अनन्तता में अनन्त आश्चर्य सँजोए हमारा ब्रह्माण्ड

January 1997

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सृजेता की ही भाँति उसका सृजन भी अपूर्व है। सौंदर्य की अपूर्वता और रहस्यमयता इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में निहारी जा सकती है। तारों भरा आकाश की थाल, दूध की नी-सी प्रवाहित आकाश-गंगा एवं निरन्तर निहारती निहारिकाएं इसका शृंगार है। इसी के एक कोने में टँगे सूर्य की रश्मियां दिन में ताप देती है। तो शाम होते ही चन्द्रमा की छलनी से छनकर रात को शान्त, शीतल, समुज्ज्वल करती है। इसके आश्चर्यों का अन्त नहीं। सच तो यह है कि अपने रचनाकार के अनुरूप ही ब्रह्माण्ड का वैभव और इसका विस्तार भी अनंत है। प्राचीन वैदिक ऋषियों, मध्यकालीन दार्शनिकों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिकों तक सभी इसके रहस्यों के अन्वेषण में तत्पर रहे है। ऋषियों ने नेति-नेति कहकर इसकी महिमा का गान किया, तो दार्शनिक अज्ञेय कहकर चकित रह गए और वैज्ञानिक तो आज भी आश्चर्य से अभिभूत होकर इसका ओर-छोर तलाशने में लगे है।

प्राचीन वैदिक भारत के मनीषियों ने बहुत पहले ही कहा था “पृथ्वी स्थिरा चला भाति” अर्थात् पृथ्वी स्थिर है लेकिन चलती हुई प्रतीत होती है। लेकिन उनका यह कथन काफी समय तक उपेक्षित बना रहा । उस समय किसी को सूझा तक नहीं कि अपनी धरती विराट ब्रह्माण्ड का एक छोटा-सा हिस्सा है, उसका केन्द्र नहीं। उल्टे पश्चिमी जगत में ब्रह्माण्डीय ज्ञान की शुरुआत करने वाले अरस्तू ने पृथ्वी को ब्रह्माण्ड का केन्द्र बताते हुए कहा, कि इसी के चारों ओर सूर्य-चन्द्रमा आदि ग्रह-नक्षत्र चक्कर लगाते हैं। बाद में यह सिद्धांत प्लोटेमी, कापरनिक्स, जर्मनी के कप्लर एवं गैलीलियो के नये सिद्धांतों से कटता-छँटता न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण बल के सिद्धांत पर आ टिका। आकर्षण एवं प्रतिकर्षण बल के इस सिद्धांत ने विज्ञान जगत में एक नया आयाम दिया। इसके अनुसार गुरुत्वाकर्षण बल ही वह कारण है, जा अनन्त ब्रह्माण्ड में, अनन्त तारों, नक्षत्रों, ग्रहों के बीच एक सन्तुलन बनाए रहता है।

वर्ष 1929 में एडवीन हब्बल ने अपने अन्वेषणों से यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि ब्रह्माण्ड का प्रसार सतत् हैं हालाँकि कार्ल पेपर ने इसमें कई सन्देह भी व्यक्त किए और कुछ नए संशोधनों की जरूरत बतायी। वैसे तो नए प्रयोग और उनसे प्राप्त होने वाले निष्कर्षों से पुरानी बातें समाप्त हो जाती है। फिर भी यदा-कदा ऐसा भी होता है कि नए सिद्धांत पुराने सिद्धांतों को नए रूप में प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, मर्करी का नया सूत्र न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण बल से सम्बन्धित है और आइन्स्टीन का सापेक्षतावाद न्यूटन के गति के नियमों से पुष्ट होता है। कुछ भी हो नयी खोजों से दो बातें सामने आयीं पहली ब्रह्माण्ड का समय के साथ परिवर्तन एवं दूसरी ब्रह्माण्ड की प्रारम्भिक अवस्था का होना। इन दोनों ही बातें ने विश्व के शीर्ष वैज्ञानिकों को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर है, जिसकी चेतना इस समस्त ब्रह्माण्ड में तरंगित है और उसी की सचेतन इच्छा समस्त सृजन, परिवर्तन व विनाश के जिम्मेदार है।

