हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते?

January 1997

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गायत्री परिवार, युग निमार्ण योजना, प्रज्ञा अभियान, शांतिकुंज की युगान्तरीय चेतना नामों से प्रख्यात हमारा यह मिशन सत्तर वर्ष पूरे कर इस माह से इकहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। अखण्ड-ज्योति भी प्रकाशन के साठवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। इस मध्य यह परिवार उत्तरोत्तर विराट बनता चला गया है। देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के माध्यम से अब यह संख्या करोड़ों में पहुँच गयी है।

परमपूज्य गुरुदेव ने विशुद्धतः साँस्कृतिक पुनर्जागरण के निमित्त यह मिशन-आन्दोलन खड़ा किया है। हमारा कार्य व्यक्ति निर्माण है। विचार क्राँति है एवं साँस्कृतिक नवोन्मेष की प्रक्रिया इसी माध्यम से साकार हो सकती हैं व्यक्ति, परिवार, समाज के माध्यम से सारे विश्व का नव-निर्माण ही युग निर्माण योजना का लक्ष्य है, जिसे ऋषि चेतना एवं दैवी सत्ताएँ आगामी 5 से 10 वर्षों में निश्चित पूरा करके दिखाएँगी।

जब भी कोई संगठन विराट रूप लेता है उसमें ऐसे व्यक्ति भी प्रवेश कर सकते हैं जिनकी राजनैतिक महत्त्वाकाँक्षाएँ हो। अहंता की ललक-लिप्सा ही कई संस्थाओं के विघटन का कारण बनती है। परमपूज्य गुरुदेव ने विशुद्धतः आध्यात्मिक अपने इस आँदोलन के सम्बन्ध में दूरदृष्टि रखते हुए आज से सत्ताईस वर्ष पूर्व बड़ा स्पष्ट लिख दिया था कि हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते? आज जो राजनीति का स्वरूप है उसे आमूलचूल बदलने, भ्रष्टाचार से आकण्ठ डूबे तंत्र को ठीक करने के लिए युग निर्माण योजना दुर्मति को सन्मति में बदलने व विचार परिष्कार द्वारा सूक्ष्म जगत के संशोधित-परिवर्तन का कार्य कर रही है, वह अपने में महत्त्वपूर्ण व समग्र है। यदि किसी पाठक, परिजन या शुभेच्छु को लगता है कि हमारी संख्या क्या राजनैतिक प्रवेश की इच्छा रखती है तो उसकी समस्त जिज्ञासाओं, आशंकाओं को यह लेख निर्मूल कर देता है जो एक पुस्तिका के रूप में भी उन दिनों व बाद में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है दो भागों में प्रकाशित यह विशिष्ट लेख, जो आजादी की पचासवीं वर्षगाँठ की बेला में सबके लिए माननीय व पठनीय हैं यह लेख अक्टूबर 1970 के संपादकीय रूप में लिखा गया था। आज 26 वर्ष भी यह उतना ही प्रासंगिक है।

ज्ञान यज्ञ द्वारा सर्वतोमुखी जन-जागरण का अपना महाअभियान अगले दिनों कुछ चमत्कारी उपलब्धियाँ उत्पन्न करके रहेगा। मानवीय आस्थाओं और अभिरुचियों की परिवर्तित करने का काम कठिन अवश्य है पर असम्भव नहीं। पिछली शताब्दियों में रूसी ने प्रजातन्त्र के तथा मार्क्स ने साम्यवाद के सिद्धान्तों की उपयोगिता की जिस प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया और इस विचारणा से प्रभावित लोगों ने जिस उत्साह एवं पुरुषार्थ के साथ आगे कदम बढ़ाया, उसका परिणाम अद्भुत निकला। आज इन दो मनीषियों द्वारा प्रतिपादित आदर्शों के आधार पर संसार के के तीन-चौथाई भाग पर शासन चल रहा है। विचारों की शक्ति अति प्रबल है। यदि वे बुद्धिसंगत एवं उपयोगिता की कसौटी पर खरे सिद्ध हो सके तो निश्चय ही उनका स्वागत होगा। फिर यदि उस विचारणा को सुव्यवस्थित संगठन द्वारा, व्यवस्थित कार्य-पद्धति द्वारा व्यापक बनाने का सुदृढ़ कार्य किया जाये तो कोई कारण नहीं कि वे अपने प्रकाश से विश्व के बड़े भाग की प्रकाशित न करे।

