ज्योतिर्विज्ञान एवं उसकी आलंकारिक विवेचनाएँ

January 1997

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जीवन की तरह आकाश भी असीम और अनन्त सत्ताओं और संभावनाओं से भरा है। इसका सामान्य स्वरूप ही मोटे साधनों से देखा-समझा जा सकता है। आंखों की शक्ति बहुत स्वल्प है, वह पीछे की वस्तुओं को बिल्कुल ही नहीं देख सकतीं, दायें-बायें भी थोड़ा-सा ही दीखता है। चार दिशाओं में से सही रीति से वह केवल एक ही सामने वाली दिशा में देख पाती हैं, सो भी एक सीमित परिधि और परिमित आकार तक। चर्म चक्षुओं से सामने प्रस्तुत संसार को भी पूरी तरह नहीं देखा जा सकता, तो अंतःक्षेत्र में काम करने वाली शक्तियों को देखने-समझने में उनसे क्या सहायता मिल सकती है? आत्मा, परमात्मा, अन्तःकरण और अन्तर्निहित दिव्य सत्ताओं को देख-परख पाना चर्मचक्षुओं का नहीं, ज्ञान चक्षुओं का काम है।

जीवन की तरह आकाश की भी असीमता है। उसका अधिकाँश भाग आँखों की पकड़ से बाहर है। जिस प्रकार अंतर्गत सूक्ष्म जगत के अवलोकन ज्ञान-चक्षु कराते हैं, उसी प्रकार विस्तृत आकाश के पर्यवेक्षण के लिए भी विशिष्ट उपकरण चाहिए। यह उपकरण दूरबीन है। इस यंत्र को जितना अधिक विकसित-परिष्कृत किया जा सका है, उसी अनुपात से आकाश संबंधी जानकारियाँ बढ़ती चली आयी है। खगोल विद्या की उपलब्धियों का श्रेय ज्ञान-चक्षुओं की पैनी दृष्टि को मिलता रहा है।

यहाँ मेला-ठेला या प्राकृतिक दृश्यों को देखने के लिए पर्यटकों के गले में लटकने वाली दो नाली दूरबीन की चर्चा नहीं हो रही है। इनका उद्देश्य मनोविनोद भर है। कुछ अधिक दूर की वस्तुओं को थोड़ा स्पष्ट करके दिखाने वाली इन दूरबीनों को ‘बाइनोक्यूलर’ कहते हैं। फौजी प्रसरेजल के लिए उनसे कुछ सुधरे हुए टेलिस्कोप काम में आते हैं।

किन्तु जब उद्देश्य आकाश की छानबीन करना और दूरस्थ पिण्डों की जानकारी प्राप्त करना हो, तब और अधिक शक्तिशाली टेलिस्कोपों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी प्रथम दूरबीन सन् 1609 में गैलीलियो ने बनायी थी। इससे वस्तुओं को उसके वास्तविक आकर से तीन गुना बड़ा देखा जा सकता था। उन दिनों इतना भी बहुत था। सूर्य के धब्बे, चन्द्रमा के पहाड़, बृहस्पति के चारों उपग्रह उससे देख लिये गये थे।

इसके बाद समय बीतने के साथ-साथ उनमें सुधार और विकास होता गया। अमेरिकी खगोलवेत्ता एल्लरी हाले ने सन् 1936 में सौ इंच व्यास को दूरबीन बनायी, जिसे विल्सन पर्वत पर स्थापित किया गया। यह 60 करोड़ प्रकाश वर्ष तक के आकाशीय पिण्डों को दृष्टिगोचर बनाती थी। इसके उपरान्त हाले ने 200 इंच व्यास की दूरबीन बनाने का काम हाथ में लिया, जो उनकी मृत्यु के दस वर्ष पश्चात पूरा हो सका। इसे 1948 में पालोमर पर्वत पर स्थापित किया गया। बहुत समय तक वही संसार का सबसे बड़ा दूरवीक्षण यंत्र होने का गौरव प्राप्त करता रहा।

पूर्ववर्ती सोवियत संघ इस क्षेत्र में अमेरिका से बाजी मार ले गया। उसने 238 इंच व्यास वाली दूरबीन बनायी और उसे सेमिकोदनिकी पर्वत पर स्थापित किया। अमेरिकी दूरबीन 450 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर तक प्रकाश को दिखा सकती थी, तो रूसी यंत्र 6 अरब प्रकाश वर्ष दूर के दृश्य आँखों के सामने लाकर खड़े कर देता है।