न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण बल के निष्कर्ष से किसी भी वस्तु का द्रव्यमान उसके गुरुत्वीय बल पर निर्भर करता है। इस सिद्धांत के अनुसार ब्रह्माण्ड में चक्कर काटते ग्रहों की गत्यात्मक जानकारी उपलब्ध हो पाती है, उनकी संरचना की नहीं। हालाँकि संरचना को ठीक तरह से जाने बगैर उनकी गति को पूरी तरह से नहीं जाना जा सकता। इस सम्बन्ध में किए जाने वाले अन्वेषणों की सतत् प्रवृत्ति से दो महत्वपूर्ण नियम प्रकाश में आए। इन्होंने विज्ञान जगत में हलचल मचा दी। इनमें से एक है-ब्रह्माण्ड के सतत् विस्तार का अध्ययन करने वाला आइन्स्टीन का सापेक्षतावाद और दूसरा है ब्रह्मांड के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म कणों को स्पष्ट करने के लिए क्वाँटम का नियम। आणविक ऊर्जा तथा माइक्रो इलेक्ट्रानिक सिद्धांत इन्हीं दोनों नियमों की उपज है।

ब्रह्मांड की खोज-बीन की इन कोशिशों में जो इसके निरत्र विस्तार का रहस्य उजागर हुआ, उसे वैज्ञानिकों ने “डूप्लर प्रभाव” का नाम दिया। इसी सिद्धांत के द्वारा स्पेक्ट्रम से तारों की दूरी का अनुमान लगाया जाता है। स्पेक्ट्रम के नीले रंग के आस-पास पड़ने वाला तारों का प्रकाश उनकी समीपता का सूचक है। जबकि लाल पट्टी में पड़ने वाला प्रकाश उनके दूर होने का द्योतक हैं इस प्रयोग से वैज्ञानिकों ने अभी हाल में यह पता लगाया है कि तारे सुदूर क्षेत्र में खिसकते जा रहे हैं। विश्व विश्रुत वैज्ञानिक हक्लर भी इस निष्कर्ष से सहमत थे। इसकी सहमति को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से हमें सिर्फ ब्रह्माण्ड की स्थिरता का बोध हुआ था, लेकिन आइन्स्टीन के सापेक्षतावाद ने हमें इसकी गतिशीलता के सत्य से परिचय कराया।

ब्रह्मांड के इस गतिशील स्तार की सूक्ष्मताओं का अध्ययन करने ब्रह्माण्ड विज्ञानी फ्रेड हायल ने तीन बातें करते हुए भारतीय दर्शन के “यतः शून्यम् प्रविलीयन्ते” के सत्य को वैज्ञानिकता प्रदान की। उन्होंने अपने प्रथम बिन्दु को स्पष्ट करते हुए कहा-(1) ब्रह्माण्ड का प्रसार धीरे-धीरे बढ़ते हुए पुनः शून्य में विलीन हो जाता है। (2) दूसरे बिंदु के रूप में उन्होंने बताया कि यह प्रसार शून्य से नियत क्रम से अपना विस्तार करता है। इस दूसरे बिंदु में उन्होंने “इमानि सर्वानि जायन्ते” की सत्यता प्रमाणित की और अपनी तीसरी बात के रूप में उन्होंने इस विस्तार का क्रमशः तीव्रतर होना बताया।