युग-निमार्ण योजना द्वारा प्रकाशित जन-मानस में उत्कृष्ट एवं आदर्शवादिता की प्रतिष्ठिता के लिये जो सशक्त अभियान चलाया जा रहा है, उनने पिछले दिनों मजबूती के साथ जड़े जमाई है। अपने परिवार की 4 हजार शाखाओं से सम्बद्ध लाखों सदस्य जिस उत्साह के साथ विचार-क्रान्ति का पथ प्रशस्त काने में लग गये है और सृजनात्मक एवं संघर्षात्मक शत-सूत्री योजना की जो प्रवृत्तियाँ चल पड़ी है, उन्हें देखते हुए हर कोई विश्वास कर सकता है कि अगले दिनों अपना परिवार जनजागरण एवं भावनात्मक नव-निर्माण की महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करेगा। धरती पर स्वर्ग अवतरण के अपने स्वप्न साकार होकर रहेंगे।

हम लोग जिस तत्परता के साथ नव युग-निर्माता की दिशा में आँधी-तूफान की तरह गतिशील हो रहे है, उसके सम्भावित परिणाम की प्रकाशवान् आशा सर्वत्र बँध चली है। इसलिए-शान्ति एवं मानवीय प्रगति के प्रति विश्वास है, वे अनेक प्रश्न पूछते और अनेक परामर्श देते रहते हैं। उचित भी है उत्तरदायित्व सँभालने वालों से अधिक सही और अधिक ठोस काम किये जाने की आशा की ही जानी चाहिए। इस दृष्टि से अपने उद्देश्यों का परिपूर्ण समर्थन करते हुए भी कार्यक्रमों में सुधार एवं परिवर्तन करने के अनेक परामर्श दिये जाते रहते हैं। और उनकी अति कृतज्ञता एवं आदर के साथ सम्पन्न भी करते हैं और उन पर विचार भी।

ऐसे ही सुझावों में एक महत्त्वपूर्ण एवं वजनदार सुझाव यह भी है कि “हम राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश क्यों नहीं करते? और राजतन्त्र को अपने अनुकूल बनाकर सरकारी स्तर पर वह सब सहज ही क्यों नहीं करा लेता, जिसके लिए इन दिनों इतनी अधिक माथापच्ची कर रहे है।” इस सुझाव के पीछे अपनी और अपने संगठन की वह क्षमता और व्यापकता है, जिसका सही मूल्याँकन कर सकने वाले लोग अनुभव करते हैं कि इन दिनों अपना तन्त्र किसी राजनैतिक, सामाजिक या धार्मिक क्षेत्र से कम प्रखर एवं कम सशक्त नहीं है।

वर्तमान युग में राजनीति को सर्वोपरि सत्ता और महत्ता स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह स्वीकार करने में भी हमें कोई अड़चन नहीं है कि सरकारें यदि यही कदम उठा सकें, सूझ-बूझ से काम लें और अपने क्रियातंत्र को सुव्यवस्थित रख सकने में समर्थ हो तो वे अपने क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति कर सकती है। जापान, चीन, रूस, जर्मनी, अरब, इजराइल आदि ने चंद दिनों के भीतर अपने ढंग से, अपनी योजनानुसार अभीष्ट परिवर्तन के प्रकार आँखें बन्द किये रहे। धर्म का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं, यह दूसरों ने भले कहा हो हमने यह शब्द कभी नहीं कहे है। इतिहास ने हमें सिखाता है कि धर्म की स्थापना में राजनीति के मदोन्मत्त हाथी पर धर्म का अंकुश रहना चाहिए। दोनों एक-दूसरे के विरोधी वहाँ वरन् पूरक है। दोनों में अपेक्षा या असहयोग की प्रवृत्ति नहीं वरन् घनिष्ठता एवं परिपोषण का सघन तारतम्य जुड़ा रहना चाहिए।

