रजिस्ट्री लेकर वहाँ उपस्थित हुआ। पत्र सान्याल महाशय के नाम था और उसे किसी “मित्र” नामधारी व्यक्ति ने भेजा था। उन्होंने हस्ताक्षर करके पत्र ग्रहण किया। इसके बाद उसे खोल कर आद्योपान्त में नहीं मन पढ़ डाला। तत्पश्चात् पत्र बगल में रख करके बैठ गये। उपस्थित लोगों ने देखा कि उनकी आंखें सजल हो उठी है। केवल इतना ही नहीं, उनसे अविरल अश्रुधारा प्रभावित होने लगी। सब स्तब्ध रह गये।जिनके नेत्रों से आँसू बड़े-से-बड़े दुःख में भी नहीं निकल पाते थे, आज वे इस प्रकार बरस रहे हैं-लोगों को यह बड़ा विचित्र-सा लगा। 15 मिनटों तक यह सब कुछ चलता रहा। श्रोतागण मौन पर आश्चर्यचकित होकर देखते रहे। यह एक अभूतपूर्व दृश्य था।

अन्ततः मौन भंग हुआ। अभेदानन्द बोले-महाराज, बात क्या है? क्या कोई शोक-संवाद आया है? आपकी आँखों में यह जल कैसा? जितने हँसने-हँसते अपने प्रिया शिशु को श्मशान ले जाकर चिता पर सुलाया, वे आज इस प्रकार शोकविहल होंगे- यह समझ में नहीं आता और न बुद्धि इसे स्वीकार करना चाहती है किन्तु प्रत्यक्ष में तो ऐसा ही कुछ दीख रहा है। आखिर इस अन्तर्विरोध का कारण क्या है? पत्र पढ़ कर आप इस प्रकार हतप्रभ क्यों हो गये, इसे स्पष्ट करने की कृपा करें?”

यह सुनकर उनकी धीर-गंभीर वाणी उभरी। वे बोले-” यह शोक के आँसू नहीं है। शोक मुझे विचलित नहीं कर पाता। मैं भगवद् करुणा से अभिभूत हूँ। उनकी कृपा का स्मरण कर कठोर संयमी होने के बावजूद अश्रु का संवरण नहीं कर पाता। आज इसीलिए अश्रुपात हो रहे है। इसमें न तो हर्ष है, न निषाद, वरन् करुणा सिन्धु के दिव्य अनुग्रह से उपजे अन्तःकरण की यह परिणति है।” इतना कहकर उन्होंने पत्र भक्तों के सम्मुख रख दिया और उसे पढ़ लेने का आग्रह किया। पत्र प्रेषक ने उसमें लिखा था कि विगत रात्रि को उसने एक अद्भुत स्वप्न देखा । सपने में भगवान काशी-विश्वनाथ प्रकट होकर कह रहे थे कि अत्यन्त भूखे है। कई दिनों का उपवास है। भक्त के भूखे होने से भला वे अन्न कैसे ग्रहण कर सकते है? वे कह रहे थे कि उनका एक परम भक्त आहार की व्यवस्था न हो पाने के कारण कई रोज से निराहार है। उसकी इस अवस्था से मुझे असह्य कष्ट हो रहा है। तुम यदि मुझ पर तनिक भी भक्ति रखते हो, तो अविलम्ब उसके भोजन की व्यवस्था करो। इतना कहकर उन्होंने स्वप्नद्रष्टा को सान्याल महाशय का नाम और उनका पूरा पता बता दिया। इसके अतिरिक्त स्वर्णाक्षरों में उसे लिखकर भी बता दिया। इसके उपरान्त उन सज्जन की नींद खुल गई। उन्होंने सर्वप्रथम स्वप्नद्रष्टा नाम और पता नोट किया, तत्पश्चात् इन्ष्योर करके पाँच सौ रुपये का नोट उक्त पते पर भेज दिया। पत्र के अन्त में एक टिप्पणी लगाते हुए उनने लिखा कि यद्यपि वे व्यक्तिगत रूप से उन्हें नहीं जानते और न उनके ठिकाने की ही सही जानकारी है, फिर भी उन्हें विश्वास है कि उनका स्वप्न मिथ्या नहीं होगा और पत्र एवं रुपये यथास्थान सुरक्षित पहुँच जाएँगे।