उनके अन्वेषित ये तथ्य प्राचीन भारतीय ऋषियों के अन्वेषणों की वैज्ञानिकों के बारे में बताते हैं। साथ ही ब्रह्म की अद्भुत परिकल्पना को वैज्ञानिकों आधार प्रदान करते हैं। खगोल विज्ञानी फ्रेडहायल के अनुसार एक हजार लाख वर्ग में ब्रह्माण्ड पाँच से दस प्रतिशत बढ़ जाता है। बिगबैंग थ्योरी यह बताती है कि ब्रह्म से ब्रह्माण्ड उपजा और उसमें काल और दिक् भी पनपा। इसके अनुसार दस से बीस हजार लाख वर्ष पूर्व से दो आकाश गंगा के बीच की दरी शून्य थी। पेन्जीया और विल्सन ने रेडियो तरंगों से यह पता लगाया कि ब्रह्माण्ड का घनत्व आज की अपेक्षा पहले अधिक था। कैंब्रिज समूह के वैज्ञानिक मार्टिन रायल के तत से अपना ब्रह्माण्ड आकाश के मध्य स्थित है। इवेजीन लीफशील और ईशान खालान-नीकोव के निष्कर्ष अनुसार बहुत सम्भव है कि पहले कभी आकाश-गंगा में तारे आपस में एक-दूसरे के पास रहते हो, बाद में ये दूरी बढ़ी हो।

तथ्य कुछ भी हो, लेकिन आइन्स्टीन के अनुसार यह शत-प्रतिशत सत्य है कि ब्रह्माण्ड और उसका विस्तार किसी तरह का आकस्मिक संयोग नहीं, बल्कि ब्रह्म की सोच-समझकर की गयी रचना है। जो अपने रचनाकार की तरह अनन्त है और अनन्त आश्चर्यों से भरी है। यही नहीं अपने रचयिता से पूरी तरह से एकात्म है। यह ब्रह्माण्ड किस शक्ति से परिचालित है? इस बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से अवलोकन किया जाय तो क्वाँटम सिद्धान्त के अनुसार कण एक तरंग है। प्रत्येक कण में ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा होती है जो सर्वोच्च अवस्था में पायी जाती है। जो कल तक पदार्थ का सूक्ष्मतम कण माना जात था, आज के ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा होती है जो सर्वोच्च अवस्था में पायी जाती है। जो कल तक पदार्थ का सूक्ष्मतम कण माना जात था, आज के प्रायोगिक निष्कर्ष से वह भी कणों से मिलकर बना माना जा रहा है। तो फिर वास्तव में सूक्ष्म है क्या? इस सवाल के जबाब में मूरीजेलमेन ने क्वार्क की खोज की। इस खोज पर ही उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला। उनकी इस खोज के अनुसार प्रोटान और न्यूट्रान भी कणों से मिलकर बने है, इन्हीं कणों की क्वार्क कहते हैं। क्वार्क छह तरह के होते है- डाउन, स्ट्रैन्ज, चार्म्ड, बाँटम अप एवं टाप।

प्रोटान और न्यूट्रान तीन-तीन क्वाकों से बने होते हैं। प्रोटान में दो अप और एक अप र्क्वाक होता है। इन कणों में समायी ऊर्जा को इलेक्ट्रान बोल्ट द्वारा नापा जाता है प्रत्येक कण की एक धुरी होती है, जिस पर वे घूमे है। प्रत्येक कण का एक प्रतिकण भी मौजूद है। ठीक उसी तरह से जैसे देव शक्तियों की विरोधी आसुरी शक्तियाँ है। इन कणों की ऊर्जा जिस माध्यम से उत्सर्जित होती है उसे “फोर्स कैरिंग पार्टिकल” कहते हैं। इस तरह के बल वाहक कण चार तरह के होते हैं। वे चार प्रकार अपने चार बलों के अनुरूप ही है। इनमें से पहला है- गुरुत्व बल कण, दूसरा है विद्युत-चुम्बकीय बल कण, तीसरे को दुर्बल नाभिकीय बल कण कहते हैं और चौथा प्रकार है- मजबूत नाभिकीय बल कण। यही आपस में मिल-जुलकर ब्रह्माण्ड में स्थिरता , गति और सन्तुलन स्थापित करते हैं।

