अपनों से अपनी बात- - तीर्थ चेतना के उन्नायक संस्कृति पुरुष-गुरुदेव

June 1992

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अन्तरंग चर्चा के प्रसंगों में कई बार परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि “ यह समय ऐसा है , जब महाकाल मानवी चेतना में आमूलचूल हेरफेर करना चाहता है । ऐसे समय इतिहास में बार-बार नहीं आते । मानवी चेतना-मनःस्थिति व्यक्ति के सोचने का तरीका यदि बद गया तो धरती पर स्वर्ग स्वतः ही आ जाएगा । हमारे जितने भी निर्धारण हैं, इसी एक लक्ष्य पर केन्द्रित रहे हैं । धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण से लेकर शान्तिकुञ्ज की स्थापना तथा तीर्थों की प्रसुप्त चेतना जगाने से लेकर भारतभूमि की देवात्मशक्ति की-कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया इसी उद्देश्य विशेष को लेकर संपन्न की गयी है । “

उपरोक्त बात को थोड़ा गहराई से समझने का प्रयास करे । इस धरती पर मानव जाति के मसीहा , नई मानवता के अग्रदूत कितने ही एक के बाद एक आए , कई आध्यात्मिक व सामाजिक संगठन विकसित हुए-मत बने-पंथ बने किन्तु चूँकि मानवी प्रकृति को मूलतः बदला नहीं गया था , प्रयत्न असफल रहे। देखा गया कि मनुष्य लगभग इसी स्थान पर खड़ा है, जहाँ से वह इतनी आशा और उत्साह के साथ कदम बढ़ाते हुए चला था । वस्तुतः मानवी चेतना को बदले बिना परिस्थितियों को बदलने की इच्छा करना एक कोरे स्वप्न के समान है । कोई भी मानवजाति या विराट संगठन तब तक मूलतः बदला नहीं जा सकता जब तक कि मानव चेतना में स्वतः परिवर्तन न आए अथवा कोई बाहरी अपौरुषेय शक्ति यह बदलाव क्रिया रूप में न परिणत करे । महामानवों का आगमन इसीलिए होता है । वे व्यक्ति की मनःस्थिति को स्पर्श कर उसकी भाव संवेदना के प्रसुप्त बीजांकुरों को अंकुरित कर आत्म जाग्रति व तदुपरान्त स्रष्टा के क्रिया व्यापार में उसकी संलग्नता, समर्पण तथा तादात्म्य भाव बढ़ाते हैं । लगभग “माइक्रो न्यूरो सर्जरी” स्तर की यह चीरफाड़ प्रक्रिया मानव की चेतना के धरातल पर संपन्न होती है तथा ऐसी जाग्रत चेतना अपने आस पास के परिवेश से लेकर प्रक्रिया हलचलों को प्रभावित करती हुई सामूहिक चेतना को जगाती देखी जाती है । क्रमशः यही जाग्रत समष्टि चेतना उस आँधी का रूप ले लेती है जिसे अवतार कहा जाता है व देखते-देखते धरा का रूपान्तरण होता देखा जाता है ।

योगीराज श्री अरविन्द ने रूपकों का प्रयोग करते हुए परमात्म-चेतना के प्रतीक के रूप में विष्णु को पति तथा पार्थिव चेतना के प्रतीक के रूप में पृथ्वी को पत्नी बताते हुए इस धरती की संतान मनुष्य को भौमासुर कहा है तथा उसे पिशाच संबोधित किया है । जब-जब भी पार्थिव चेतना का परमात्मा चेतना से मिलन होता है तब युग बदलता है, भौमासुर की मृत्यु होती है तथा सतयुगी ऋषिगण जन्म लेने लगते हैं । श्री अरविन्द के अनुसार भौमासुर अर्थात् पशु प्रवृत्तियों के पलायन व देव संतति अर्थात् मानव में देवत्व के अतिचेतन के अवतरण का ठीक यही समय है । परम पूज्य गुरुदेव ने संस्कृति के प्रतीकों का तथा तीर्थ चेतना का पुनर्जागरण कर इस अतिचेतन के उतरने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया । श्री अरविन्द से आगे हटकर पूज्यवर कहते हैं कि “मेरा अतिमानस मेरा सुपरमैन किसी नयी मनुष्य पांति में नहीं, इन्हीं छोटे-छोटे साधारण से दीखने वाले प्रज्ञापरिजनों में आ उतरेगा , इनको आदर्शवादी सत्प्रवृत्तियों को जीवन में उतारकर श्रेष्ठता के पथ पर बढ़ते शीघ्र ही देखा जा सकेगा और नवयुग इन्हीं के द्वारा आकर रहेगा । मानव में देवत्व जितना सही है, उतना ही धरती पर स्वर्ग का अवतरण भी ।”

