अपने निकटवर्ती को तो साधिए

January 1997

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प्रियजनों के सुख-दुख में सम्मिलित होना-सम्वेदना, सहानुभूति रखना मित्र धर्म का आवश्यक कर्त्तव्य है।यह आत्मीयता का क्षेत्र जितना विस्तृत हो उतना ही उत्तम है, पर जो परस्पर घनिष्ठ है उनके प्रति भावनात्मक सद्भावना एवं क्रियात्मक सहयोग का बरतना तो आवश्यक कर्त्तव्य हो जाता है। ऊँची स्थिति में तो यही आत्म-विस्तार आत्मिक प्रगति का माध्यम ही बन जाता है। परिवार और समाज की सुदृढ़ता इसी आदान-प्रदान पर पनपती है।

मात्र साथ-साथ से कोई प्रियजन-प्रेमास्पद नहीं बनता। जिनके बीच सुख-दुख की जितनी सम्वेदना होती है। जीवधारियों के बीच पनपने वाली यह आत्मीयता हो ऐसी सुखद सम्वेदना उत्पन्न करती है, जिसे संसार का सबसे बड़ा कहा गया है। प्रेम ही परमेश्वर है की उक्ति से यही तथ्य उभरता है कि भावनात्मक दिव्य अनुभूतियाँ सघन आत्मीयता के आधार पर पनपती है और उन्हीं से जीवन में सरसता उत्पन्न होती है। एक बाड़े में तो कितनी ही भेड़े भी रहती है-एक जेल में कितने कैदी बन्द होते है-रेल के डिब्बों और धर्मशालाओं में एक साथ कितने ही व्यक्ति घिचपिच बैठे रहते हैं, पर इस पर निकटता के बीच सघनता कहाँ होती है? ऐसी दशा में उनका साथ भी अखरता है। हर मुसाफिर चाहता है कि जितना भीड़ कम हो उतनी ही फैलने-फूटने की सुविधा मिले।

प्रियजनों के बीच जो स्नेह-सम्मान भरा सद्भाव होता है और जो सहयोग के रूप में विकसित होकर सर्वतोमुखी प्रगति बनता है-उसी को मित्रता अथवा प्रेम कहना चाहिए, देखना है कि हम अपनी आत्मीयता को सार्थक बनाने के लिए संपर्क क्षेत्र के प्रियजनों के साथ सुख-दुख की सम्वेदनाओं का आदान-प्रदान करते हैं या नहीं? यदि नहीं तो उस भूल का परिमार्जन तत्काल करना चाहिए। अन्यथा उस संपर्क का मूल्य उतना ही बाजारू बन जाएगा जितना कि ग्राहक और दुकानदार के बीच उथले स्तर पर पनपता और विलिप्त होता रहता है।

स्वजनों के साथ सद्भाव, सहयोग के आदान-प्रदान का स्तर ऊँचा उठाने का शुभारम्भ यदि अधिकतम घनिष्ठों से करें तो यह अधिक युक्ति-युक्त होगा और प्रभावी भी।

सबसे निकटवर्ती, सबसे घनिष्ठ और सदा-सर्वदा साथ रहने वाला अपना प्रियजन -शरीर। ऊपरी दृष्टि से हमारे साथ वह गहरी मित्रता निबाहता है और जीवन धारण करने में सर्वोपरि भूमिका निबाहता है। स्वामिभक्त इतना कि पल्ला पकड़ने के दिन से वियोग की अन्तिम घड़ी तक साथ देगा और अनवरत श्रम करेगा। “अहिर्निशि सेवामहे” का सूत्र साइनबोर्डों पर लिखा तो अनेकों जगह देखा गया है, पर उसे सच्चे मन से सार्थक करने में निरत रहने वाला सेवक तो शरीर ही है। जो कुछ पाया-कमया गया है उसका अधिकाँश श्रेय इस काया को ही है। जितनी गहराई में उतरते जाया जाय-प्रियजनों के समूह में सबसे अधिक उपकारी-सहयोगी और घनिष्ठतम साथी यह शरीर ही है। अब तक की इसकी सेवाएँ इतनी है, जिन्हें तौलने पर लगता है संसार के अन्य सभी के मिले-जुले उपकारों से भी इसके उपकार कही अधिक भारी है। ऐसे प्रियजन के लिए हमारे रोम-रोम में कृतज्ञता भरी रहनी चाहिए। भले ही उसे वाणी से व्यक्त न करें।

इस प्रियपात्र के अनुदानों के बदले में अपने भी कुछ प्रतिपादन है ही। उसकी सरसता और सुविधा के लिए अपनी ओर से भी बहुत कुछ किया गया है। आहार, निद्रा की सुविधा, सुरक्षा की, आमोद-प्रमोद की सुविधा जुटाने में दुर्बलता और रुग्णता हटाने में भरसक प्रयत्न किया गया है। यह दूसरी बात है कि इस हित साधन में दूरदर्शिता का अभाव रहने से पाले हुए बन्दर द्वारा मालिक की मक्खी मारने के लिए तलवार चलाकर चोट पहुँचाने की कहानी की तरह परिणाम उल्टा ही निकला है।