इस बड़ी दूरबीन से दस हजार किलोमीटर पर खड़ा हुआ मनुष्य ऐसा दिखाई पड़ेगा, मानो बीस मीटर की दूरी पर खड़ा है। इतनी दूरी पर कोई माचिस की तीली जलाये, तो इसकी सहायता से वह प्रकाश भी साफ दिखाई देगा।संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हमारी आँखों की तुलना में इस अमेरिकी दूरबीन की ताकत दस लाख गुनी और रूसी दूरबीन की तीस लाख गुनी अधिक है।

दूरवीक्षणों का काँच बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। उन्हें घिसना, पालिश करना इतना नाजुक है कि एक धूल कण भी आड़े आ जाय, तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। इतने घिसाव में 70 ग्राम काँच की एक पर्त उतारनी पड़ेगी और उस परिवर्तन से उस मशीन को फिट करने में नये सिरे से हेर-फेर करने पड़ेंगे। उस खरोंच को निकालने के लिए पूरे काँच पर से एक माइक्रोन मोटाई की पूरी पर्त उतारनी पड़ेगी। रूसी दूरबीन 850 टन भारी है। इसका फोकस ठीक करने के तथा दिशा घुमाने के लिए स्वसंचालित बिजली की मशीनें लगी हुई है।

न तो सुविस्तृत आकाश की जानकारियाँ देने वाली दूरबीन बनाना सरल है और न अंतर्दृष्टि को विकसित करना। यह दोनों ही बड़े प्रयत्न और मनोयोग के सहारे सम्पन्न होती है। उनके लिए उपलब्ध साधनों को भी झोंकना पड़ता है। इस उपलब्धि में जितनी सफलता मिलती है, उतनी ही सशक्तता हाथ लगती है। अन्तर्ग्रही उड़ानों की सफलता उन दूरबीनों के कारण ही संभव हुई है। भविष्य में मनुष्य विश्व-ब्रह्माण्ड पर जितना आधिपत्य स्थापित कर सकेगा, उसमें भी योगदान इन दूरबीनों का ही रहेगा। अन्तःचेतना की ज्ञान-दृष्टि ही मानव जीवन के असीम विकास का पथ प्रशस्त करती है।

दृष्टिगोचर होने वाले अनन्त आकाश को प्राचीन खगोलवेत्ताओं ने बारह भागों में बाँटा है, जिन्हें बारह राशियों कहते हैं। कौन-सा ग्रह-नक्षत्र किस समय कहाँ है? इसका निर्धारण राशि-क्षेत्र का विभाजन किये बिना हो ही नहीं सकता। जिस प्रकार अंकगणित 9 तक के अंक और एक शून्य की मान्यता स्थिर कर लेने के उपरान्त ही गाड़ी आगे चलती है, उसी प्रकार खगोल विद्या में आकाश का विभाजन कर लेने पर ही किस ग्रह की स्थिति कब, कहाँ, कैसी थी या होगी-इसका आधार खड़ा किया जा सकता है।

बारह महीने सूर्य की बारह राशियों के हिसाब से बने है। एक महीना सूर्य एक राशि पर रहता है। बारह महीनों में यह वर्ष-

प्रदक्षिणा पूरी हो जाती हैं यों परिक्रमा पृथ्वी की ही होती है और सूर्य का स्थान बदलना वस्तुतः पृथ्वी के थान बदलने की प्रतिक्रिया रूप से ही परिलक्षित होता है, तो भी इससे सूर्य की राशि कक्षा निर्धारित करने में कुछ अन्तर नहीं पड़ता।

आकाश को देखकर राशियों का क्षेत्र विभाजित करने का क्रम उन चिन्हों के आधार पर निरूपित किया गया है, जो चिरस्थायी बने रहते हैं और जिनकी मूल स्थिति में अन्तर नहीं आता। यह चिन्ह आकाश स्थित निहारिकाओं के रूप में स्थिर किये गये है। निहारिकाओं के अब तो नाम भी दे दिये गये हैं, प्राचीनकाल में इन्हें आकृतियों की समतुल्यता के आधार पर पहचाना जाता था। यह पहचान ऐसी है, जिसमें भूल होने की कम से कम संभावना है।

खगोलशास्त्री बराहमिहिर ने अपने “ वृहज्जातक” ग्रन्थ में बारहों राशियों की आकृतियों का निर्धारण किया है। यूनानी ज्योतिषी भी प्रायः उसी से मिलती-जुलती मान्यता रखते हैं। अब नवीनतम ज्योतिष विज्ञान ने राशियों का क्षेत्र-विभाजन जिन निहारिकाओं को मील के पत्थर मानकर किया है, उन्हें भी आकृति की दृष्टि से पुराने ज्योतिष शास्त्र की तुलना में ही लिया जा सकता है।