इतिहास साक्षी है कि जनता के सुख-सौभाग्य में अभिवृद्धि का आधार दोनों के बीच सघन-सहयोग की प्रमुख तथ्य रहा है। गुरु वशिष्ठ के मार्गदर्शन और रघुवंशियों के शासन क्रम ने द्वापर में उस सतयुग की स्थापना की थी, जिसे हम रामराज्य के नाम से आदर के साथ याद करते हैं। चाणक्य के मार्गदर्शन से गुप्त साम्राज्य पनपा, फैला और परिपुष्ट हुआ था। पांडवों का मार्गदर्शन कृष्ण ने किया था और दुशासन का उन्मूलन कर सुशासन की स्थापना की थी। राज्य मान्धाता का सहयोग शंकराचार्य को दिग्विजय का महत्त्वपूर्ण आधार था। भगवान बुद्ध के प्रभाव से सम्राट अशोक का बदलना और अशोक की सत्ता के सहयोग बुद्ध धर्म का समस्त एशिया में फैल जाना एक ऐसी सच्चाई है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। समर्थ गुरु रामदास जानते थे कि धर्म प्रवचनों से ही काम चलने वाला नहीं है, सुशासन की स्थापना भी आवश्यक है अस्तु, उन्होंने शिवाजी जैसे अपने प्रधान शिष्य को इस मार्ग पर अग्रसर किया, अग्रसर ही नहीं किया, अपने स्थापित 700 महावीर देवालयों के माध्यम से आवश्यक रसद, पैसा तथा सैनिक जुटाने जापान के एक लड़के कागावा ने पढ़ाई के बाद पीड़ितों की सेवा करना अपना लक्ष्य बनाया और उसी में लग गये। पिछड़े, बुरी आदतों से ग्रसित, बीमार लोगों के मुहल्लों में वे जाते और दिनभर उन्हीं की सेवा में लगे रहते। पेट भरने के लिए उसने दो घण्टे का काम तलाश कर लिया। इस सेवा कार्य की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। एक विदुषी लड़की को उनका यह कार्य बहुत पसन्द आया। वह भी उनके कन्धे-से-कन्धा मिलाकर कार्य करने को तैयार हो गयी। विवाह एक शर्त पर हुआ, कि वे लोग वासना पूर्ति हेतु नहीं, समाज सेवा हेतु मैत्री की खातिर बंधेंगे। उस लड़की ने भी अपना पेट भरने के लिए दो घण्टे रोज का काम तलाश लिया। दोनों के मिलकर काम करने से दूना काम होने लगा। उदार लोग उनके काम में सहायता देने लगे। फलतः कार्यक्षेत्र बहुत बढ़ गया। सरकार ने पूरे जापान में पिछड़े लोगों को सुधारने का काम उन लोगों को सौंपा। कागावा के प्रति जापान में इतनी श्रद्धा बढ़ी कि उन्हें उस देश का गान्धी कहा जाने लगा।

परिवार का अर्थ मात्र विवाह का गठबन्धन नहीं है, अपितु एक मित्र की तरह साथ चलकर काम करने वाले समूह का नाम है। कागावा को संयोगवश एक सुयोग्य पत्नी मिली एवं उन्होंने अपना परिवार परिकर अच्छा-खासा विशाल बनाकर अपने को सच्चे अर्थों में विश्वमानव प्रमाणित कर दिया।