कितना आशावादी व आस्तिकतावादी चिंतन है यह जो हमें हमारी चेतना को गढ़ने वाला यह महापुरुष दे गया है । उनके जीवन के सभी पक्ष अद्भुत हैं अलौकिकताओं से भरे पूरे हैं किन्तु कुछ घटनाक्रमों के द्वारा हमें पता चलता है कि किस तरह से उनका जीवन मात्र एक लक्ष्य के लिए ही नियोजित हुआ , वह था मानवी चेतना का उत्थान व उसके लिए देव संस्कृति को माध्यम बनाकर उसके विभिन्न उपादानों द्वारा उनने चेतना को उसी तरह गढ़ा जिस तरह मूर्तिकार एक शिला को तराशकर उसे अभिनन्दनीय मूर्ति का रूप दे देता है।

वर्तमान मानव की दुर्दशा का कारण पूज्यवर ने आस्था संकट बताया । उनका मत था कि संस्कारच्यूत हो जाने के कारण ही आज की सारी समस्याएँ पनपी हैं । बढ़ते हुए मनोरोगों से लेकर सामूहिक विपत्तियों का एक ही कारण है कि व्यक्ति देव संस्कृति के निर्धारणों के प्रति अपनी आस्था खो बैठा है । यदि आस्था संकट का उपचार करना है, तो न के वल मानवी मन परिपूर्ण शिक्षण करना होगा , उसके अचेतन को गढ़ना होगा अपितु संचित कुसंस्कारों की धुलाई कर बिल्कुल नये संस्कार रचने होंगे । मनुष्य की आस्था वर्णाश्रम धर्म से लेकर षोडश संस्कारों पर तथा संस्कृति चेतना के ज्योति स्तम्भ कहे जाने वाले तीर्थों से लेकर आश्रम-देवालय-आरण्यक इन विद्या विस्तार के तंत्रों पर बिठानी होगी साथ ही उसके शिक्षण का एक व्यापक तंत्र चलाना होगा । धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण हेतु एक व्यापक सुनियोजित तंत्र से लेकर चौबीस सौ गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण तक तथा संस्कारों से जुड़े यज्ञों के संचालन से लेकर उनकी भारत भर की प्रव्रज्या तक सही सब घटक काम करते दिखाई पड़ते हैं । संस्कृति पुरुष के इस स्वरूप को समझने के बाद देव संस्कृति के उद्धार की शपथ लेने वालों को उज्ज्वल भविष्य का स्वरूप समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए ।

शान्तिकुञ्ज, जो नवयुग की गंगोत्री के रूप में महाकाल के घोंसले के रूप में क्रान्तिदर्शी ऋषि की सूक्ष्म चेतना का घनीभूत केन्द्र बना बैठा है, की स्थापना का प्रसंग जानने के बाद तीर्थ चेतना का महत्व अधिकांश की समझ में आ सकेगा । शान्तिकुञ्ज जिस स्थान पर वर्तमान में स्थापित है, वह कभी सप्तर्षि आश्रम में विश्वामित्र ऋषि की तपस्थली रही है । यह बात संभवतः उस जमीन विक्रेता की जानकारी में नहीं थी, नहीं उसके लिए महत्व की थी, जो आज से पच्चीस वर्ष पूर्व परम पूज्य गुरुदेव को बिक्री हेतु विभिन्न भूखण्ड दिखाते-दिखाते यहाँ से गुजर रहा था । उन्हें तो भूमि के संस्कारों की तलाश थी । वे जहाँ सघन हो, वहीं प्रज्ञावतार का ऋतम्भरा प्रज्ञा के भावी क्रियाकलापों का निर्धारण होना था । वहीं से देव संस्कृति के नवजागरण का अलख जगना था । शान्तिकुञ्ज जहाँ आज है, उसका वह वाला भाग जिसमें परम वंदनीया माताजी स्वयं साधनारत रहती हैं, वहीं सप्तर्षि मार्ग के पास आकर परम पूज्य गुरुदेव ने रुककर कहा कि इस भूमि के दाम बताइये । हम तो यही जमीन लेंगे । दलाल ने बहुत कहा कि “आप को और बहुत सो अच्छी जमीनें दिखाई हैं, उनमें से चुन लीजिए । यह तो ऐसी जमीन है जिसमें सतत् पानी चूता है । यहाँ धान भी मुश्किल से उगता है । आपका कुँज बनना तो दूर यहाँ खड़े रहना भी मुश्किल हो जाएगा । एक हजार ट्रक मिट्टी डालने पर भी यह जमीन सूखने वाली नहीं है । यह है भी शहर से 5-6 मील दूर । आप दूसरी अच्छी जमीन देख लीजिए आप ही के हित की बात बता रहा हूँ ।”