शरीर से हम लाभ तो कई प्रकार के उठाते हैं, पर उसके प्रति कर्त्तव्य पालन में प्रायः उपेक्षा ही बरतते रहते हैं। यदि ऐसी ही कुछ चलता रहा हो तो उस भूल के परिमार्जन का आज का दिन ही सबसे अच्छा मुहूर्त माना जाय।

जिस प्रकार साथी-सहयोगी से दुख-दर्द की बात पूछी जाती है, उसी प्रकार अभिन्न मित्र शरीर से भी पूछा जाना चाहिए कि उसे व्यथा ग्रसित तो नहीं रहना पड़ रहा है। बुरी आदतों की रेती से अपनी गरदन, अपनी ही रेती से तो नहीं रेती जा रही है? इन प्रश्नों का उत्तर काया के अवयव वाणी या लेखनी से तो व्यक्त नहीं कर सकते, अपनी स्थिति सामने रखकर यह विदित तो भली प्रकार करा सकते हैं कि उन्हें किस परिस्थितियों में गुजारा करना पड़ रहा है।

दर्पण लेकर चेहरे का निरीक्षण किया जा सकता है। त्वचा में लालिमा और चमक की कमी, आँखों के आस-पास गड्ढे, काले निशान, पुतलियों में मुर्दनी, गालों पर झुर्रियाँ, गरदन पर लटकती हुई खाल, दृष्टि की मन्दता, बालों का पकना, झड़ना, खोपड़ी पर जमने वाली फुंसी, कानों से कम सुनाई देना, जुकाम, सिर भारी रहना, नींद की कमी जैसी शिकायतों में से कुछ को भी देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि काया के इस शीर्ष स्थान को उपयुक्त पोषण नहीं मिल पा रहा है। जितना मिलता है, उससे अधिक खर्च करना पड़ रहा है और स्थिति दिवालिये जैसी बनती जा रही है। स्मरण शक्ति की कमी, सूझबूझ का अभाव, संकोच छाया रहना और किसी महत्त्वपूर्ण प्रसंग से अपने को बचाये, छिपाये रहना जैसे लक्षण भी इसी सिर शीर्ष की दयनीय दुर्बलता की प्रकट करते हैं।

सिर के बाद दूसरे नम्बर का विभाग है-धड़। इसमें हृदय, फेफड़े, जिगर, आभामय, आंतें, गुर्दे जैसे महत्त्वपूर्ण अवयव सटे हुए है। इन सबसे पूछा ना सकता है कि आप लोग किस स्थिति में अपना निर्वाह कर रहे है। अन्य अवयव तो अधिक गहराई में है और उनकी सही जानकारी कुरेदबीन के बाद ही लगती है, पर पाचन तन्त्र वह सब कुछ सहज ही बता देता है। जो उसे आये दिन सहन करना पड़ता है। जो भोजन किया जाता है वह ठीक तरह नहीं पचता। आंतें मल विसर्जन ठीक तरह नहीं कर पाती। पेट भारी रहना, खुलकर भूख न लगना जैसी अभ्यस्त कठिनाइयाँ यों देखने में छोटी लगती है, पर घुन की तरह वे जीवनी-रक्त इतनी स्वल्प मात्रा में बनते हैं कि बरतने भर से शरीर की आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती और थकान छाई रहती है। पेट में पड़े हुए अपच आहार का सड़ना स्वाभाविक है। यह सड़न, अपान वायु, डकार, जम्हाई, मुँह में छाले, टोन्सिल आदि के रूप में देखे जाते हैं। यह सड़न गैस बनकर जोड़ों में दर्द, हृदय की धड़कन, सिर दर्द जैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न करती है। अपच की सड़न विषाक्त गैस बनती हैं वह रक्त के साथ साँस के साथ समस्त शरीर में भ्रमण करती है और जहाँ कही अपने ठहरने के लिए स्थान पाती है वही डेरा डालकर बैठ जाती है। यही है विभिन्न नाम रूप वाली बिमारियों का प्रभाव कारण। यदि भोजन ठीक तरह पचता रहे, सड़न उत्पन्न न हो तो शरीर को जर्जर बनाने वाले दर्द, दाह, सृजन, गठन, व्रण आदि चित्र-विचित्र रोग नहीं उभरते हैं। पोषण के अभाव में स्वास्थ्यघाती बाह्य आक्रमणों से जूझना कठिन पड़ता है और भीतर से उत्पन्न होने वाली विकृतियों को निकाल बाहर करना दुष्कर बना जाता है। इतने विवरण का एक शब्द में निचोड़ यह है कि अपच के कारण तीन-चौथाई बीमारियों का त्रास सहना पड़ता है, दुर्बलता घेरे रहती है और अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है।