की भी व्यवस्था की थी, शिवाजी उसी सहयोग के बली पर स्वतन्त्रता की ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत कर सके। गुरु नानक का पन्थ एक प्रकार से स्वाधीनता के सैनिकों से ही बदल गया। उसने “एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला” का आदर्श प्रस्तुत करके यह बता दिया कि राजतन्त्र और धर्मतन्त्र को विरुद्ध दिशाओं में नहीं चलने देना चाहिए, वरन् उनके कदम एक ही दिशा में उठने की आवश्यकता हर कीमत पर पूरी की जानी चाहिए। बन्दा वैरागी ने सच्चे अध्यात्मवादी का उदाहरण प्रस्तुत किया और समाधि साधना एवं ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण की तरह ही अपना सर्वस्व राजनीति की सदाशयता की ओर मोड़ने के प्रयास में उत्सर्ग कर दिया।

भगवान का धर्म से ही सीधा सम्बन्ध जुड़ता है। पर अधर्म के अभिवर्द्धन के प्रधान कारण दुशासन को बदलने के लिए वे समय-समय पर अवतार धारण करते हैं। कच्छ, मच्छ बराह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध आदि अवतारों ने कुशासन के विरुद्ध सीधी कमान सँभाली। उनकी लीलाओं में इस प्रकार के उन्मूलन एवं परिवर्तन का क्रम ही प्रधान है। अवतारों ने अन्य चरित्र भी दिखाये होगे पर उन्हें दिया प्रमुख प्रयोजन के लिए आना पड़ा वह अधर्म की सत्ता को धर्म स्थापन के उपयुक्त बनाना ही प्रधान कार्य था। अगला निष्कलंक अवतार जो होने जा रहा है। उसकी दृष्टि भी सुशासन की स्थापना पर ही होगी।

द्रोणाचार्य ने इस सच्चाई को दो टूक स्पष्ट कर दिया है। वे कहते थे।

अग्रतः चतुरो वेदा पृष्ठतः सशरं धनु। इर्द ब्राह्मं इदं क्षात्रं शास्त्रादपि शरादपि॥

हम वेदों को आगे रखकर लोगों को समझाने और सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं। साथ ही पौठ पर धनुष-बाण भी रखते हैं। यह धर्म शिक्षा ‘ब्राह्म’ है और यह शस्त्र धारण ‘क्षात्र’ है। दोनों शक्तियों के समन्वय से ही समस्याएँ सुलझती है।

उपरोक्त सत्य का प्रतिपादन करने वाले तथ्यों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े है। अभी कल-परसों महात्मा गाँधी जिन्हें इस युग का धर्म पुरुष कह सकते हैं, अपनी जीवन-साधना से राजनीति का प्रधान समन्वय करके यह प्रस्तुत करते रहे है कि धर्म और राजनीति एक-दूसरे के विरोधी नहीं वरन् पूरक है। लोकमान्य तिलक, महामना मालवीय, स्वामी श्रद्धानन्द जैसे धर्मवेत्ता मनीषियों को भी अविच्छिन्न रूप से जोड़े रखा। इसमें उनकी धार्मिकता घटी नहीं वरन् प्रखर एवं समुज्ज्वल ही होती चली गई।

शासन आज जिस तरह जीवन के हर पक्ष में प्रवेश करता चला जा रहा है और धीरे-धीरे व्यक्ति जिस तरह राज्य की कठपुतली बनने जा रहा है, उस बारीकी को समझाने वाला कोई सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति राजनीति से सर्वथा पृथक धर्म की कल्पना भी नहीं कर सकता। जो धर्म की कल्पना भी नहीं कर सकता। जो धर्म को राजनीति से अलग होने की बात कहते या समझते हैं, उन्हें नितान्त भोला ही कहा जा सकता है। प्रतिकूल राजनीति से धर्म की जीवित रहना भी सम्भव नहीं। रूस, चीन आदि साम्यवादी देशों की धार्मिकता की कैसी दुर्गति हुई, यह सबके सामने है। तिब्बत का धर्म शासन करने वाले लामाओं की राजनैतिक प्रतिकूलता ने कहाँ से लाकर कहाँ पटक दिया। राज्याश्रय पाकर ईसाई चर्च कितनी प्रगति कर रहा है और मध्य युग में राज्याश्रय ने इस्लाम धर्म के विकसित होने में कितनी सहायता की ।इन तथ्यों से कोई मूर्ख ही आँखें मोच सकता है।

