को वेदान पुनरध्दसि?

June 1992

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स्वर उसे किन्हीं गहराइयों में बेधता चला गया। नर्मदा के उछलते जल-कणों की तरह उसके हृदय में अगणित उद्वेलन उठ खड़े हुए। अभी वह अपने ध्यान से उठा ही था-नेत्र अभी भी अवाँल्मीलित थे। मन का एक कोना अभी तक हृदयाकाश में सविता देव से एक होने के लिए हुलस रहा था। पर नर्मदा की जल तरंगों से एक होती गूँज उसे कुछ सुनने समझने-सोचने के लिए विवश कर रही थी। उसने मुड़कर देखा-महिष्मती की राजकन्या अपनी सहेलियों के साथ स्नान करके वापस लौट रही है। उसे जो कुछ सुनाई दिया था इन्हीं कन्याओं के आपसी वार्तालाप का एक अंश था। राजकन्या के बारे में उसने बहुत कुछ सुन रखा था। उसकी विद्वता-शिष्टता-कोमलता के पर्चे सारी महिष्मती में विख्यात थे। लोक उसके प्रति श्रद्धा करता था उसमें लोक के प्रति करुणा थी। ये सब किशोरियाँ अपने वार्तालाप में निमग्न धीमे पदों से जा रही थीं। “लेकिन तुम्हीं को संसार की चिन्ता क्यों पीड़ित करती है?” यह स्वर राजकन्या के साथ चल रही किसी-बालिका का था।

“क्यों न करें?”

“तुम्हें कमी क्या है? राज्य-वैभव-सुख के वे सारे साधन जिनकी मनुष्य इस संसार में कामना करता है। सौंदर्य प्रतिभा सौभाग्य का वह ढेर भी है जिसके लिए उसे विधाता के सामने आँचल फैलाना पड़ता है।”

“तब तुझे स्वार्थ की भी समझ नहीं सुनामा। समूचा लोक जब दुर्भाग्य की आग में जल रहा हो तब यह मुट्ठी भर सौभाग्य उस महाज्वाला में कब तक टिकेगा? देख नहीं रही हिंसा विकराल होकर खड़ी है राज्य-राज्य की, शक्ति-शक्ति की, सहारकारिण प्रवृत्ति मनुष्य को मनुष्य से दूर कर रही है। यह सारा संसार एक कुटुम्ब है। किन्तु चारों ओर घृणा ही घृणा छा रही है। क्या उससे मनुष्य को कभी छूटना नहीं है? जानती है इसका सिर्फ एक कारण है अज्ञान, वैदिक संस्कृति का ह्रास उफ! क्या करूँ । कहाँ जाऊँगा!! कौन करेगा वेदों का उद्धार!!! हृदय से उमंगती वेदना ने एक बार पुनः वातावरण को झंकृत कर दिया।

ये सब अब खुले मैदान में आ चुकी थीं। दोनों तरफ पेड़ों को अच्छी हरियाली दिखाई दे रही थी। लेकिन राजकन्या का मन इन सभी से दूर किसी गहरी वेदना में सना था, वह भी इन सबसे कुछ ही कदम पीछे था। वार्तालाप के शब्दों को वह बड़े धैर्य और गम्भीरता से सुन रहा था। शब्दों का स्पर्श उसके अस्तित्व को मथे जा रहा था। “कौन करेगा वेदों का उद्धार?” वाक्य नहीं जैसे प्रबल विद्युत तरंग उसके अस्तित्व में समा गई। एक प्रचण्ड चुनौती उसके समक्ष आ खड़ी हुई। कौन करेगा? कौन करेगा? उसे ऐसा लगा जैसे अपने ही शरीर का रोम-रोम उससे जवाब माँग रहा हो। अब उससे रहा न गया, पाँवों की गति बढ़ गई। कुछ ही क्षणों में वह राजकन्या के सामने आ खड़ा हुआ। एक पल भी बिना रुके उसके कण्ठ से ध्वनि फूट पड़ी “बहिन मैं करूँगा वेदों का उद्धार।”

इन अकल्पनीय शब्दों को सुनकर राजकन्या ही नहीं समस्त बालिकाएँ चौंक पड़ी। “कौन हो? क्या है तुम्हारा नाम? परिस्थिति भी समझते हो?” इन प्रश्नों के साथ सभी की नजरें उस पर आ जमीं। सोलह-सत्रह साल की किशोर वय। कमर में लिपटी धोती कंधे पर दुपट्टा बगल में चटाई के साथ एक पोथी भी दबी थी। चेहरे का गौरवर्ण संकल्प की ऊर्जा से कुछ रक्तिम हो रहा था।

“वेदानुयायी हूँ। कुमारिल भट्ट मेरा नाम है।” दो प्रश्नों का उत्तर देने के बाद तीसरे प्रश्न का जवाब देने के पहले उसने अन्तरिक्ष की ओर ताका। परिस्थितियाँ जानता हूँ, आज करुणा को भूलकर भी स्वयं को तथागत का अनुयायी कहने वाले कुटिल कूटनीतिज्ञों का वर्चस्व है। साधना के नाम पर चलने वाली हिंस्र और घृणास्पद पद्धतियाँ किसी से छुपी नहीं है। जगदम्बा की जीवन्त मूर्ति नारी को भोग की वस्तु मानना तो जैसे सामान्य बात है।”

“सब जानकर भी ऐसा अकल्पनीय साहस।” राजकन्या को जैसे अभी भी अविश्वास था। “हाँ? क्योंकि ईश्वर की सामर्थ्य ही मेरा बल है। उसके लिए सर्वस्व उत्सर्ग कर देना मेरा कर्तव्य।”

“तुम तुम कर सकते हो मेरे भाई। तब तुम अवश्य करोगे।” राजकुमारी की आँखों में इस किशोर बालक के प्रति अपरिमित स्नेह उमड़ आया। एक दिव्य रागिणी के समान आकाश में उषा उदित हुई उस दिन नए आलोक ने नया ही जीवन देखा। “बस मुझे आशीर्वाद दो! मुझ पर विश्वास करो। बहिन का हृदय ही भाई को अपरिमित बल देता है। मेरा संकल्प है वेदों की पुनः प्रतिष्ठ होगी। ज्ञान के स्वर आचरण में फूटेंगे। आचरण का संगीत व्यवहार में उतरकर धरा को उसका गौरव देगा।”

“विश्वास है मुझे।” बड़ी मुश्किल शब्द निकले। राजकुमारी की चिर साध पूरी हुई, शब्द मूक हो गए असंख्य अगणित भावनाएँ अनन्त को स्पन्दित करने लगीं।

हल्के से प्रणाम करके कुमारिल चल पड़े, उनके पाँव धीर गंभीर गति उठने लगे। नंगे पाँव मानो पृथ्वी की धूलि में जीवन की पर्तों पर संस्कृति का जीवित संदेश लिखने के लिए बढ़ चले हों?


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