इनमें से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक और कमजोर न्यक्लियर बल के विलय से जो ऊर्जा निकलती है, उसे वैज्ञानिकों ने ग्राण्ड यूनीफिकेशन थ्योरी से समझाने की कोशिश की है। उनके अनुसार यही वह प्रक्रिया है, जिससे सौरमण्डल गतिमान होता है। अनिश्चितता के सिद्धांत के अनुसार प्रोटान के तीन क्वार्क की ऊर्जा निश्चित नहीं होती और इसी कारण प्रोटान कभी भी नष्ट हो सकता है। इतना ही नहीं, इसी वजह से इसका निर्माण भी कभी भी सम्भव हो सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह घटना ब्रह्मांड के सृजन और विनाश को वैज्ञानिक रूप देती है क्यों कि सृष्टि का कण-कण प्रोटान और न्यूट्रान से विनिर्मित है। कुछ र्गलक्सी क्वार्क से बने होते हैं, तो कुछ एण्टी क्वार्क से। एक ही स्थिति में क्वार्क एवं एण्टी क्वार्क से बना तारा कम गतिशील होगा। ग्राण्ड यूनिफिकेशन थ्योरी से यह भी पता चलता है कि अपने सृजन के समय ब्रह्माण्ड अत्यधिक तापयुक्त रहा होगा। इस ऊष्मा का कारण है एण्टी क्वार्क का इलेक्ट्रान और एण्टी इलेक्ट्रान एण्टी क्वार्क में बदलते रहते हैं और अन्ततः एण्टी क्वार्क से फिर क्वार्क में बदल जाता है। बदलाव की यह सारी प्रक्रिया ही भयंकर ऊष्मा की उत्पत्ति का कारण है।

अपने विस्तार की तेजी के अनुपात में ही ब्रह्माण्ड का तापमान भी कम होने लगता है। आज की तुलना में इसकी वृद्धि दुगुनी हो जाय तो वर्तमान तापमान भी घटकर आधा रह जाएगा। बिगबैंग थ्योरी के अनुसार अपनी शुरुआत में ब्रह्माण्ड की गर्मी काफी ज्यादा थी, लेकिन प्रसार के साथ ही तापमान में कमी आती गयी। इसी वजह से प्रोटान और न्यूट्रान कणों की ऊर्जा भी कम हुई। परिणामस्वरूप आपस में जुड़कर ड्यटीरियम का निर्माण हुआ। इस ड्यूटीरियम में एक प्रोटान और एक न्यूट्रान की उपस्थिति होती है। ड्यूटीरियम से दो प्रोटान और दो न्यूट्रान वाला हीलियम बना। इसी तरह क्रमशः तत्वों के संयोग से भारी तत्वों का निर्माण होता चला गया। ताप कम हुआ और दाब में बढ़ोत्तरी हुई। जीवन निर्माण के तत्व विनिर्मित होते गए और अनंतः ईश्वर की चैतन्य सत्ता ने अपने अनेक चेतन रूप प्रकट किए।

ब्रह्माण्ड की इस विस्तार प्रक्रिया में जहाँ भी गुरुत्वाकर्षण बल प्रक्रिया हुआ वह स्थान स्थिर हो गया। इस स्थिर स्थान ने अण्डाकार आकृति लेकर गोल-गोल घूमना प्रारम्भ कर दिया। इसी स्थान को आकाश -गंगा के रूप में मनीषी वैज्ञानिकों ने जाना। लाखों वर्षों बाद इन तारों ने पुनः सिकुड़ना शुरू किया। सिकुड़ने से मध्य भाग में घनत्व काफी बढ़ गया और बाहरी आवरण विस्फोट के साथ फट गया। इसी विस्फोट को सुपरनोवा कहते हैं जो आकाश गंगा में तारों की चमक के साथ झिलमिलाता नजर आता है।