इसके उपरान्त सान्याल महाशय ने पिछले तीन दिनों से जिस प्रकार घर की व्यवस्था चल रही थी, उसे खोल कर कहा। यह भी बताने में संकोच न किया कि वे सभी तीन रोज से अनाहार है। उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि उनका एकमात्र अवलम्ब भगवान हैं, अतः अपने कष्ट को संसार के समक्ष उद्घटित करने की उनकी यत्किंचित् भी इच्छा न हुई। उन्हें यह अडिग विश्वास था कि जिनको उनने सब कुछ समर्पित किया है, उन भगवान के लिए यह निमिष मात्र का व्यापार है। इतना कहकर वे बोले कि भगवान की इसी करुणा की बात स्मरण करके उनके नेत्र भर आये थे। यह सुनकर सभी आनन्दविभोर हो उठे और ईश्वर के नाम-कीर्तन करने लगे। उस दिन शास्त्र-मीमाँसा यहीं समाप्त हो गई।

परमेश्वर सर्वप्रथम भक्त की ऋजुता और निष्कपटता देखते हैं। इस कसौटी पर खरा उतरने के पश्चात् तो उस पर अयाचित अजस्र अनुग्रह की वर्षा आरंभ हो जाती हैं आज तो पग-पग पर विश्वासघात होते और कुचक्र रचे जाते हैं। किस पर विश्वास किया जाय और किसे अप्रमाणिक माना जाय? यह निर्णय करते बुद्धि चकराने लगती है, कारण कि असल की नकल का बाजार इन दिनों खूब गर्म है। असली आवरण में नकली लोग दादुरों की तरह वृद्धि कर रहे हैं। ऐसे में यदि उनकी यह शिकायत हो कि सर्वसाधारण के लिए सम्प्रति भगवद् करुणा संभव नहीं, तो इसमें मिथ्या क्या है? क्योंकि वर्तमान मानवी चिंतन जितना पतित और विकृत हुआ है, वैसा शायद पहले कभी नहीं हुआ। जब साधारण मनुष्य तक गंदगी पसन्द नहीं करते, तो फिर यह आशा कैसे की जा सकती है कि सर्वोपरि भगवद् चेतना गन्दे आचार-विचार वालों पर अवतरित होगी अथवा उनकी सहायता करेगी। परिष्कृति उनको सबसे प्रिय है। इतना यदि हो सका, तो उनकी समर्थ सहायता पाने के लिए कुछ विशेष करने और कहीं बाहर जाने की जरूरत न पड़ेगी। ईश्वरीय चेतना सर्वत्र समान रूप में विद्यमान है। उसे यदि उपासनागृह के एकान्त में अनुभव किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि मरुस्थल के नितान्त निर्जन में उसका साक्षात्कार न किया जा सके। वह देश-काल के बन्धन से सर्वथा परे है। उसे कहीं भी, कभी भी उपलब्ध करने में कोई अड़चन नहीं। अवरोध है, तो सिर्फ निजी सत्ता की गुणवत्ता के संदर्भ में। उसे यदि हटाया और मिटाया जा सके, तो परमेश्वर का सहयोग तत्काल और तत्क्षण अर्जित करने में कोई विलम्ब नहीं।

समर्पण योग इसका अगला चरण है। इसमें हर स्थिति और हर परिस्थिति को भगवान की ही अनुकम्पा मानकर स्वीकार और संतोष करना पड़ता है। दूसरों शब्दों में कहें, तो अपनी इच्छा-अनिच्छा, पसन्द-नापसन्द, रुचि-अरुचि सब कुछ को विसर्जित कर ईश्वरीय आकाँक्षा को ही सर्वोपरि रूप में अंगीकार करना पड़ता है। इतना हो सका और परमेश्वर के प्रति अकृत्रिम श्रद्धा उपज सकी, तो फिर “योगक्षेमं वहाम्हम्” के भगवद् वचन के चरितार्थ होने में देर नहीं लगती।


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