प्रज्ञा अभियान का दृश्य सूत्र-संचालन

January 1997

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परमपूज्य गुरुदेव द्वारा लिखा गया यह लेख एक दस्तावेज है, मील का पत्थर है। यह बताता है कि दैवी शक्तियों द्वारा संचालित मिशन आन्दोलन की आँधी लेकर आते हैं व देखते-देखते चक्रवात का रूप ले, अनीति को तहस-नहस कर सतयुगी स्थापना कर दिखाते हैं। इन पंक्तियों में 1983-84 में प्रकाशित लेख/फोल्डर (क्रमांक 103) का कुछ अंश ही सबकी जानकारी तथा पुनर्वीक्षण हेतु प्रस्तुत है। विगत 12 वर्षों में यह यात्रा कई मील के पत्थर और पार कर चुकी। आगे भी करेगी, यह चिन्तन बलवती बनाने के लिए पढ़े, यह विशेष लेख।

प्रज्ञा अभियान की निर्धारणाओं और सफलताओं का लेखा-जोखा लेने वालों को कार्य-कारण की संगति बिठाने में सफलता नहीं मिल सकती। मानवी प्रत्यनों की एक सीमा है। उसे पार करते हुए अप्रत्याशित परिस्थिति उत्पन्न कर सकना नियन्ता की विधि-व्यवस्था के सहारे ही संभव हो सकता है। वर्षाकाल जैसा सजलता, हरीतिमा। सर्दी जैसी ठिठुरन। बसन्त जैसी मुस्कान। गर्मी जैसी तपन कोई मनुष्य उत्पन्न नहीं कर सकता, भले ही वह कितना समर्थ क्यों न हो आँधी जितनी व्यापक बुहारी लगती है, उतना कर सकना किसी के बस की बात नहीं। हवा पीछे की चलती है तो वाहनों से लेकर यात्रियों तक की गति बढ़ा देती या सरलता अनुभव होती है। ऐसी अनुकूलताएं पूर्णतया स्रष्टा की इच्छा-व्यवस्था पर निर्भर रहती है। तूफान के साथ उड़ने को सहमत होने वाले तिनके-पत्ते तथा धूलिकण आकाश घूमते और अपंग होते हुए भी द्रुतगामी दौड़ लगाते हैं, इसे कौन नहीं जानता?

इतिहास में ऐसे घटनाक्रमों का उल्लेख है जिनकी संगति कायिक और बौद्धिक क्षमता के साथ नहीं बैठती। हनुमान का पर्वत उखाड़ना, समुद्र लाँघना और लंका उजाड़ना उनकी निजी सामर्थ्य से सम्भव हो सकता था यह किस प्रकार मान जाय? यदि वे इतनी ही समर्थ थे तो अपने स्वामी सुग्रीव को बालि के त्रास से क्यों न छुड़ा सके? अर्जुन यदि सचमुच ही महाबली थे तो द्रौपदी का भरी में अपमान क्यों होने देते? अज्ञातवास के दिनों जिस-तिस की नौकरी करके छिपते-छिपाते दिन क्यों गुजारते रहे? इन शंकाओं का कोई बुद्धिसंगत समाधान मिलता नहीं।

टिटहरी द्वारा समुद्र पाटने का प्रयत्न अगस्त्य ऋषि की सहायता से सम्भव होना व्यवहार बुद्धि की पहुँच से बाहर है। एक परशुराम पर फैले हुए अवाँछनीय तत्वों का इक्कीस बार सफाया करे और उनके मार्ग में आड़े न आये इसका क्या तुक? ग्वाल-बालों की सहायता से गोवर्धन उठाना और रीछ-वानरों के कौशल से समुद्र का पुल बाँधना भी कुछ ऐसा ही बेतुका है।

यदि पौराणिक गाथाओं की उपेक्षा की जाय तो भी ऐतिहासिक घटनाक्रम ठीक इसी स्तर के आश्चर्य की अगणित साक्षियाँ प्रस्तुत कर सकने में समर्थ है। बुद्ध की निजी क्षमता और उनके धर्मचक्र प्रवर्तन की व्यापक सफलता का तारतम्य मिलाया जाय तो वणिक बुद्धि का कोई गणित फार्मूला काम देता नहीं दीखता। गाँधीजी का सफल स्वतन्त्रता संग्राम किस प्रकार चोर निराशा और प्रतिकूलता को परस्त कर सका, इसकी कार्य-कारण संगति किसी कम्प्यूटर के सहारे बैठती नहीं है। समर्थ रामदास, गुरु गोविन्दसिंह, विवेकानन्द, दयानन्द, विनोबा आदि की सफलताओं को उनका निजी पुरुषार्थ भर माना जाय तो विवेचना न्यायसंगत नहीं होगी। उनके पीछे अदृश्य की अनुकूलता का समर्थ अनुदान भी काम करता पाया जाएगा, अन्यथा इनसे भी बड़ी योजनाएँ समर्थ साधनों के सहारे बनाने वालों में असंख्यों की असफलताएँ देखकर यही सोचना पड़ता है कि उनका निजी पराक्रम उस लकड़ी की नाव जैसा सिद्ध हुआ जो तूफान में फँसकर चट्टान से टकराकर अपना अस्तित्व गँवा बैठी और मल्लाह के डाँड सतह पर तैरते भर रह गये।