इन तथ्यों को जानते हुए भी हम और हमारा संगठन राजनीति में क्यों प्रवेश नहीं करते, इसके सम्बन्ध में लोग हमें उलाहना देते और भूल सुधारने के लिये आग्रह करते हैं। वे जानते हैं कि हम शासन तंत्र में प्रवेश करने में बहुत दूर तक सफल हो सकते हैं। इसलिए उनकी और आतुरता आदि भी अधिक रहती हैं कितनी ही राजनैतिक पार्टियों द्वारा अपनी और आकर्षित करने और प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में सम्मिलित होने के लिए डोरे डाले जाते रहते हैं और उसके बदले ने हमें किस प्रकार सन्तुष्ट कर सकते हैं, इसकी पूछताछ करते रहते हैं यह सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है और जब तक हम विदाई नहीं ले लेते तब तक चलता ही रहेगा और हो सकता है कि यह परिवार वर्तमान क्रम से आगे बढ़ता रहा और सशक्त बनता रहा तो इस प्रकार के दबाव उस पर आगे भी पड़ते रहे।

इस संदर्भ में हमारा मस्तिष्क बहुत ही साफ है। शीशे की तरह उसमें पूर्ण स्वच्छता है। बहुत चिन्तन और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुँचें है और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुँचे है और बिना लाभ-लपेटे, दिपाव व दुराव के अपनी स्वतन्त्र नीति-निर्धारण करने में समर्थ हुए हैं हम सीधे राजनीति को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपादित करेंगे और यही अन्त तक करते रहेंगे। अपना संगठन यदि अपने प्रभाव और प्रकाश को सर्वथा तिरस्कृत नहीं कर देता तो उसे भी इसी मार्ग पर चलते रहना होगा।

भारत की वर्तमान राजनैतिक रीति नीतियों-शासन की गतिविधियों और तंत्र की कार्यप्रणाली पर आमतौर से सभी को असन्तोष है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की लम्बी अवधि में जो हो सकता था वह नहीं हुआ। तथाकथित आर्थिक प्रगति की बात भी विदेशी ऋण और युद्ध स्थिति तथा बढ़ती हुई बेकारी, गरीबों को देखते हुए खोखली है। नैतिक स्तर ऊपर से नीचे तक बुरी तरह गिरा है। विद्वेष और अपराधों कीक प्रवृत्ति बहुत पनपी है-गरीब अधिक गरीब बने है और अमीर अधिक अमीर। शिक्षा की वृद्धि के साथ-साथ जो सत्प्रवृत्तियाँ बढ़नी चाहिए थी, इस दिशा में चोर निराशा ही उत्पन्न हुई है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश की साख बढ़ी नहीं घटी है। मित्रों की संख्या घटती और शत्रुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। शासन में कामचोरी और रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति बहुत आगे बढ़ है और भी बहुत कुछ ऐसा ही हुआ है जो आँखों के सामने प्रकाश नहीं अँधेरा ही उत्पन्न करता है। अपनी इस राजनैतिक एवं प्रशासकीय असफलता पर हम में से हर कोई चिन्तित और दुखी है। स्वयं शासक वर्ग भी समय-समय पर अपनी इन असफलताओं की स्वीकार करते रहते हैं। जिन्हें अधिक क्षोभ है, वे उदाहरण प्रस्तुत करके शासनकर्त्ताओं की कटु शब्दों में भर्त्सना करते सुने जाते हैं और अमुक पार्टी को हटाकर अमुक पाटी के हाथ में शासन सौंपने की बात का प्रतिपादन करते हैं।