शरीर अपना परम स्नेही और घनिष्ठ स्वजन-सम्बन्धी है। उसकी दयनीय स्थिति पर चिन्ता करना और दुख होना उचित ही है। यदि इस दिशा में निष्ठुरता बरसी गई तो यही समझा जाएगा कि अपनी मित्रता झूठी है। जन्म से लेकर मरण तक के साथी अहिर्निश सेवा संलग्न स्वामिभक्त सेवक के कष्टों की भी यदि चिन्ता न की ला सकी और संकट से उभरने की आकाँक्षा न उठी तो इसका अर्थ यही होगा कि अपेक्षाकृत दूर रहने वाले, कम संपर्क में रहने वाले, कम उपयोगी, कम उपकारी स्वजनों के प्रति मित्र की गहराई तक पहुँच सकना किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा। बाहर से मोह के आवरण से ढका स्नेही होने का मुखौटा पहनकर किन्हीं की अपने प्रेमी होने का झूठा आश्वासन भले ही दिया जाता रहे।

अभ्यास में आने से तो हर बुरी स्थिति भी सह्य और स्वाभाविक लगने लगती है। ऐसी दशा में अपने शरीर को दुर्दशा पर भी यह मानकर सन्तोष किया जा सकता है कि वह दूसरे कितनों से अच्छी है, पर यह तो कोई तर्क नहीं हुआ। ऐसे तो चोट भी यह कह सकता है कि वह हत्यारा जितना क्रूर तो नहीं है। इस तर्क के आधार पर उसकी सज्जनता कहाँ सिद्ध हुई? यह कहने से वह सज्जनों की श्रेणी में कैसे गिना जा सकेगा?

तुलनात्मक अध्ययन से ही वस्तुस्थिति का पता चलता है। चले देखें कि नीरोग शरीर वालों की तुलना में हम कितनी गई-गुजरी स्थिति में है। खेलों के मैदान में गेंद के साथ-साथ उछलते हुए खिलाड़ी, बलिष्ठता की प्रतियोगिताओं में बाजी मारते हुए विजेता, दैनिक काम-काज में फुर्तीली चिड़ियों की तरह खिले हुए चेहरे अपने ईद-गिर्द ही अनेकों देखे जा सकते हैं। देखना चाहिए कि इन्हें कौन सी अतिरिक्त सुविधाएँ मिली हुई है, जिनके सहारे वे ऐसी सुदृढ़, सशक्त और सौंदर्यवान काया का आनन्द ले सके और अपने पास क्या कमी है जिससे उनसे वंचित रहना पड़ा?

स्वस्थ और सुन्दर दीखने वाले लोग से मिलकर उनके निजी जीवनक्रम की गहराई में उतर कर बहुत बारीकी से देखा गया, पर ऐसा कुछ हाथ न लगा जिससे यह समझा जाता कि इन लोगों ने अमुक साधनों को अतिरिक्त सौभाग्य के रूप में पाया और ऐसे अच्छी स्वास्थ्य के अधिकारी बने। अपने ऊपर कोई अतिरिक्त विपत्ति भी छाई हुई नहीं है, जिसके दबाव से शरीर को इस गई-गुजरी स्थिति में रहना पड़े। इतने पर भी यह असाधारण अन्तर क्यों दिखता है अपने संपर्क क्षेत्र में अपने से भी गई-गुजरी स्थिति में रहने वालों में से ढेरों के स्वास्थ्य कही अच्छे है फिर इस अन्तर का कारण क्या होना चाहिए। यह खोजना ही पड़ेगा अन्यथा इस असन्तुलन की जड़ तक न पहुँचा जा सकेगा और यदि सुधार करना हो तो उसका उपाय भी समझ में न आयेगा। अपने परमस्नेही शरीर के दुख में सम्मिलित होगा, उसकी दुर्बलता एवं रुग्णता हो हटाने के लिए प्रयत्न करना अपना परम पवित्र मित्र धर्म है। सही ही कहा गया है, “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्।”

शेखावटी (राजस्थान) में जन्मे एक युवक को भरी जवानी में संन्यास लेने की उमंग उठी। परिवार में वह नितान्त एकाकी था, इसलिए कुछ कठिनाई भी नहीं हुई। तीर्थों में भ्रमण करते रहे और पण्डों तथा बाबाओं की करतूतों को ध्यानपूर्वक देखते रहे। उन्हें यह समुदाय तनिक भी न सुहाया और लौटकर अपनी मातृभूमि चले आये।

उनने हर घर में एक अन्न घट रखा, जिसमें एक मुट्ठी अन्न डालने का नियम था। इतने भर से गाँव में प्राथमिक पाठशाला चल पड़ी। यह प्रयास उनने अन्य गाँवों में भी आरम्भ किया और करीब 100 स्कूल खुल गये। अब हाईस्कूल और कॉलेजों के लिए भी उनने चंदा इकट्ठा किया और साथ उनका सुसंचालन भी, वे सभी दिनों-दिन प्रगति करते गये। संगारिया को केंद्र बनाकर उनने विभिन्न विषयों के सात कॉलेजों की स्थापना की।

स्वामी जी लगातार तीन बार लोकसभा के सदस्य चुने गये। अपने प्रभाव का उपयोग वे शिक्षण विस्तार तथा कुरीति निवारण में करते रहे। यह सक्रिय संन्यास सब प्रकार सार्थक बना सहकर्मियों के लिए आदर्श बना। मरणपर्यन्त उनका उत्साह युवकों जैसा रहा।


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