वास्तुदेव! नमस्तुभ्यम्

January 1997

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मत्स्यपुराण, अध्याय 252 से 256 एवं अग्निपुराण, अध्याय 93 में ऐ आख्यान का वर्णन आता है। उल्लेख के अनुसार, सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी ने एक वृहदाकार जीवन्त पुरुष की संरचना की। उसके विशाल कलेवर को देखकर देवता भयभीत हो गये। निदान के रूप में ब्रह्मा के आदेश पर बलपूर्वक उसे पृथ्वी पर लिटा दिया गया। वह पुनः उठ ने सके, इसलिए जिन-जिन देवताओं ने उसके जिन-जिन अंगों का पकड़ रखा था, उस पर अपना स्थायी निवास बना लिया। परिणाम यह हुआ कि वह आदि पुरुष-वास्तुपुरुष पृथ्वी तल पर दबा रह गया। ब्रह्माजी ने आशीर्वाद दिया कि भवन-निमार्ण के समय तुम्हारी अर्चना होगी, उसको तुमको पोषण मिलेगा। तुम्हारे अंगों के स्वभाव-गुण के हिसाब से जो भवन रचना करेंगे, वह सदा सुख-शान्तिपूर्वक उसमें निवास कर सकेंगे। इसके विपरीत जो ऐसा न करके तुम्हारी उपेक्षा करेंगे, उन्हें कष्ट-कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

उक्त मिथक के आधार पर आज के बुद्धिवादी युग में धरती के नीचे किसी शरीरधारी की कल्पना तो नहीं की जा सकती पर सूक्ष्म देवसत्ता की मान्यता में कोई हर्ज नहीं। वास्तव में जमीन के भीतर दबा यह वास्तुपुरुष ऐसी ही एक सूक्ष्म सत्ता है। पुराणों की यह शैली रही है कि उसमें किसी भी तथ्य को सोधे-सोदे ढंग से न कहकर उसको अधिक रोचक और अधिक ग्राह्य बनाने के लिए आलंकारिक रूप दे दिया जाता है वास्तुपुरुष के संदर्भ में भी यही बात है। ऐसी मान्यता है कि यह सुषुप्तावस्था में पड़ा हुआ है। भवन-निमार्ण से पूर्व हिन्दू संस्कृति में इसलिए उसे चैतन्य भूमि-पूजन किया जाता है। इससे उस देवसत्ता का संरक्षण सुनिश्चित होता है। यों आधुनिक सोच रखने वाले और पश्चिमी विचारधारा में ढले लोग इसे एक अन्ध-मान्यता भर मानते और इसकी उपेक्षा करते हैं पर यह बिल्कुल सत्य है कि स्थान और इमारतों की अपनी सूक्ष्म सत्ताएँ होती है।

पाँडिचेरी की श्रीमाँ कहा करती थीं (स्वेत कमल, पु.104) कि यह भूमिखण्ड और राष्ट्र के पृथक सत्ता और आत्मा होती है। उस आत्मा का का अपना एक चैत्यपुरुष होता है, अर्थात् उसकी एक सचेतन सत्ता होती है। आवश्यकता पडने पर वह साकार रूप भी धारण कर सकती है। धर्मानुष्ठानों में स्थान और वास्तु से संबंधित इन्हीं सत्ताओं को “ऊँ स्थन देवताभ्या नमः ॐ वास्तु देवताभ्यो नमः”कहकर अभिवादन किया जाता है। भवन-निर्माण के दौरान जो इस वास्तुचेतना को नहीं जगाते इसकी पूजा-अर्चा नहीं करते, वहाँ वास्तुदेव का तिरस्कार होता है। फलतः उसमें रहने वाले लोग सुखी नहीं रह पाते कोई-न-कोई बाधा उपस्थित होती ही रहती है। इसके अतिरिक्त ऐसे मकानों में अशान्ति का एक अन्य कारण भी मौजूद होता है। जिस प्रकार मानवी काया में अनेक मर्मस्थल होते हैं।, उन पर यदि वजनी भार लाद दिया जाय, तो शरीर को कष्ट होने लगता है, वैसे ही प्रत्येक छोटे-बड़े भूखण्ड में लेटे तद्नुरूप वास्तुपुरुष के भी कई मर्म स्थान है। उसके वास्तुपुरुष मंडल के पदविन्यास को भली-भाँति समझे बिना चाहे जहाँ जो निर्माण करना अहितकर है। निमार्ण के समय पूरब, उत्तर, दक्षिण के अतिरिक्त छह अन्य दिशाओं ईशान, आग्नेय नैऋत्य, वायव्य, ऊर्ध्व एवं अधः-इन सब पर भी विचार करना होता है। ज्योतिषशास्त्र में इन सबकी अपनी-अपनी महत्ता और विशेषता बतलायी गई है। प्राचीनकाल में जितने भी निमार्ण होते थे, सबमें वास्तुपुरुष मंडल के साथ-साथ इन दसों दिशाओं पर भी पूर्ण रूप से विचार किया जाता था। इसके बाद ही सृजन का आरंभ होते था। इसलिए वह संरचनाएँ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से हितकर साबित होती थी।