हमारे चिन्तन की दिशा अलग है, हम अधिक बारीकी से सोचते हैं। शासन की असफलता से हम दुखी है। हमें बहुत खेद है कि विगत वर्षों में जितना बढ़ा जा सकता था, उतना नहीं बढ़ा गया। प्रगति कुछ भी न हुई हो सो बात नहीं पर दूसरे देशों की तुलना में हमारी चाल इतनी धीमी है कि इस क्रम से हजारों वर्ष में भी प्रगतिशील देशों की पंक्ति में भौतिक दृष्टि से भी खड़े न हो सकेंगे। गाँधीजी के धर्मराज्य, रामराज्य और विश्वमंगल की आध्यात्मिक प्रगति तो अभी लाखों मील आगे की बात है।

इन परिस्थितियों के लिए किसी राजनेता यह पाटी को दीप देकर अपना जी हलका नहीं कर सकते, वरन् गम्भीरता से उन कारणों को तलाश करते हैं, जिनके कारण यह विकृतियाँ उत्पन्न हुई है। रोग का कारण प्रतीत होने पर ही उसका उपचार सम्भव है। दूसरों की तरह उथला नहीं अधिक गम्भीर और दूरदर्शी होने को ही किसी दार्शनिक से आशा की जानी चाहिए। देखना यह होगा कि यह सब क्यों हो रहा है? अपना एक हजार वर्ष का इतिहास देशों और विदेशी सामन्तवाद द्वारा प्रवेश प्रज्ञा के उत्पीड़न का है। इस उत्पीड़न को सरल बनाये रखने के लिए जनता का मनोबल और बिखरा रखा जाना जरूरी था, सो तत्कालीन दार्शनिकों द्वारा ऐसी विचारधाराओं का प्रचलन किया गया, जो उपरोक्त प्रयोजन पूरा कर सके, शासन की दृष्टि से प्रजा ने ‘ब्राहृम’ और ‘क्षात्र’ दोनों ही अवाँछनीय स्वार्थों सिद्धि में लगे थे। प्रज्ञा इस चक्को में भौतिक और आत्मिक दृष्टि से निरन्तर पददलित होती रही। यही एक तथ्य है जिसने भारत जैसी उत्कृष्ट परम्पराओं वाली प्रज्ञा पर हजार वर्ष जितनी लम्बी अवधि तक पददलित रहने का कलंक लगाया।

इन विपन्न परिस्थितियों से देश को उबारने के लिए यों छुट-पुट प्रयत्न बहुत पहले से चल रहे थे पर उन्हें सुसंगठित और सुसंचालित होने का श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व को मिला। वे असली कारण जानते थे और प्रयत्नशील थे कि रचनात्मक कार्यों और बौद्धिक जागरण, स्वतन्त्र चिन्तन के माध्यम से प्रज्ञा के मनोबल, चरित्र, स्तर स्वाभिमान एवं शौर्य को जगाया-बढ़ाया जाय। स्वतन्त्रता संग्राम वे धीरे-धीरे चला रहे थे। क्रान्तिकारियों से उनके मतभेद का मूल कारण यह था कि वे चाहते थे स्वराज्य धीरे-धीरे उस क्रम से आगे जिस क्रम से देश उसे सँभालने योग्य प्रतिभा अपने में पैदा कर ले स्वतन्त्रता संग्राम के साथ चरखा, खादी हरिजन सेवा, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, सफाई जैसी प्रवृत्तियों को जोड़ देना यों तो अटपटा लगता है असहयोग आन्दोलन और सत्याग्रह की दार्शनिकता कितनी ही ऊंची क्यों नहीं हो। पर उसका व्यावहारिक पक्ष यह था कि इन सरलतम उपायों द्वारा जनता अपनी मूल चेतना विकसित करे और स्वराज्य धारण कर सकने में समर्थ हो जाय। वे जानते थे कि विभूति प्राप्त करने से अधिक उसे पचाना कठिन होता है। शक्ति की असली परीक्षा कोई सफलता प्राप्त कर लेना भर नहीं है वरन् उसके सदुपयोग से ही प्राप्ति कर्त्ता का गौरव आँका जाता है। भगीरथ गंगा अवतरण की पृष्ठभूमि बनाने से सफल ही गये थे पर उस धारा को सुव्यवस्थित रूप में प्रवाहित करने के लिए शंकरजी को अपनी जटाएँ फैलानी पड़ी। यही सर्वत्र होता है। गाँधीजी के मन में स्वराज्य प्राप्त करने की जल्दी नहीं थी। वे जनता की उस आन्दोलन महायज्ञ से प्रबुद्ध, सतर्क और सक्षम बना रहे थे।