अपनी अनन्तता में अनन्त आश्चर्यों को सँजोए यह ब्रह्माण्ड आज तक वैज्ञानिकों के यन्त्रों और उनके अन्वेषणों से आँख-मिचौली करता रहा हैं। इसके अनन्त आकार एवं सुव्यवस्थित सूत्र-संचालन के पीछे अब वैज्ञानिक भी किसी ऐसी अदृश्य शक्ति को स्वीकारने लगे है जो संप्रभु और सर्वव्याप्त है। जैसे जैसे उन्होंने अपनी खोज के दायरे बढ़ाए हैं वैसे-वैसे उनके सामने असंख्य अनुत्तरित सवाल भी खड़े होते गए है। अब तो अत्याधुनिक अन्वेषणों से प्राप्त निष्कर्ष यह भी कहने लगे है कि अनन्त आकाश में एक से अधिक ब्रह्माण्डों की उपस्थिति सम्भावित है। विज्ञान के एण्ट्रापी सिद्धांत ने अपने मत को दो बिंदुओं में स्पष्ट किया है। पहला बिंदु है वीक थ्योरी का, जिसके अनुसार निर्माण प्रक्रिया विस्फोट से हुई। एक क्रमोत्तर विकास में जीवन का प्रादुर्भाव हुआ। तारों के विस्फोट से अवशेष पदार्थों से सौर-मण्डल बना। बाद में यह ठण्डा होकर बुद्धिमान जीवों का आश्रय स्थल हुआ। दूसरा बिंदु स्ट्राँग थ्योरी का है, जो यह बताती है कि हमारे जैसी सभ्यता अन्य ग्रहों-नक्षत्रों में होने की बात स्पष्ट है।

मैसाचुशेट्स इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के विज्ञानवेत्ता एलेन गथ के अनुसार, प्रारंभिक विस्फोट के समय तापमान अधिक था, जिसके कारण प्रसार तेजी से हुआ। एक साथ ही इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फोर्स कमजोर पड़ गए। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ब्रह्माण्ड में 1080 लाख कणों की मौजूदगी हैं क्वाँटम सिद्धांत के अनुसार कणों की ये तरंगें अपने वास्तविक रूप में चैतन्य ऊर्जा की उच्चतम अवस्था है। यही नहीं इन कणों में समान रूप से आधी-आधी ऋणात्मक और धनात्मक ऊर्जा का आवेश है। जो न केवल परस्पर सन्तुलन स्थापित करती है। बल्कि परिणाम में ब्रह्माण्ड के रचयिता ब्रह्म के निष्क्रिय, निर्विशेष, निर्विकल्प, शून्यता का बोध कराती है।

यही निष्क्रिय शून्यता ही ब्रह्माण्ड के सारे कारोबार की धुरी हैं जो स्थिर रहते हुए भी गति की प्रेरणा और आधार है। यही निर्विकल्प शून्य अवस्था “महाकाल” है, जिससे काल गतिमान हुआ। वैज्ञानिक समुदाय में यह बाते पहेली की तरह पूछी जाती है कि घण्टा, मिनट की तरह ही क्या ब्रह्माण्ड भी समय के साथ संचालित होता है या फिर यह स्वयं समय का नियंत्रण और नियमन करता है? इस पहेली के जवाब में वैज्ञानिक मर्फी कहते हैं कि समय तीर की तरह बढ़ता है इसे तीन भागों में विवेचित किया जा सकता है। पहला थर्मोडायनेमिक एरो ऑफ टाइम। इसके अनुसार कप टेबल से गिरकर टूटना-इसमें कप का टेबल में होना भूतकाल को दर्शाता है, जबकि टूटना भविष्य को इंगित करता है, जिसमें विघटन की दर बढ़ती है, इस नियम के अंतर्गत आता है।

दूसरा है-साइकोलॉजिकल एरो ऑफ टाइम-इसमें किसी वस्तु, स्थान घटना आदि के बीत जाने का बोध होता है और तीसरा कास्मोलाजिकल एरो ऑफ टाइम, यह समय बताता है कि ब्रह्माण्ड सतत् वृद्धि एवं विकास के पथ पर अग्रसर है। मर्फी के अनुसार ब्रह्माण्ड के क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित विकास के क्रम को उनके दूसरे एवं तीसरे नियमों से प्रतिपादित किया जा सकता है। मर्फी कहते हैं कि प्रचार की व्याख्या क्वाँटम के गुरुत्वीय नियमानुसार सुनियोजित एवं स्पष्ट होती है। ब्रह्माण्ड अनन्त है इसकी सीमाएँ नहीं है। क्वांटम सिद्धान्त, अनिश्चयता के सिद्धान्त का सहयोगी है। क्योंकि घनत्व और कणों की रचना में कही एकरूपता नहीं पायी जाती। परन्तु फिर भी प्रसार को क्रमबद्ध माना जा सकता है।