प्रज्ञा अभियान के आरम्भ से लेकर अब तक के इतिहास से जिनका निकटवर्ती सम्बन्ध रहा है, उनकी सामान्य बुद्धि आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकती। आज उसकी स्थिति और प्रगति इस स्तर की है कि संसार के महान परिवर्तन प्रस्तुत करने वाले अविस्मरणीय आन्दोलनों में उसकी गणना हो सके। स्थानीय और थोड़ी-सी समस्याओं को लेकर ही अब तक राजनैतिक, सामाजिक आन्दोलन होते और सृजन-संघर्ष के उपक्रम भी चलते रहे हैं, पर ऐसा किसी भी मंच से कदम उठाना तो दूर, सोचा तक नहीं गया कि 500 करोड़ मनुष्यों के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए कारगर प्रयास कब और किस प्रकार किया जाय? प्रज्ञा अभियान ही है जिसने इस संदर्भ में गम्भीरतापूर्वक सोचा, कदम उठाया और वह कर दिखाया जिस पर सहज बुद्धि को सहज विश्वास ही नहीं हो सकता।

प्रज्ञा अभियान की युग निर्माण योजना सामान्य योग्यता के व्यक्ति द्वारा साधनों का सर्वथा अभाव रहने और मानवी सहयोग की दृष्टि से मात्र उपहास ही हाथ लगने जैसी परिस्थितियों में ही चलाई गई है। उसे अवरोधों, प्रतिकूलताओं ने पग-पग पर चुनौती दी है। इतने पर भी यह प्रयास गगनचुम्बी स्तर पर पहुँचा। इसका रहस्य ढूंढ़ना हो तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि अदृश्य सत्ता की इच्छा, प्रेरणा और व्यवस्था ही इस रूप में प्रकट हो रही है- जिसे युग परिवर्तन का दृश्यमान सरंजाम कहा जा सके।

एक व्यक्ति सोचता है कि धर्मतन्त्र की शक्ति राजतन्त्र से अधिक है। भौतिक क्षेत्र की व्यवस्था और प्रगति का उत्तरदायित्व राजतन्त्र के कन्धों पर आता है, जबकि चिन्तन, चरित्र, व्यवहार और प्रचलन को सही रखने की जिम्मेदारी उठा सकने में मात्र धर्मतन्त्र ही समर्थ है। मनःस्थिति को पवित्र और प्रखर बनाये रहने में धर्मतन्त्र की भूमिका ही कारगर हो सकती है। इसलिए दुर्दशाग्रस्त धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित किया जाए। इसके लिए देश के प्रगतिशील धर्म-प्रेमियों को संगठित किया जाय और उनकी संयुक्त शक्ति को लोकमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन में यथा तथ्य रूप में लगाया जाय। यह चिन्तन तो एकाकी भी हो सकता था पर इसका कार्यान्वित होना ऐसा ही असंभव समझा गया, जैसा विश्वामित्र की युग-परिवर्तन चेष्टा और परशुराम की विचार-परिवर्तन प्रक्रिया को तत्कालीन लोगों ने उपहासास्पद बताया था। उन दिनों योजनाएं रंग लाई। धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण का विचार भी कार्यरूप में परिणत हुआ और आज संसार चकित है कि किस प्रकार यह सृजन सरंजाम साधन रहित परिस्थितियों में भी जुटाकर सफलता की ओर तूफानी गति से आगे बढ़ा।

शांतिकुंज हरिद्वार, गायत्री तपोभूमि एवं अखण्ड ज्योति संस्थान मथुरा की इमारतें जिनने देखी है। जो देश के कोने-कोने में विनिर्मित 2400 गायत्री शक्तिपीठें देखकर आये हैं वे जानते हैं कि इनके निमार्ण में 100 करोड़ से कम खर्च नहीं हुआ है। तीर्थ और देवालय तो पुरातनकाल में भी बने थे और वे सभी राजाओं और सेठों ने बनाये हैं। जन-स्तर पर इतने बड़े निर्माण चन्द दिनों में संकेत मात्र से बनकर खड़े हो गये हों, ऐसा उदाहरण अनादि काल से लेकर अद्यावधि कोई कहीं भी नहीं मिलेगा। अपने क्षेत्रों में वे भी प्रज्ञा संस्थान जनरेटरों की, ट्यूब-वैलों की, नर्सरियों की, प्रकाश- स्तंभों की भूमिका निभा रहे है। सभी के साथ समयदानी, कार्यकर्त्ताओं की उत्साहवर्द्धक संख्या कार्यरत हैं सभी का निर्वाह चल रहा है। सभी अपनी-अपनी सीमा परिधि में नवयुग के अनुरूप वातावरण बनाने में आशातीत ढंग से सफल हो रहे है।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान द्वारा नवयुग की महती माँग पूरा करने के लिए अभूतपूर्व कदम उठाया गया है। श्रद्धा पर आधारित पुरातन अध्यात्म तत्वदर्शन की नई पीढ़ी की मनःस्थिति को देखते हुए तर्क-ज्ञान तर्क और तथ्यों द्वारा प्रकाशित करने का प्रयास अभूतपूर्व है। अदृश्य जगत, रोक्ष विद्या, अतीन्द्रिय क्षमता का प्रत्यक्ष प्रतिपादन बन पड़ने से नास्तिकता को आस्तिकता में बदलने वाले जन-मानस को नई दिशा देने वाले दूरगामी परिणाम होंगे। इस कल्पना निर्धारणा और व्यवस्था के सम्बन्ध में विज्ञजन कहते हैं कि प्रचलित भौतिकवाद पर अध्यात्मवाद को प्रतिष्ठित करने वाला यह युगान्तरीय प्रयास है। भले ही वह महान आविष्कारों की तरह इन दिनों किसी छोटे कलेवर में ही विकसित क्यों न हो रहा हो।