आज भवन-रचना पूर्व इस प्रकार के विचार से वास्तुकार इसलिए बचते हैं, क्योंकि उनके गले वास्तुपुरुष की अवधारणा नहीं उतरती, वे इसे किसी सनकी मस्तिष्क की उपज मानते हैं। दूसरे उनके पास इतना सब कुछ विचार कर सकने जितना न तो समय है, न ज्ञान। ऐसी स्थिति में इन दिनों इमारतें स्थापत्य वान के अनुरूप कैसे हो सकती है? इसमें सर्वाधिक दोष आधुनिक विज्ञान का है उसने हर उस तथ्य को, जिसकी बुद्धिसंगत व्याख्या असंभव थी अंधविश्वास मान लिया। जहां मान्यता के प्रति दुराग्रह हो, वहाँ सत्य का अन्वेषण कैसे संभव है? परिणाम यह हुआ कि वर्तमान स्थापत्य शास्त्र ने संरचनाएँ खड़ी करने के संबंध में दिखा स्थान और वास्तु चेतना की महत्ता को एकदम अस्वीकार कर दिया यही कारण है कि अब उसमें सब कुछ सुविधानुसार ही विनिर्मित होते हैं जबकि प्राचीन वास्तुशास्त्र ऐसा करने से स्पष्ट रूप से माना करता है। उसमें शयनकक्ष, स्नानघर, पाकशाला, बैठकखाना, एवं इनमें खुलने वाले दरवाजे, खिड़कियां-इन सभी के निर्धारित दिशा, संख्या और स्थान है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण, द्वितीय खण्ड, अध्याय 29 तथा तृतीय खण्ड, अध्याय 94-95 में इसका विस्तृत वर्णन हैं इसमें यहाँ कहा गया है कि इस विद्या का वास्तविक ज्ञाता किसी भी घर का भोजन चखकर यह बता पाने में समर्थ है कि वहाँ रसोईघर किस दिशा में है। दिखा-परिवर्तन से भोजन के स्वाद में परिवर्तन आता है- ऐसा इसके निष्णातों का कथन है। वे यह भी स्वीकारते हैं कि पाकशाला, शयनगृह, बैठकघर आदि की दिशाएँ नियमानुसार नहीं होने से शरीर और संबंधी अनेक प्रकार की जटिलताएँ पैदा हो सकती हैं यह सींव है कि ऐसे कमान में रहने वाला व्यक्ति मनोरोगी हो जाय और इस बात की भी संभावना भी बनी रहती है कि उसमें कई प्रकार की बिमारियों की गंभीरता और सामान्यता इस बात पर निर्भर करती है कि निर्धारण के कितने करीब अथवा दूर है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इमारत को बनाने में किस स्तर की भूल हुई है? त्रुटि का जो स्तर होगा, रोग की गंभीरता भी उसी अनुपात में कम या अधिक होगी। इन दिनों शरीर-मन संबंधी व्याधियाँ जिस गति से और जितनी बढ़ी है उसे अभूतपूर्व ही कहना पड़ेगा। इसका एक कारण वास्तुशिल्प संबंधी उक्त गड़बड़ियाँ हो सकता है।