क्रान्तिकारी कहते थे कि बिना शस्त्र धारण किये और मजबूरी प्रस्तुत किये बिना अँग्रेज जाने वाले नहीं है। बात उन्हीं को सच निकली। सन् 42 में क्रान्तिकारी तोड़-फोड़ ने सिद्ध कर दिया कि असहयोग सत्याग्रह नहीं, शस्त्र धारण ही वर्तमान स्थिति में राजक्रान्तियों की अनिवार्य आवश्यकता है। इस तथ्य को गाँधीजी भी जानते थे। वे स्वराज्य की उतावली में न थे।

जनता की उन दुर्बलताओं को हटाने में लगे थे जो पिछले हजार वर्ष के अज्ञानान्धकार युग में पीढ़ी-दर-पीढ़ी के हिसाब से चलते रहने पर उसके स्वभाव में सम्मिलित हो गई थी। अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने जब भारत को स्वराज्य दिला ही दिया था तो वे इस असामयिक उपलब्धियों से जितने प्रसन्न थे उतने ही चिन्तित भी। जन-जागरण का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता था। इसलिए उन्हें चिन्ता थी कि इस गंगावतरण का सुसंचालन कैसे होगा? उन दिनों उन्होंने एक अति महत्त्वपूर्ण सुझाव रखा था कि काँग्रेस लोकसेवी संस्था का रूप धारण करे और जन-जागरण के नितान्त आवश्यक कार्य में ही जुटी रहे। राजतंत्र जलाने के लिए एक उस स्तर के लोगों की पिछली पंक्ति बना दी जाय। प्रजा पर प्रभाव रखकर काँग्रेस राजनेताओं की नियुक्ति एवं उनकी रीति-नीति पर नियन्त्रण करे, पर स्वयं उससे पृथक रहकर वह जनमानस के परिष्कार का मूल प्रयोजन पूरा करे, जो किसी राष्ट्र की सर्वतोमुखी प्रगति का यहाँ तक कि सुशासन का भी मूल आभार है।

उन दिनों परिस्थितियाँ विचित्र थी। काँग्रेस नेता गाँधीजी से सहमत न हो सके। सारी शक्ति राजतंत्र को सँभालने में लग गई। रचनात्मक कार्यों में विश्वास करने वाले लोकसेवी भी उसी तंत्र में खप गये। सबका ध्यान सत्ता की ओर चला गया। सत्ता एक नशा है। उसका चस्का जिसे लगा कि फिर वह उसी घाट का हो लिया। काँग्रेस और उसका परिवार उसी दिशा में चल पड़ा। जन-जागरण के लिए रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों की जरूरत थी वे या तो विस्मृत हो गये या उनकी लकीर पिटती रही। अन्य छोटी-बड़ी राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर की संस्थाओं का भी यही हुआ। उनने भी अपनी बाहरी जामा वे कुछ बनाये रही हो, भीतर-ही-भीतर सत्ता-संघर्ष के लिए चल रही विभिन्न पार्टियों की प्रतिद्वन्द्विता में ही वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शामिल थी। ध्यान बँटा सो बँटा पिछले वर्षों में जिस बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक क्रान्ति की जरूरत थी, शिक्षा और कला के महान माध्यमों को सृजनात्मक दिशा में लगाने के लिए उन्हें हथियाना या अपनाया जाना चाहिए

था। उस दिशा में किसी ने कुछ किया। इस भूल को हम ईमानदारी से स्वीकार कर ले तो कुछ हर्ज नहीं है। शेष अगले अंक में


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