सामूहिक साधनाओं के माध्यम से विषाक्त वायुमण्डल-वातावरण को बदलने के लिए प्रज्ञा पुरश्चरण की प्रक्रिया इन दिनों चल रही है। उसमें 24 लाख व्यक्ति भागीदार हैं और प्रतिदिन 24 करोड़ गायत्री जप सम्पन्न करते हैं। हरीतिमा संवर्द्धन का जन-आन्दोलन भी साथ-साथ चल रहा है सामूहिक धर्मानुष्ठानों के इतिहास में इसे अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है।

उपरोक्त तथ्य वे हैं जो सर्वसाधारण को भली-भाँति विदित है। विगत सत्प्रयासों को प्रतिफल थाली में परोसा और चखा जा रहा है। हाँडी में जो पक रहा है और अगले ही दिनों दृश्यमान होकर पिछली उपलब्धियों से अनेक गुने बढ़े-चढ़े चमत्कार प्रस्तुत करने जा रहा है, उसका अनुमान वे लोग लगाते हैं जो सूत्र-संचालकों के निकट संपर्क में है।

चर्म-चक्षुओं से अदृश्य जगत का तूफानी प्रवाह दृष्टिगोचर नहीं होता है। वे इसका निमित्त कारण किन्हीं शरीरधारी व्यक्तियों को देखते हैं। गुरुजी-माताजी की ओर इशारा करते और उनकी तप-साधना को श्रेय देते हैं। अनेकों को जी व्यक्तिगत लाभ मिले है और वातावरण बदलने वाले जो प्रयास चले है, उनके पीछे इसी युग्म की भावभरी चर्चा करते हैं। पर वस्तुतः बात वैसी है नहीं। यह सदा समझा जाता है कि कठपुतली के खेल में लकड़ी के खिलौने उचकते-मचकते भर है, उनके पीछे किसी बाजीगर की सधी हुई अदृश्य उँगलियाँ काम कर रही है। नियन्ता की युग परिवर्तन आकांशा ही योजना का एकमात्र कारण है। श्रेय किसे कितना मिला, यह उसकी ओर अग्रगमन की साहसिकता पर निर्भर है। गुरुदेव अपने स्थान बदलते रहते हैं ताकि लोगों को अनुभव हो सके कि उनके बिना कहीं कुछ रुकता नहीं, वरन् अपने क्रम से बढ़ता ही चला जाता है। जो सोचते हैं कि गुरुजी के रहने पर प्रज्ञा अभियान लड़खड़ाने लगेगा, उन्हें अपनी आशंका का इस आधार पर समाधान करना चाहिए कि यह किसी ओस की बूंदें दिखती तो मोती जैसी हैं। पर वे स्थिर कहाँ रह पाती है। आकर्षण भी ओस बिंदुओं की तरह है व्यक्ति विशेष के पराक्रम, निर्धारण, कौशल का परिणाम नहीं है। जो हुआ है वह नियन्ता के निर्धारण के अनुसार हुआ है। अगले दिनों उससे भी अनेक गुने समर्थ एवं व्यापक कदम उठेंगे। 500 करोड़ मनुष्यों का भाग्य-भविष्य बदलने के लिए उससे कहीं अधिक होना है जो किया जा चुका या किया जा रहा है। इसका सरंजाम कौन जुटाएगा? इसका समाधान एक ही आधार पर होता है कि तूफान अपना रास्ता आप बनाता है। उसका साथ तिनके-पत्ते तक देते हैं। मार्ग में अड़ने वाले विशालकाय वृक्ष उखड़ते और रेतीले टीले हवा में उड़ते और सत्ता समाप्त करते हैं। शीत, ग्रीष्म और वर्षा का बदलता मौसम जब परिस्थितियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन करता है तो कोई कारण नहीं कि अदृश्य जगत में चल रहा नियन्ता का प्रेरणा प्रवाह उसके लिए उपयुक्त आधार खड़ा न कर सके। प्रज्ञा अभियान की अद्यावधि सफलताओं को इसी दृष्टि से देखा और भावी सम्भावनाओं का अनुमान इसी आधार पर लगाया जाना चाहिए।


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