यह तो स्थापत्य कला संबंधी गलतियों और उसकी परिणतियों की चर्चा हुई। अब तनिक इसके दूसरे पहले पर भी विचार कर लिया जाय तो उत्तम होगा। यह वह पक्ष है जिसमें वास्तुशिल्प की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए संरचनाएँ विनिर्मित की जाती है। इससे उसमें रहने वाले लोग और वस्तु, दोनों प्रभावित और लाभान्वित होते हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण मिश्र के पिरामिड हैं। सर्वविदित है कि उनमें अब भी सैंकड़ों वर्ष पूर्व मृत व्यक्तियों के शव (ममी) निर्विकार पड़े हुए हैं सड़न तक नहीं आयी है ऐसा वास्तु विद्या के नियमों का उल्लंघन कर बने आज के भवनों में संभव नहीं। उनमें तो दूसरे दिने से ही निर्जीव देह में विकार के लक्षण प्रकट और प्रत्यक्ष होने लगते हैं।इस विद्या के आचार्यों का मत है कि पूर्ण वास्तुशास्त्र सम्मत होने के कारण पिरामिडों का संपर्क ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की उन तरंगों से हो जाता है, जो उपयोगी एवं लाभकारी हैं। इन ऊर्जा तरंगों के संसर्ग में रहने के कारण ही उनके अन्दर की वस्तुएँ लम्बे काल तक एक जैसी स्थिति में बनी रहती है। प्रयाग-परीक्षणों के दौरान देखा गया है कि ऐसी संरचनाओं के साथ कई विलक्षण परिणाम जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिए यदि इनके अन्दर भोंथरे ब्लेड को रख दिया जाय, तो उसकी धार तेज हो जाती है कोई अशान्त व्यक्ति कुछ समय उसमें बैठा रहे, तो उसे शान्ति मिलती है। यह भी विदित हुआ है कि इनके भीतर यदि कोई व्यक्ति नियमित धान का अभ्यास करे, तो थोड़े ही समय में वह उसकी गहराइयों में उतर जाता है। यह उसी ऊर्जा का नतीजा है, जिसके स्वाभाविक रूप में मिल पाने के कारण इन दिनों की इमारतों में अशान्ति और अस्वस्थता पैदा होती हैं। पिरामिडों में इसके लिए दीवारों का विशिष्ट झुकाव, उनके आधार व मध्य का पारस्परिक अनुपात एवं इन सबका उस स्थान के वास्तुपुरुष मंडल के साथ उपयुक्त तालमेल- इस आधार पर उपयोगी तरंगों को आकर्षित किया जाता है, जो आजकल के सामान्य और सुविधानुकूल निर्माणों द्वारा शक्य नहीं है।

उड़ीसा के कोणार्क मन्दिर के बारे में प्रसिद्ध है कि सम्पूर्ण मन्दिर के निमार्ण के उपरान्त जब उसके शिखर का निर्माण के उपरान्त जब उसके शिखर का निर्माण आरम्भ हुआ, तो बनाने के बाद वह बार-बार गिर पड़ता था। मुख्य शिल्पकार के हर प्रकार के प्रयास जब निष्फल हो गये, तो उसे बनवाने के लिए राजा नरसिंह देव की ओर से मुनादी पिटवायी गई और निर्माता को पुरस्कृत करने की घोषणा भी हुई। अन्ततः एक युवा वास्तुशिल्पी उसे सफलतापूर्वक बनाने में समर्थ हुआ। कहते हैं कि वास्तु गणना में मुख्य शिल्पी से कुछ त्रुटि रह गई थी, जिसे दूर कर नवागन्तुक ने उसका सफल निर्माण किया। इससे भी स्पष्ट है कि वास्तुपुरुष मंडल का कितना सुनिश्चित असर पड़ता है और उसके हिसाब से यदि सृजन कार्य न हुआ तो वास्तु-कार्य में कैसी और कितनी अड़चने आती है?