परम पूज्य गुरुदेव ने, जमीन के उस दलाल की तथा शुभचिंतक उनके साथ आए अपने संबंधी की, एक भी दलील नहीं सुनी व सौदा करके ही लौटे । वर्ष में 4-5 बार वहाँ जाने का क्रम बना रहा । 1968 से 1971 की जनवरी-फरवरी तक निर्माण कार्य इतना हो गया कि वंदनीया माताजी के साथ तीन-चार कार्यकर्ता वहाँ उनके पास रहकर उनके साधनादि उपक्रम में मदद करते रहें । कितने ट्रक मिट्टी डाली गयी , इसकी कोई गिनती नहीं है । दायीं और शिवालिक बायीं ओर गढ़वाल हिमालय तथा बीच में गंगा नहीं के किनारे स्थित यह स्थान अपने रमणीक नैसर्गिक सौंदर्य के कारण नहीं अपितु इस स्थान की उस विशेषता के कारण चुना गया, जिसकी चर्चा कभी उनने अंतरंग क्षणों में इन पंक्तियों के लेखक से की थी । उनका कहना था कि “मैं ऐसा स्थान चाहता था, जहाँ की भूमि में तपस्या के संस्कार हों । ऐसी जगह आश्रम बनाना चाहता था जहाँ इतनी अधिक संख्या में पहले ही गायत्री मंत्र शक्ति की साधना संपन्न हो चुकी हो कि थोड़ा सा मानवी पुरुषार्थ और लगा देने पर वह जाग्रत-जीवन्त सिद्ध पीठ बन जाए । तुम जानते नहीं हो, इसीलिए शान्तिकुञ्ज की यह जगह चुनी है मैंने । यहाँ आकर एक बार यहाँ की हवा में भी जो श्वास ले लेगा, उसके कुसंस्कार नष्ट होंगे व वह धन्य हो जाएगा । जो यहाँ रहकर थोड़ी भी साधना कर लेगा, वह आत्मिक क्षेत्र में तो प्रगति करेगा ही मानव मात्र के लिए एक श्रेष्ठ लोकसेवी बनने की प्रेरणा भी प्राप्त करेगा , मैंने यह आश्रम नहीं, चेतना जगत में हेरा-फेरी हेतु एक लैबोरेटरी बनायी है । तुम कभी आगे रिसर्च करो तो इसी विषय पर करना ।”

यह प्रसंग तीर्थ चेतना के उन्नायक के प्रतीक परम पूज्य गुरुदेव की-संस्कृति पुरुष के रूप में व्याख्या करते हुए प्रतिपादित किया जा रहा है । उनने अपनी कार्यस्थली जो भी चुनी, वह संस्कारित तपःस्थली थी । गायत्री तपोभूमि जो मथुरा-वृन्दावन मार्ग पर यमुना किनारे स्थित है, महर्षि दुर्वासा की तपःस्थली रही है । वहाँ उनने प्रायः पच्चीस वर्ष न केवल तप किया वरन् अखण्ड-अग्नि स्थापित कर गायत्री तपोभूमि की नींव डालकर एक ऐसे तंत्र का प्रवर्तन किया जिसे अगले दिनों धर्मतंत्र से लोकशिक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी । जब 1979 में वसंत पंचमी पर पूज्य गुरुदेव


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