मर्फी का मानना है कि थर्मोडायनेमिक्स एरो ऑफ टाइम के विपरीत यदि अपने विस्तार के बजाय ब्रह्माण्ड सिकुड़ने लगे तो एक बहुत बड़ा कौतूहल और महान आश्चर्य का विषय होगा। क्योंकि ऐसा होने पर विघटन पूर्वक निर्माण की ओर चलेगा। मृत जीवित होने लगेंगे, वृद्ध जवानी को ओर बढ़ेंगे और जवानी नादान, बचपन की मुड़ने लगेगी। परिणामतः भविष्य की ओर बढ़ने के बदले यात्रा भूत की ओर हो जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है और न होने की उम्मीद है। कारण कि ब्रह्माण्ड हमेशा निश्चित सीमाओं में सिमटने के बदले अपना सतत् विस्तार ही करता रहता है।

सतत् विस्तार की यह प्रक्रिया की यह प्रक्रिया ही सृष्टि के कण-कण को गतिमान बनाए रखे है। यह गतिमयता प्रत्येक कण में व्याप्त ऊर्जा के कारण और यह ऊर्जा ही समस्त गतिविधियों का मूल स्त्रोत है। पहले कभी भारत के वेदान्त परायण ऋषियों ने उद्घोष किया था, सृष्टि में नाम-रूप मिथ्या है, सिर्फ चित शक्ति और उसका मूल कारण ब्रह्म ही सत्य है। आज ब्रह्माण्ड की खोजबीन में जुटे वैज्ञानिकों ने भी निष्कर्ष प्रतिपादित करना शुरू किया है कि तरंगित ऊर्जा ही सत्य है और इस सत्य से भी परे है, ब्रह्म की शून्यता। जिसे सत्य का चरम और परम रूप भी कहा जाता है।

अपने इस सत्यान्वेषण में वैज्ञानिकों ने जहाँ ब्रह्माण्ड के अनन्त आश्चर्यों को देख नेति-नेति कहना शुरू कर दिया है। वही एक सम्भावना भी व्यक्त की है। कि जिस तरह सौरमण्डल की प्रतिमण्डल की प्रतिकृति परमाणु है उसी तरह ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति मनुष्य है।

हर युग की अपनी समस्याएँ होती है और तदनुसार नये चिन्तन से सामयिक समाधान मिलते हैं। जो विचार मंथन के लिए प्रेरित करे, वही युग साहित्य है।

जब नाम, रूप मय यह समस्त ब्रह्माण्ड चैतन्य ऊर्जा का प्रवाह है, ऐसे में यदि मनुष्य नाम-रूप से ऊपर उठकर स्वयं को चैतन्य ऊर्जा के इस प्रवाह से एकात्म-एकाकार कर ले। तभी वह ब्रह्माण्ड के यथार्थ रहस्य को खोज सकता है और वैज्ञानिकों की कल्पना है कि आश्चर्य नहीं हक यदि वह ऐसी एकात्मता में कह बैठे-”अहं ब्रह्मास्मि”

वैज्ञानिक जिसे आज कल्पना मान रहे है और जिसे अपनी भविष्य के शोध का आधार बताते हैं। पूर्ववर्ती वैदिक ऋषियों ने उसे अपनी चेतना में अनुभव किया था। इसी अनुभूति के बल पर वे कह सके थे-यत पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे। एकात्मता के इसी अनुभव ने उन्हें चित शक्ति के प्रवाह के उस मूल स्त्रोत तक पहुँचाया था, जो उनके अहं ब्रह्मास्मि के अनुभव का आधार बना। कल का भविष्य इस आध्यात्मिक अनुभव को वैज्ञानिक प्रयोगों से अनुभूत करेगा। यदि नाम, रूप की आसक्ति से हम ऊपर उठ सके तो हम भी इसके भागीदार होगे। बस आवश्यकता आसक्ति से उपराम होने की है।


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