कई बार उक्त प्रतिकूलता से दैनिक जीवन में कठिनाइयों का आभास स्पष्ट रूप से मिलने लगता है। जब कभी कोई व्यक्ति किसी कारणवश एक मकान को छोड़कर दूसरे में रहना प्रारंभ करता है, पहले वाले की तुलना में अधिक प्रगति, समृद्धि और शान्ति है। आम बोलचाल की भाषा में इसकी ही लोग यह कहकर चर्चा करते हैं कि उक्त मकान उसे खूब फला अथवा अमुक स्थान उसको फला नहीं। वास्तव में मकान, स्थान और दुकान के फलने-न-फलने में उस भूमिखण्ड के वास्तुपुरुष और उस पर विनिर्मित संरचना-प्रकार का बहुत बड़ा हाथ है। कहा जाता है कि दिल्ली का लाल किला किसी भी बादशाह को नहीं फला। इसका कारण बताते हुए वास्तुविद् कहते हैं कि उसमें पूर्व की ओर कोई द्वारा नहीं होने से ही उससे जुड़े शासकों पर विपत्तियां आती रहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रतिकूल संरचनाओं से वास्तुदेव के कुपित हो उठने की सींवना बढ़ जाती है। ऐसा यदि हुआ, तो उसमें रहने वालों की शान्ति भंग होती है और आये दिन उन्हें कष्ट-कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसकी कारण से निर्माण पूर्व “भूमि पूजन” एवं निर्माण के पश्चात् गृह प्रवेश के नाम पर धार्मिक कर्मकाण्ड आयोजित किये जाते हैं, ताकि निर्माण-प्रक्रिया में यदि कोई भूल रह गई हो ओर उससे उन वास्तुदेव को कष्ट हो रहा हो तो इसे निर्माता का अज्ञान समझ कर वे क्षमा करें और पूजा-उपचार द्वारा प्रसन्न एवं तुष्ट होकर उसमें रहने वालों को भी शान्ति तथा तुष्टि प्रदान करें।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि जब सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए ब्रह्माजी ने एक ही बृहदाकार वास्तुपुरुष की सृष्टि की, तो फिर अलग-अलग स्थानों और मकानों के पृथक्-पृथक् वास्तुदेव कैसे हो गये? विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि एक बड़े चुम्बकीय इकाइयों की अवधारणा है। यह पृथक्-पृथक् उसी प्रकार के कार्य सम्पन्न कर सकते हैं, जैसे बड़ा चुम्बक। शरीर में भी जितनी ही कोशिकाएँ होती है। सभी के अपने-अपने कार्य है। यह समस्त इकाइयाँ मिलकर एक वृहत काया की रचना करती है। विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि शरीर की हर कोशिका में एक पूर्ण मनुष्य छिपा है। आज इसी सिद्धांत पर क्लोनिंग प्रक्रिया द्वारा समाज के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति अथवा महापुरुष की कार्बन काँपी तैयार करने पर शरीरशास्त्री विचार कर रहे हैं वास्तु विज्ञानियों का मत है कि ठीक इसी प्रकार धरती के विशाल वास्तुपुरुष की संरचना छोटी-छोटी इकाइयाँ से हुई है। यह वास्तु इकाइयाँ हर छोटे-बड़े भूखण्ड के अनुरूप छोटी-बड़ी वास्तु सत्ताओं का निर्माण और उस भूभाग का स्वतंत्र प्रतिनिधित्व करती है। अतएव मकान चाहे अत्यन्त छोटे स्थान में स्थित एक कमरे वाला हो अथवा विस्तृत भूमि में खड़ा भव्य भवन, इससे स्थापत्य देव को उपस्थिति से कोई अन्तर नहीं पड़ता। इमारत छोटी हो सकती है, उसके अनुरूप उसका वास्तुपुरुष भी छोटा हो सकता है, इतने पर भी उसकी शक्ति में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। दूसरे शब्दों में कहें, तो यहाँ छोटे-बड़े का भेद करना न्यायसंगत न होगा।

आत्मा परमात्मा का अंशधर है। उसी का प्रकाश उसमें समाया हुआ है। जब वह प्रकाश सम्पूर्ण रूप में अभिव्यक्ति पात है, तो फिर परमात्म-चेतना और मानवी-चेतना में कोई अन्तर रह नहीं पाता। मनुष्य ईश्वरमय बन जाता है और ईश्वर छोटा-बड़ा नहीं होता, और न ही उसकी शक्ति छोटी-बड़ी होती हैं यदि वह शुद्ध चेतना किसी क्षुद्र कण में प्रकट हुई, तो वहाँ भी अपनी उसी समर्थता का परिचय देगी, जैसी कि वह जानी-मानी जाती है। इसलिए सूक्ष्म जगत में आकार का कोई महत्व नहीं। वह सिर्फ भौतिक संसार की ही नाप-तौल में सहायक है। अस्तु, आधुनिक शिक्षा प्राप्त अभियंताओं और स्थापत्यकारों को यहाँ आकर-भेद और उससे उपजी वास्तुपुरुष संबंधी मान्यता में किसी प्रकार का कोई असमंजस नहीं करना चाहिए।