वैदिक पंचाँग में मेष राशि को सींग वाले मेढ़े की आकृति का माना है। निहारिका “एन.जी.सी. 4449” का फोटो भी इसी आकृति का है। वृष राशि का सींगों वाला साँड़ निहारिका “ओरायन” से बिल्कुल मिलता है। कर्क निहारिका “एम. 17” केकड़े की आकृति जैसी ही है। कन्या राशि को नाव बैठी एक लड़की के रूप में अंकित किया जाता है यह “एन.जी.सी 4594” के चित्र से मेल खाती है। धनु को आधा घोड़ा और आधा धनुर्धर मनुष्य अंकित किया गया है, जो “एन.जी.सी. 6618” निहारिका से काफी साम्य रखती है। मकर राशि को मगर की आकृति का माना गया है। यह “एन.जी.सी. 7474 की अत्यन्त निकटवर्ती है।” कुम्भ घड़े का आकार है, यह “एन.जी.सी. 7293” की छवि है। मीन को दो तैरती हुई मछलियों की शक्ल प्राप्त है, जिनका मुख एक-दूसरे की पूँछ की ओर है यह चित्र निहारिका “एन.जी.सी. 253” से बिल्कुल मिलता-जुलता है।

इस प्रकार आठ राशियों की आकृति निहारिकाओं के चित्रों से मिल जाती है। शेष चार की आकृति इसलिए नहीं मिलती कि उस क्षेत्र की निहारिकाएं बहुत विरल हैं ओर उनके फोटो उतने स्पष्ट नहीं आते। इन दिनों जितने अन्तर्ग्रही स्पष्ट चित्र खींचने वाले कैमरे उपलब्ध है, उतना कार्य प्राचीनकाल में खुली आँखें नहीं कर पाती है।

जिन चार राशियों की आकृतियाँ आकाशस्थ निहारिकाओं में नहीं देखी जा सकी, वे हैं-मिथुन अर्थात् स्त्री-पुरुष, सिंह-शेर, तुला-तराजू, वृश्चिक-बिच्छू शेष आठ का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। इन आकृतियों को तुलनात्मक समझना चाहिए। सचमुच के बैल, सिंह, मगर मछली आदि की तलाश कोई आकाश में करने लगे और यह मान बैठे कि इस प्रकार के प्राणी वहाँ निवास और भ्रमण करते हैं तो यह भूल होगी।

ठीक इसी प्रकार देवी-देवताओं का चित्रांकन समझा जाना चाहिए। उस आकृति-प्रकृति के कोई जीवधारी देवता अमुक स्थान पर, अमुक प्रकार का जीवनयापन करते होंगे-जो ऐसा समझते हैं, वे भूल करते हैं। वस्तुतः विभिन्न शक्तियों और विभिन्न चेतनाओं की क्षमताओं और संभावनाओं को ध्यान में रखकर उनकी आलंकारिक प्रतिमाएँ गढ़ ली गई है। इसे गढ़ेपे की प्रक्रिया को बान बोध कह सकते हैं। छोटे बालकों को आरंभिक कक्षा में अ-अमरूद,आ-आम, इ-इमली, ई-ईख आदि आकृतियाँ दिखाकर अक्षर-बोध कराते हैं, उसी प्रकार संघ शक्ति को दुर्गा, णन शक्ति को लक्ष्मी, ज्ञान शक्ति को सरस्वती आदि आलंकारिक प्रतिमाएँ गढ़कर यह बताया गया है कि यह सभी भौतिक और आत्मिक शक्तियाँ उपलब्ध करने योग्य है।

जिन्हें संसार भवबन्धन दीखता है, वे जमीन खेद कर पाताल पहुँचें या सीढ़ियाँ लाँघकर आसमान पर चढ़ें। व्यावहारिक जीवन तो इस संसार में रहते हुए सहयोगपूर्वक ही जिया जा सकता है।

राशियों की आकृतियाँ न तो अनावश्यक है, न भ्रांत। वस्तुस्थिति समझाने का यह प्रतीक निर्धारण अलंकार है। इससे इन्हें समझना सरल पड़ता है। दिव्य शक्तियों को देव सत्ता के रूप में चित्रित किया जाना भी इसी स्तर का है।उनकी पूजा-प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष रूप में उन चेष्टाओं का संकेत है, जो उन विभूतियों को उपलब्ध कराने में सहायक होती है। आकाश के निरीक्षण के लिए दूरबीन आवश्यक है और जीवन सत्ता की असीम संभावनाओं को समझना तथा उस दिशा में प्रगति करने का आधार हमारी सूक्ष्म दृष्टि ही हो सकती है। भगवान शंकर का तृतीय नेत्र, मनुष्य का आज्ञाचक्र इसी ज्ञान-चक्षु उन्मोलन की आवश्यकता का संकेत करते हैं।


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