तनिक और गहराई में उतरकर उस बारे में विचार कर सकें, तो ज्ञात होगा कि वास्तुपुरुष की उक्त अवधारणा कोई एकदम नवीन है, सो बात नहीं। भारतीय संस्कृति में कण-कण में ईश्वरीय चेतना की विद्यमानता स्वीकारी गई है। यदि वह सत्ता सर्वव्यापी है एवं अणु-अणु में मौजूद है, तो नाम चाहे तीर्थदेवता, वास्तुदेवता, स्थानदेवता, ग्रामदेवता, इष्टदेवता कुछ भी दे दें, है वह सभी उस सर्वोपरि परमेश्वर के ही द्योतक। इन्हें गुणबोधक नामान्तर कहना ही उचित होगा। जब वह भवन और उनके निवासियों का संरक्षण कार्य सँभालते हैं तो वास्तुदेवता। किसी स्थान से संबद्ध होते हैं तो स्थानदेवता। ग्राम की सुरक्षा का भार वहन करते हैं तो ग्रामदेवता एवं वैयक्तिक समृद्धि का निमित्त बनने पर इष्टदेवता कहलाते हैं। अतः वास्तुपुरुष को सत्ता, महत्ता और मान्यता के संबंध में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

प्राचीन तीर्थों के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वे चैतन्य हुआ करते थे और लोग वहाँ निवास कर उससे लाभान्वित होते थे। यहाँ भी इस चैतन्यता को स्थापत्य पुरुष की चेतना के ही संदर्भ में समझा जाना चाहिए। पुराने जमाने में तीर्थ अक्सर गुरुकुल-आरण्यकों में हुआ करते थे। वहाँ केवल अध्ययन-अध्यापन, शिक्षण-प्रशिक्षण के ही कार्य नहीं होते, वरन् उपासना और साधना भी साथ-साथ चलती थी। बीच-बीच में सामूहिक धर्मानुष्ठान भी होते थे इससे वहाँ का स्थापत्व पुरुष जाग्रत हो उठता और भूमि में आकर तीर्थ सेवी शुद्ध अन्तः करण से कोई सात्विक कामना करें, तो वह पूरी हुए बिना नहीं रहती। इसीलिए उन दिनों प्रायश्चित प्रक्रिया ऐसे ही तीर्थों में आकर करने का विधान था, ताकि वहाँ के जीवन्त तीर्थदेव के सम्मुख दोष प्रकटीकरण और दण्ड स्वरूप स्वेच्छया तितीक्षा ग्रहण कर क्षमा याचना की जा के। तीर्थ चेतना से काफी माँगना प्रकारान्तर से भगवद् चेतना से ही क्षमा माँगने के समान है। निष्कपट अन्तरात्मा से जब अपने किये पर वास्तविक पश्चाताप उभरता है, तो वह उसे सुनती स्वीकारती और उसमें रियायत भी करती है। इसी कारण से सूर्यदेव नमस्कार के क्रम में सर्वेभ्यस्तीथेभ्यो नमः यह कहकर उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट किये जाते हैं। यथार्थ में हम यह अभिनन्दन-अभिवन्दन किसके प्रति दर्शाते है? क्या तीर्थ की इमारत और संरचना के प्रति? नहीं, यह अभिवादन समस्त तीर्थों के जीवन्त वास्तुपुरुष के प्रति निवेदित है।

शान्तिकुँज ऐसा ही एक चिन्मय तीर्थ है। विगत 25 वर्षों से करोड़ों की संख्या में होने वाला नित्य जप और नियमित यज्ञ के फलस्वरूप यहाँ के वास्तुपुरुष का जो दिव्य जागरण हुआ है, उसे अद्भुत और असाधारण ही कहना चाहिए। इसकी अनुभूति यहाँ आने और रहने वाला हर तीर्थसेवी कर सकता है, जिस आध्यात्मिकता की प्यास और आत्मोन्नति की ललक हो एवं जो उसके हिसाब से स्वयं को गढ़ने तथा ढालने के लिए तैयार हो जिसकी चेतना थोड़ी भी परिष्कृत हो ऐसा प्रत्येक व्यक्ति यहाँ के वास्तुदेव का जीवन्त मार्गदर्शन ओर प्रेरणा अन्तस् में अनुभव कर सकता है। इतना ही नहीं, उनकी अनुकम्पा भी उन पर बरसती है।

इतना स्पष्ट हो जाने के पश्चात् विज्ञजन को यह स्वीकारें में कोई ऊहापोह नहीं करनी चाहिए कि सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान परमेश्वर का प्रकाश ही सर्वत्र विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रहा है। वास्तुपुरुष की मूल मान्यता में भी उसी की आभा और ऊर्जा नामान्तर भेद से क्रियाशील हैं हमें उसकी सत्ता ओर महत्ता को स्वीकार करते हुए उस पर श्रद्धा और समर्पण करना चाहिए, तभी अंधाधुँध अट्टालिकाओं से भी भवन निर्माण संबंधी त्रुटियों के कुप्रभाव से वह हमारी रक्षा की व्यवस्था कर सकेंगे।


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